षट् खंडागम
From जैनकोष
यह कर्म सिद्धान्त विषयक ग्रन्थ है। इसकी उत्पत्ति मूल द्वादशांग श्रुतस्कन्ध से हुई है (देखें - श्रुतज्ञान )। इसके छह खण्ड हैं - १. जीवट्ठाण, २. खुद्दाबन्ध, ३. बन्धस्वामित्व विचय, ४. वेदना, ५. वर्गणा, ६. महाबन्ध। मूल ग्रन्थ के पाँच खण्ड प्राकृत भाषा में सूत्र निबद्ध हैं। इनमें पहले खण्ड के सूत्र पुष्पदन्त (ई.१०६-१३६) आचार्य के बनाये हुए हैं। पीछे उनका शरीरान्त हो जाने के कारण शेष चार खण्डों के पूरे सूत्र आ.भूतबलि (ई.१३६-१५६) ने बनाये थे। छठा खण्ड सविस्तर रूप से आ.भूतबलि द्वारा बनाया गया है। अत: इसके प्रथम पाँच खण्डों पर तो अनेकों टीकाएँ उपलब्ध हैं, परन्तु छठे खण्ड पर वीरसेन स्वामी ने संक्षिप्त व्याख्या के अतिरिक्त और कोई टीका नहीं की है। १. सर्व प्रथम टीका आ.कुन्दकुन्द (ई.१२७-१७९) द्वारा इसके प्रथम तीन खण्डों पर रची गयी थी। उस टीका का नाम 'परिकर्म' था। २. दूसरी टीका आ.समन्तभद्र (ई.श.२) द्वारा इसके प्रथम पाँच खण्डों पर रची गयी। ३. तीसरी टीका आ.शामकुण्ड (ई.श.३) द्वारा इसके पूर्व पाँच खण्डों पर रची गयी है। ४. चौथी टीका आ.वीरसेन स्वामी (ई.७७०-८२७) कृत है। (विशेष देखें - परिशिष्ट )।