सत्
From जैनकोष
सत् का सामान्य लक्षण पदार्थों का स्वत: सिद्ध अस्तित्व है। जिसका निरन्वय नाश असम्भव है। इसके अतिरिक्त किस गति जाति व काय का पर्याप्त या अपर्याप्त जीव किस-किस योग मार्गणा में अथवा कषाय सम्यक्त्व व गुणस्थानादि में पाने सम्भव हैं, इस प्रकार की विस्तृत प्ररूपणा ही इस अधिकार का विषय है।
- सत् निर्देश
- द्रव्य का लक्षण सत् । - देखें - द्रव्य / १ ।
- द्रव्य की स्वतन्त्रता आदि विषयक। - देखें - द्रव्य।
- सत् सदा अपने प्रतिपक्षी की अपेक्षा रखता है। - देखें - अनेकान्त / ४ ।
- सत् के उत्पाद व्यय ध्रौव्यता विषयक। - देखें - उत्पाद।
- द्रव्य गुण पर्याय तीनों सत् हैं। - देखें - उत्पाद / ३ / ६ ।
- असत् वस्तुओं का भी कथंचित् सत्त्व। - देखें - असत् ।
- सत्ता के दो भेद - महासत्ता व अवान्तर सत्ता। - देखें - अस्तित्व।
- सत् विषयक प्ररूपणाएँ
सत् निर्देश
१. सत् सामान्य का लक्षण
स.सि./१/८/२९/६ सदित्यस्तित्वनिर्देश:। = सत् अस्तित्व का सूचक है। (स.सि./१/३२/१३८/७);(रा.वा./१/८/१/४१/१९); (रा.वा./५/३०/८/४९५/२८); (गो.क./जी.प्र./४३९-५९२)।
ध.१/१,१,८/१५९/६ सत्सत्त्वमित्यर्थ:। ...सच्छब्दोऽस्ति शोभनवाचक:, यथा सदभिधानं सत्यमित्यादि। अस्ति अस्तित्ववाचक:, सति सत्ये व्रतीत्यादि। अत्रास्तित्ववाचको ग्राह्य:। = सत् का अर्थ सत्त्व है।...सत् शब्द शोभन अर्थात् सुन्दर अर्थ का वाचक है। जैसे, सदभिदान, अर्थात् शोभनरूप कथन को सत्य कहते हैं। सत् शब्द अस्तित्व का वाचक है।
देखें - द्रव्य / १ / ७ [सत्ता, सत्त्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ, विधि ये सर्व एकार्थवाची शब्द हैं।]
देखें - उत्पाद / २ / १ [उत्पाद, व्यय, ध्रुव इन तीनों की युगपत् प्रवृत्ति सत् है।]
२. सत् शब्दों का अनेकों अर्थ में प्रयोग
स.सि./१/८/२९/६ स (सत्) प्रशंसादिषु वर्तमानो नेह गृह्यते। = वह (सत्) प्रशंसा आदि अनेकों अर्थों में रहता है...।
रा.वा./१/८/१/४१/१६ सच्छब्द: प्रशंसादिषु वर्तते। तद्यथा प्रशंसायां तावत् 'सत्पुरुष:, सदश्व:' इति। क्वचिदस्तित्वे 'सन् घट:, सन् पट:' इति। क्वचित् प्रतिज्ञायमाने - प्रव्रजित: सन् कथमनृतं ब्रूयात् । 'प्रव्रजित:' इति प्रज्ञायमान इत्यर्थ:। क्वचिदादरे 'सत्कृत्यातिथीन् भोजयतीति' आदृत्य इत्यर्थ:। = सत् शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है जैसे 'सत्पुरुष, सदश्व' यह प्रशंसार्थक सत् शब्द है। 'सन् घट:, सन् पट:' यहाँ सत् शब्द अस्तित्व वाचक है। 'प्रव्रजित: सन्' प्रतिज्ञावाचक है। 'सत्कृत्य' में सत् शब्द आदरार्थक है (रा.वा./५/३०/८/४९५/२५)।
ध.१३/५,५,८८/३५७/१ सत् सुखम् । =सत् का अर्थ सुख है।
३. सत् स्वयं सिद्ध व अहेतुक है
प्र.सा./त.प्र./गा.नं. यदिदं सदकारणतया स्वत: सिद्धमन्तर्बहिर्मुखप्रकाशशालितया स्वपरपरिच्छेदकं मदीयं मम नाम चैतन्यम् ...।९०। अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्य स्वभाव: तत्पुनरन्यसाधननिरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततयाहेतुकयैक रूपया वृत्त्या:...।९६। न खलु द्रव्यैर्द्रव्यान्तराणामारम्भ:, सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते।९८। = सत् और अकारण सिद्ध होने से स्वत: सिद्ध अन्तर्मुख-बहिर्मुख प्रकाशवाला होने से स्वपर का ज्ञायक ऐसा जो मेरा चैतन्य...।९०। अस्तित्व वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है और वह (अस्तित्व) अन्य साधन से निरपेक्ष होने के कारण अनादि-अनन्त होने से अहेतुक, एक वृत्ति रूप...।९६। वास्तव में द्रव्यों से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वभावसिद्ध हैं (उनकी) स्वभावसिद्धता तो उनको अनादि निधनता से है। क्योंकि अनादि निधन साधनान्तर की अपेक्षा नहीं रखता।९८।
पं.ध./पू./८-९ तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मात्रं वा यत: स्वत: सिद्धम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च।८। इत्थं नो चेदसत: प्रादुर्भूतिर्निरंकुशा भवति। परत: प्रादुर्भावो युतिसिद्धत्वं सतोविनाशो वा।९। = तत्त्व का लक्षण सत् है। सत् ही तत्त्व है। जिस कारण से कि वह स्वभाव से ही सिद्ध है इसलिए यह अनादि अनन्त है। स्वसहाय है, निर्विकल्प है।८। यदि ऐसा न माने तो असत् की उत्पत्ति होने लगेगी। तथा पर से उत्पत्ति होने लगेगी। पदार्थ, दूसरे पदार्थ के संयोग से पदार्थ कहलावेगा। सत् के विनाश का प्रसंग आवेगा।९।
देखें - कारण / II / १ [वस्तु स्वत: अपने परिणमन में कारण है।]
४. सत् का विनाश व असत् का उत्पाद असम्भव है
पं.का./मू./१५ भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुणपज्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति। =भाव (सत्) का नाश नहीं है। तथा अभाव (असत्) का उत्पाद नहीं है। भाव (सत् द्रव्यों) गुण पर्यायों में उत्पाद व्यय करते हैं।१५।
सं.स्तो./२४ नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तम: पुद्गलभावतोऽस्ति।४। =जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और सत् का कभी नाश नहीं होता। दीपक बुझने पर सर्वथा नाश को प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकार रूप पुद्गल पर्याय को धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है।२४।
पं.ध./पू./१८३ नैवं यत: स्वभावादसतो जन्म न सतो विनाशो वा। उत्पादादित्रयमपि भवति न भावेन भावतया।१८३। =इस प्रकार शंका ठीक नहीं है। क्योंकि स्वभाव से असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश नहीं होता है किन्तु उत्पादादि तीनों में भवनशील रूप से रहता है।
५. सत् की जगत् का कर्ता-हर्ता है
पं.का./मू./२२ जीवा पुग्गलकाया आयासं अत्थिकाइय सेसा। अमया अत्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स।२२। =जीव पुद्गलकाय आकाश और शेष दो अस्तिकाय अकृत हैं, अस्तित्वमय हैं और वास्तव में लोक के कारणभूत हैं।२२।
सत् विषयक प्ररूपणाएँ
१. सत् प्ररूपणा के भेद
ष.खं. व धवला/१/१,१/सू.८/१५९ संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य।८। ...न च प्ररूपणायास्तृतीय: प्रकारोऽस्ति सामान्यविशेषव्यतिरिक्तस्यानुपलम्भात् । = सत्प्ररूपणा में ओघ अर्थात् सामान्य की अपेक्षा से और आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा से इस तरह दो प्रकार का कथन है।८। इन दो प्रकार की प्ररूपणा को छोड़कर वस्तु के विवेचन का तीसरा उपाय नहीं पाया जाता, क्योंकि वस्तु में सामान्य विशेष धर्म को छोड़कर तीसर धर्म नहीं पाया जाता।
२. सत् व सत्त्व में अन्तर
रा.वा./१/८/१२/४२/२५ नानेन सम्यग्दर्शनादे: सामान्येन सत्त्वमुच्यते किन्तु गतीन्द्रियकायादिषु चतुर्दशसु मार्गणास्थानेषु 'क्वास्ति सम्यग्दर्शनादि, क्व नास्ति' इत्येवं विशेषणार्थं सद्वचनम् । = इस (सत्) के द्वारा सामान्य रूप से सम्यग्दर्शन आदि का सत्त्वमात्र नहीं कहा जाता है किन्तु गतिइन्द्रिय न्याय आदि चौदह मार्गणा स्थानों में 'कहाँ है, कहाँ नहीं है' आदि रूप से सम्यग्दर्शनादि का अस्तित्व सूचित किया जाता है।
३. सत् प्ररूपणा का कारण व प्रयोजन
रा.वा./१/८/१३/४२/२८ ये त्वनधिकृता जीवपर्याया:। क्रोधादयो ये चाजीवपर्याया वर्णादयो घटादयश्च तेषामस्तित्वाधिगमार्थं पुनर्वचनम् । = अनधिकृत क्रोधादि या अजीव पर्याय वर्णादि के अस्तित्व सूचन करने के एिल 'सत्' का ग्रहण आवश्यक है।
देखें - सत् / २ / २ गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में सम्यग्दर्शनादि कहाँ है कहाँ नहीं है यह सूचित करने को सत् शब्द का प्रयोग है।
पं.का./ता.वृ./८/२३/९ शुद्ध जीवद्रव्यस्य या सत्ता सैवोपादेया भवतीति भावार्थ:। = शुद्ध जीव द्रव्य की जो सत्ता है वही उपादेय है ऐसा भावार्थ है।
४. सारणी में प्रयुक्त संकेत सूची
अज्ञा. | अज्ञान | न. | नरकगति |
अना. | अनाकार, अनाहारक | नि. | नित्यनिगोद |
अनु. | अनुभय | पं. | पंचेन्द्रिय |
अप. | अपर्याप्त, अपर्याप्ति, अपकायिक | परि. | परिग्रह, परिहार वि. |
अभ. | अभव्य | प. | पर्याप्ति, पर्याप्त |
अव. | अवधिज्ञान | पृ. | पृथिवीकाय |
अवि. | अविरत गुणस्थान | प्र. | प्रतिष्ठित, प्रत्येक |
अशु. | अशुभ लेश्या आदि | व. | वनस्पतिकाय |
असं. | असंज्ञी, असंयम | भ. | भव्य |
आ. | आहारक, आहारसंज्ञा | मन: | मन:पर्यय, मनोयोग |
उ. | उत्कृष्ट, उभय | मनु. | मनुष्यगति |
एके. | एकेन्द्रिय | मा. | मानकषाय |
औ. | औदारिक काययोग, औपशमिक सम्य. | मि. | मिथ्यात्व |
का. | कापोत लेश्या, कार्मण | मै. | मैथुनसंज्ञा |
केवल. | केवलज्ञान, केवलदर्शन | यथा. | यथाख्यात |
क्षयो. | क्षयोपशमिक सम्यग्दर्शन | लो. | लोभकषाय |
क्षा. | क्षायिक सम्यग्दर्शन | व. | वचनयोग |
ज्ञा. | ज्ञान | वै. | वैक्रियकयोग |
च. | चतुर्गतिनिगोद | शु. | शुक्ललेश्या |
छे. | छेदोपस्थापना चारित्र | श्रु. | श्रुतज्ञान |
ति. | तिर्यंचगति | सं. | संज्ञी |
ते. | तेजोलेश्या (पीत.) | सा. | साधारण वनस्पति |
त्र. | त्रसकाय | सा. | सामायिक, सासादन |
दे. | देवगति | सू. | सूक्ष्म, सूक्ष्मसाम्पराय |
देश.सं. | देशसंयम |