समाचार
From जैनकोष
१. समाचार सामान्य का लक्षण
मू.आ./१२३ समदा समाचारो सम्माचारो समो व आचारो। सव्वेसिं हि समाणं समाचारो दु आचारो।१२३। =समता भाव समाचार है, अथवा सम्यक् अर्थात् अतिचार रहित जो मूलगुणों का आचरण, अथवा समस्त मुनियों का समान अहिंसादिरूप जो आचरण, अथवा सर्व क्षेत्रों में हानिवृद्धि रहित कायोत्सर्गादिकर सदृश परिणामरूप आचरण वह समाचार है।
न.च.वृ./३३८ लोगिगसद्धारहिओ चरणविहूणो तहेव अववादी। विवरीओ खलु तच्चे बज्जेव्वाते समायारे। =जो श्रमण लौकिक हैं, श्रद्धाविहीन हैं, चारित्र रहित हैं, अपवादशील हैं और तत्त्व में विपरीत हैं उनके साथ समाचार (संसर्ग) नहीं करना चाहिए। समान आचारवाले साधु के साथ हो साधु को संसर्ग रखना चाहिए।
२. समाचार के भेद
मू.आ./१२४-१२५,१३९,१४४ दुविहो समाचारो ओघो विय पदविभागिओ चेव। दसहा ओघो भणिओ अणेगहा पदविभागी य।१२४। इच्छामिच्छाकारो तधाकारो य आसिआ णिसिही। आपुच्छा पडिपुच्छा छंदण सणिमंतणा य उपसंपा।१२५। उपसंपया य णेया पंचविहा जिणवरेहिं णिद्दिट्ठा। विणए खेत्ते मग्गे सुहदुक्खे चेय सुत्ते य।१३९। उपसंपया य सुत्ते तिविहा सुत्तत्थतदुभया चेव। एक्केक्का वि य तिविहा लोइय वेदे तहा समये।१४४। =समाचार दो प्रकार का है - औघिक व पदविभागी। औघिक के दश भेद हैं और पदविभागी के अनेक भेद हैं।१२४। औघिक समाचार के दश भेद हैं - इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छेदन, सनिमन्त्रणा और उपसंयत।१२५। गुरुजनों के लिए आत्मसमर्पण करने वाला उपसंयत पाँच प्रकार का है - विनय में, क्षेत्र में, मार्ग में, सुख-दुख में, और सूत्र में कहना चाहिए।१३९। सूत्रोपसंयत तीन प्रकार का है - सूत्र अर्थ व तदुभय। यह एक-एक भी तीन तरह के हैं - लौकिक, वैदिक, व सामायिक।
३. औघिक व पदविभागी निर्देश
मू.आ./१३०,१४५-१४७ उग्गमसूरप्पहुदी समणाहोरत्तमंडले कसिणे। जं अच्चरंति सददं एसो भणिदो पदविभागी।१३०। कोइ सव्वसमत्थो सगुरुसुदं सव्व आगमित्ताणं। विणएणुवक्कमित्ता पुच्छइ सगुरुं पयत्तेण।१४५। तुज्झ पादपसाएण अण्णमिच्छामि गंतुमायदणं। तिण्णि व पंच व छ वा पुच्छाओ एत्थ सो कुणइ।१४६। एवं आपुच्छित्ता सगवरगुरुणा विसज्जिओ संतो। अप्पचउत्थो तदिओ विदिओ वासो तदो णीदी।१४७। =[औघिक समाचार के इच्छाकारादि दश भेद हैं। उनके लक्षण देखो अगला शीर्षक] जिस समय सूर्य उदय होता है, वहाँ से लेकर समस्त दिन रात की परिपाटी में मुनि लोग नियमादिकों को निरन्तर आचरण करें सो यह प्रत्यक्ष रूप पदविभागी समाचार कहा है।१३०। वीर्य आदि से समर्थ कोई मुनि अपने गुरु से सर्व शास्त्रों को जानकर विनय सहित प्रणाम करके प्रमाद रहित हुआ गुरु से पूछे।१४५। हे गुरो ! मैं तुम्हारे चरण प्रसाद से अन्य आचार्य के पास जाना चाहता हूँ। इस अवसर पर तीन वा पाँच वा छह बार तक पूछना चाहिए, करने से उत्साह व विनय मालूम होता है।१४६। इस प्रकार अपने श्रेष्ठ गुरु से पूछकर उनसे आज्ञा लेता हुआ अपने साथ तीन, दो वा एक मुनि को साथ लेकर जावे अकेला न जावे।१४७। [एकाकी विहार की विधि व निषेध सम्बन्धी - देखें - एकल विहारी , विहार]
४. इच्छाकार आदि का विषय
मू.आ./१२६-१२८ इट्ठे इच्छाकारो मिच्छाकारो, तहेव अवराधे। पुडिसुणणह्मि तहत्ति य णिग्गमणे आसिया भणिया।१२६। पविसंते अ णिसीही आपुच्छणिया सकज्जाआरंभे। साधम्मिणा य गुरुणा पुव्वणिसिट्ठह्मि पडिपुच्छा।१२७। छंदण गहिदे दव्वे अगिहदव्वे णिमंतणा भणिदा। तुह्ममहत्ति गुरुकुले आदिणिसग्गो दु उवसंपा।१२८। = शुभ परिणामों में हर्ष होना इच्छाकार है। अतिचार होनेरूप अशुभ परिणामों में मिथ्या शब्द कहना मिथ्याकार है। सूत्र के अर्थ सुनने में 'तथेति' कहना तथाकार है। रहने की जगह से पूछकर निकलना आसिका है। स्थान प्रवेश में पूछकर प्रवेश करना निषेधिका है। पठनादि कार्यों में गुरु आदिकों से प्रश्न करना आपृच्छा है। साधर्मी अथवा गुरु आदि से पहले दिये हुए उपकरणों को पूछकर ग्रहण करना प्रतिपृच्छा है। उपकरणों को देने वाले के अभिप्राय के अनुकूल रखना सो छन्दन है। तथा अगृहीत द्रव्य की याचना करना निमन्त्रणा है। और गुरुकुल में 'मैं आपका हूँ' ऐसा कहकर आचरण करना वह उपसंयत है।
५. इच्छाकार आदि का स्वरूप
मू.आ./१३१-१३८ संजमणाणुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे। जोगग्गहणादीसु अ इच्छाकारो दु कादव्वो।१३१। जं दुक्कडं तु मिच्छा तं णेच्छदि दुक्कडं पुणो कादु। भावेण य पडिकंतो तस्स भवे दुक्कडे मिच्छा।१३२। वायण पडिच्छणाए उवदेसे सुत्तअत्थकहणाए। अवितहमेदत्ति पुणो पडिच्छणाए तधाकारो।१३३। कंदरपुलिणगुहादिसु पवेसकाले णिसिद्धिअं कुज्जा। तेहिंतो णिग्गमणे तहासिया होदि कायव्वा।१३४। आदावणादिगहणे सण्णा उब्भामगादिगमणे वा। विणये णायरियादिसु आपुच्छा होदि कायव्वा।१३५। जं किंचि महाकज्जं करणीयं पुच्छिऊण गुरुआदि। पुणरवि पुच्छदि साधु तं जाणसु होदि पडिपुच्छा।१३६। गहिदुवकरणे विणए वंदणसुत्तत्थपुच्छणादीसु। गणधरवसभादीणं अणुवुत्तिं छंदणिच्छाए।१३७। गुरुसाहम्मियदव्वं पोत्थयमण्णं च गेण्हिदुं इच्छे। तेसिं विणयेण पुणो णिमंतणा होइ कायव्वा।१३८। =१. संयम के पीछी आदि उपकरणों में, ज्ञान के उपकरणों में अथवा अन्य भी तपादि के उपकरणों में तथा आतापनादि योगों में इच्छाकार अर्थात् मन को प्रवर्ताना।१३१। २. जो व्रतादि में मेरे अतिचार लगा हो वह मिथ्या होवे, ऐसे मिथ्या किये पापों को फिर करने को इच्छा न करे, और अन्तरंग भाव से प्रतिक्रमण करता है उसी के दुष्कृत में मिथ्याकार होता है।१३२। ३. जीवादिक के व्याख्यान का सुनना, सिद्धान्त श्रवण, परम्परा से चला आया उपदेश और सूत्रादि का अर्थ - इनमें जो अर्हन्त ने कहा वह सत्य है, ऐसा समझना तथाकार है।१३३। ४-५. कंदर, जल के मध्यप्रदेश रूप पुलिन, गुफा, इत्यादि निर्जन्तु स्थानों में प्रवेश करने के समय निषेधिका करे और निकलने के समय आसिका करे।१३४। ६. आतापनादि ग्रहण में, आहारादि की इच्छाएँ तथा अन्य ग्रामादि को जाने में नमस्कार पूर्वक पूछकर उनके अनुसार करना वह आपृच्छा है।१३५। ७. जो कुछ महान् कार्य करना हो वह गुरु प्रवर्तक स्थविरादिक से पूछकर करना चाहिए फिर अन्य साधर्मीसाधुओं से पूछना वह प्रतिपृच्छा है।१३६। ८. ग्रहण किये हुए पुस्तकादि उपकरणों में, विनय काल में, वन्दना-सूत्र के अर्थ को पूछना इत्यादिक में आचार्य आदि की इच्छा के अनुकूल वर्तना छन्दन है।१३७। ९.गुरु अथवा साधर्मी के पुस्तक व कमण्डलु आदि को लेना चाहे तो उनसे नम्रीभूत होकर याचना करे। उसे निमन्त्रणा कहते हैं।१३८। १०. उपसंयत का स्वरूप - देखें - अगला शीर्षक।
६. उपसंयत सामान्य व विशेष का स्वरूप
मू.आ./१४०-१४३ पाहुणविणउवचारो तेसिं चावासभूमि संपुच्छा। दाणाणुवत्तणादी विणये उवसंपया णेया।१४०। संजमतवगुणसीला जमणियमादी य जह्मि खेत्तह्मि। वड्ढंति तह्मि वासो खेत्ते उवसंपया णेया।१४१। पाहुणवत्थव्वाण अण्णोण्णागमणगमणसुहपुच्छा। उवसंपदा य मग्गे संजमतवणाणजोगजुत्ताणं।१४२। सुहदुक्खे उवयारो वसहीआहारभेसजादीहिं। तुह्मं अहंति वयणं सुहदुक्खुवसंपया णेया।१४३। =अन्य संघ से आये हुए मुनियों का अंग मर्दन प्रिय वचनरूप विनय करना, आसनादि पर बैठाना, इत्यादि उपचार करना, गुरु के विराजने का स्थान पूछना, आगमन का रास्ता पूछना, संस्तर, पुस्तकादि उपकरणों का देना, और उनके अनुकूल आचरणादिक करना वह विनयोपसंयत है।१४०। संयम तप व उपशमादि गुण व व्रत रक्षारूप शील तथा यम, नियम, इत्यादिक जिस स्थान में रहने से बढ़ें, उस क्षेत्र में रहना वह क्षेत्रोपसंयत है।१४१। अपने संघ से आये मुनि, तथा अपने स्थान में रहने वाले मुनियों से आपस में आने-जाने के विषय में कुशल का पूछना, वह संयम, तप, ज्ञान, योगगुणोंकर सहित मुनिराजों के मार्गोपसंयत है।१४२। सुख-दु:ख युक्त पुरुषों को वसतिका, आहार, औषध आदिकर उपकार करना, तथा मैं और मेरी वस्तुएँ आपकी हैं, ऐसा वचन कहना वह सुखदु:खोपसंयत है।१४३। (सूत्रोपसंयत के तीन भेद हैं - सूत्र, अर्थ, तदुभय। इन तीनों के लौकिक, वैदिक व सामाजिक ये तीन-तीन भेद हैं। - देखें - समाचार / २ )।