सिद्धांत
From जैनकोष
१. सिद्धान्त सामान्य निर्देश
देखें - प्रवचन / १ आगम, सिद्धान्त और प्रवचन एकार्थक हैं।
ध.१/१,१,१/७६/४ अपौरुषैयत्वतोऽनादि: सिद्धान्त:। = अपौरुषेय होने से सिद्धान्त अनादि है।
२. भेद व लक्षण
न्या.सू./मू.टी.१/१/२६-३१ तन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थिति: सिद्धान्त:।२६। सर्वतन्त्रप्रतितन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थित्यर्थान्तरभावात् ।२७। सर्वतन्त्राविरुद्धस्तन्त्रेऽधिकृतोऽर्थ: सर्वतन्त्रसिद्धान्त:।२८। यथा घ्राणादीनीन्द्रियाणि गन्धादय इन्द्रियार्था: पृथिव्यादीनि भूतानि प्रमाणैरर्थस्य ग्रहणमिति। -समानतन्त्रसिद्ध: परतन्त्रासिद्ध: प्रतितन्त्रसिद्धान्त:।२९। यत्सिद्धावन्यप्रकरणसिद्धि: सोऽधिकरणसिद्धान्त:।३०। यथा देहेन्द्रियव्यतिरिक्तो ज्ञाता।-अपरीक्षिताभ्युपगमात्तद्विशेषपरीक्षणमभ्युपगमसिद्धान्त:।३१। = शास्त्र के अर्थ की संस्थिति किये गये अर्थ को सिद्धान्त कहते हैं। उक्त सिद्धान्त चार प्रकार का है। सर्वतन्त्र सिद्धान्त, प्रतितन्त्र सिद्धान्त, अधिकरण सिद्धान्त, अभ्युपगम सिद्धान्त।२६-२७। १. उनमें से जो अर्थ सब शास्त्रों में अविरुद्धता से माना गया है उसे सर्वतन्त्र सिद्धान्त कहते हैं। अर्थात् जिस बात को सर्व शास्त्रकार मानते हैं जैसे घ्राण आदि पाँच इन्द्रिय, गन्ध आदि उनके विषय तथा, पृथ्वी आदि पाँच भूत और प्रमाण द्वारा पदार्थों का ग्रहण करना इत्यादि सब ही शास्त्रकार मानते हैं।२८। २. जो बात एक शास्त्र में सिद्ध हो, और दूसरे में असिद्ध हो उसे 'प्रतितन्त्रसिद्धान्त' कहते हैं।२९। ३. जिस अर्थ के सिद्ध होने से अन्य अर्थ भी नियम से सिद्ध हों उसे अधिकरण सिद्धान्त कहते हैं। जैसे-देह और इन्द्रियों से भिन्न कोई जानने वाला है जिसे आत्मा कहते हैं।३०। ४. बिना परीक्षा किये किसी पदार्थ को मानकर उस पदार्थ की विशेष परीक्षा करने को अभ्युपगम सिद्धान्त कहते हैं।३१।
* तर्क व सिद्धान्त रूप कथन पद्धति-देखें - पद्धति।