संघ
From जैनकोष
संघ का लक्षण
स.सि./६/१३/३३१/१२ रत्नत्रयोपेत: श्रमणगण: संघ:।
स.सि./९/२४/४४२/९ चातुर्वर्णश्रमणनिबह: संघ:। =रत्नत्रय से युक्त श्रमणों का समुदाय संघ कहलाता है। (रा.वा./६/१३/३/५२३) चार वर्णों के श्रमणों के समुदाय को संघ कहते हैं। (रा.वा./९/२४/४४२/९); (चा.सा./१५१/४); (प्र.सा./ता.वृ./२४९/३४३/१०)।
देखें - वैयावृत्य / २ आचार्य से लेकर गण पर्यन्त सर्व साधुओं की व्याधि दूर करना संघ वैयावृत्य कहलाता है।
भा.पा./टी./७८/२२५/१ ऋषिमुनियत्यनगारनिवह: संघ: अथवा ऋष्यार्यिकाश्रावकश्राविकानिवह: संघ:। =ऋषि, मुनि, यति और अनगार के समुदाय का नाम संघ है। अथवा ऋषि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका के समुदाय का नाम संघ है। (और भी देखें - अगला शीर्षक )
* संघ के भेद - देखें - इतिहास / ५ ।
१. एक मुनि को असंघपना हो जायेगा
रा.वा./६/१३/४/५२४/१ स्यादेतत् सङ्घो गणो वृन्दमित्यनर्थान्तरं तस्य कथमेकस्मिन् वृत्तिरिति। तन्न्; किं कारणम् । अनेकव्रतगुण संहननादेकस्यापि सङ्घत्वसिद्धे:। उक्तं च - संघो गुणसंघादो कम्माणविमोयदो हवदि संघो। दंसणणाणचरित्ते संघादितो हवदि संघो। = प्रश्न - संघ, गण और समुदाय ये एकार्थवाची हैं, तो इस कारण एक साधु को संघ कैसे कह सकते हैं। उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि एक व्यक्ति भी अनेक गुणव्रतादि का धारक होने से संघ कहा जाता है। कहा भी है - गुण संघात को संघ कहते हैं। कर्मों का नाश करने और दर्शन, ज्ञान और चारित्र का संघटन करने से एक साधु को भी संघ कहा जाता है।