संयत निर्देश संबंधी शंकाएँ
From जैनकोष
संयत निर्देश सम्बन्धी शंकाएँ
१. प्रमत्त होते हुए भी संयत कैसे
ध.१/१,१,१४/१७६/१ यदि प्रमत्ता: न संयता: स्वरूपासंवेदनात् । अथ संयता: न प्रमत्ता: संयमस्य प्रमादपरिहाररूपत्वादिति नैष दोष:, संयमो नाम हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरति: गुप्तिसमित्यनुरक्षित:, नासौ प्रमादेन विनाश्यते तत्र तस्मान्मलोत्पत्ते:। संयमस्य मलोत्पादक एवात्र प्रमादो विवक्षितो न तद्विनाशक इति। कुतोऽवसीयत इति चेत् संयमाविनाशान्यथानुपपत्ते:। न हि मन्दतम: प्रमाद: क्षणक्षयी संयमविनाशकोऽसति विबन्धर्यनुपलब्धे:। =प्रश्न - यदि छठे गुणस्थानवर्ती जीव प्रमत्त हैं तो संयत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, उनको अपने स्वरूप का संवेदन नहीं हो सकता है। यदि वे संयत हैं तो प्रमत्त नहीं हो सकते हैं, क्योंकि संयम भाव प्रमाद के अभावस्वरूप होता है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापों से विरतिभाव को संयम कहते हैं, जो कि तीन गुप्ति और पंच समितियों से अनुरक्षित हैं ( देखें - संयम / १ )। वह संयम वास्तव में प्रमाद से नष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि, संयम में प्रमाद से केवल मल की उत्पत्ति है। प्रश्न - ऐसा ही सूक्ष्म प्रमाद यहाँ विवक्षित है, यह कैसे जाना ? उत्तर - छठे गुणस्थान में संयम का विनाश न होना अन्यथा बन नहीं सकता। वहाँ होने वाला स्वल्पकालवर्ती मन्दतम प्रमाद संयम का नाश भी नहीं कर सकता है, क्योंकि, सकल संयम का उत्कटरूप से प्रतिबन्ध करने वाले प्रत्याख्यानावरण के अभाव में संयम का नाश नहीं पाया जाता।
गो.जी./जी.प्र./३३/६३/४ अत्र साकल्यं महत्त्वं च देशसंयतापेक्षया ज्ञातव्यं, तत: कारणादेव प्रमत्तसंयत: चित्रलाचरण इत्युक्तम् । =यहाँ सकलचारित्रपना या महाव्रतपना अपने से नीचे वाले देशसंयम की अपेक्षा जानना चाहिए अपने से ऊपर के गुणस्थानों की अपेक्षा नहीं। इसलिए ही प्रमत्तसंयत को चित्रलाचरण कहा गया है।
२. अप्रमत्त पृथक् अपूर्वकरणादि गुणस्थान क्या है
ध.१/१,१,१५/१७८/८ शेषाशेषसंयतानामत्रैवान्तर्भावाच्छेषसंयतगुणस्थानानामभाव: स्यादिति चेन्न, संयतानामुपरिष्टात्प्रतिपद्यमानविशेषणाविशिष्टानामस्तप्रमादानामिह ग्रहणात् । =प्रश्न - बाकी के सम्पूर्ण संयतों का इसी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए शेष गुणस्थानों का अभाव हो जायगा ? उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि, जो आगे चलकर प्राप्त होने वाले अपूर्वकरण आदि विशेषणों से अविशिष्ट हैं अर्थात् भेद को प्राप्त नहीं होते हैं और जिनका प्रमाद नष्ट हो गया है, ऐसे संयतों का ही यहाँ पर ग्रहण किया गया है, इसलिए आगे के समस्त गुणस्थानों का इसमें अन्तर्भाव नहीं होता है।
३. संयतों में क्षायोपशमिक भाव कैसे
ध.१/१,१,१४/१७६/७ पञ्चसु गुणेषु कं गुणमाश्रित्यायं प्रमत्तसंयतगुण उत्पन्नश्चेत्संयमापेक्षया क्षायोपशमिक:। कथम् । प्रत्याख्यानावरणसर्वघातिस्पर्धकोदयक्षयात्तेषामेव सतामुदयाभावलक्षणोपशमात् संज्वलनोदयाच्च प्रत्याख्यानसमुत्पत्ते:। =प्रश्न - पाँचों भावों में से किस भाव का आश्रय लेकर यह प्रमत्त संयत गुणस्थान उत्पन्न होता है ? उत्तर - संयम की अपेक्षा यह क्षायोपशमिक है। प्रश्न - क्षायोपशमिक किस प्रकार है ? उत्तर - १. क्योंकि वर्तमान में प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय क्षय होने से और आगामी काल में उदय में आने वाले सत्ता में स्थित उन्हीं के उदय में न आने रूप उपशम से तथा संज्वलन कषाय के उदय से प्रत्याख्यान अर्थात् संयम उत्पन्न होता है इसलिए क्षायोपशमिक है। [बिलकुल इसी प्रकार अप्रमत्त गुणस्थान भी क्षायोपशमिक है - (ध.१/१,१,१५/१७९/२)] (ध.५/१,७,७/२०३/१)।
ध.७/२,१,४९/९२/४ कधं खओवसमिया लद्धी। चदुसंज्वलण-णवणोकसायाणं देसघादिफद्दयाणमुदयेण संजमुत्पत्तीदो। कधमेदेसिं उदयस्स खओवसमववएसो। सव्वघादिफद्दयाणि ( देखें - क्षयोपशम / १ / १ )। ...एवं सामाइयच्छेदोवट्ठाणसुद्धिसंजदाणं पि वत्तव्वं। =प्रश्न - १. संयत के क्षायोपशमिक लब्धि कैसे होती है ? उत्तर - २. चारों संज्वलन कषायों और नौ नोकषायों के देशघाती स्पर्धकों के उदय से संयम की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार संयत के क्षायोपशमिक लब्धि पायी जाती है। प्रश्न - नोकषायों के देशघाती स्पर्धकों के उदय को क्षयोपशम नाम क्यों दिया गया ? उत्तर - [सर्वघाती स्पर्धकों की शक्ति का अनन्त गुणा होना ही क्षय है और देशघाती स्पर्धकों के रूप में उनका अवस्थान उपशम है। दोनों के योग से क्षयोपशम नाम सार्थक है ( देखें - क्षयोपशम / १ / १ )] इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापना शुद्धिसंयतों के विषय में भी कहना चाहिए।
ध.५/१,७,७/२०२/३ पच्चक्खाणावरण-चदुसंजलणणवणोकसायाणमुदयस्स सव्वप्पणा चारित्तविणासणसत्तीए अभावादो तस्स खयसण्णा। तेसिं चेव उप्पण्णचारित्तं सेडिंवावारंतस्स उवसमसण्णा। तेहि दोहिंतो उप्पण्णा एदे तिण्णि वि भावा खओवसमिया जादा। =३. प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन चतुष्क और नवनोकषायों के उदय के सर्वप्रकार से चारित्र विनाश करने को शक्ति का अभाव है, इसलिए उनके उदय की क्षय संज्ञा है, उन्हीं प्रकृतियों की उत्पन्न हुए चारित्र को अथवा श्रेणी को आवरण नहीं करने के कारण उपशम संज्ञा है। क्षय और उपशम इन दोनों के द्वारा उत्पन्न हुए ये उक्त तीनों भाव (संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत) भी क्षायोपशमिक हो जाते हैं।
४. संज्वलन के उदय के कारण औदयिक क्यों नहीं
ध.१/१,१,१४/१७७/१ संज्वलनोदयात्संयमो भवतीत्यौदयिकव्यपदेशोऽस्य किं न स्यादिति चेन्न, तत: संयमस्योत्पत्तेरभावात् । क तद् व्याप्रियत इति चेत्प्रत्याख्यानावरणसर्वघातिस्पर्धकोदयक्षयसमुत्पन्नसंयममलोत्पादने तस्य व्यापार:। =प्रश्न - संज्वलन कषाय के उदय से संयम होता है, इसलिए उसे औदयिक नाम से क्यों नहीं कहा जाता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, संज्वलन कषाय के उदय से संयम की उत्पत्ति नहीं होती। प्रश्न - तो संज्वलन का व्यापार कहाँ पर होता है ? उत्तर - प्रत्याख्यानावरण कषाय के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय से उत्पन्न हुए संयम में मल के उत्पन्न करने में संज्वलन का व्यापार होता है।
५. सम्यक्त्व की अपेक्षा तीनों भाव हैं
ध.१/१,१,१४/१७७/४ संयमनिबन्धनसम्यक्त्वापेक्षया क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकगुणनिबन्धन:। =संयम के कारणभूत सम्यग्दर्शन की अपेक्षा तो यह गुणस्थान क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावनिमित्तक है। (और भी देखें - भाव / २ / १० )।
६. फिर सम्यक्त्व की अपेक्षा इन्हें औपशमिकादि क्यों नहीं कहते
ध.५/१,७,७/२०३/१० दंसणमोहणीयकम्मस्स उवसमखय-खओवसमे अस्सिदूण संजदासंजदादीणमोवसमियादिभावा किण्ण परूविदा। ण, तदो संजमासंजमादिभावाणमुप्पत्तीए अभावादो। ण च एत्थ सम्मत्तविसया पुच्छा अत्थि, जेण दंसणमोहणिबंधणओवसमियादिभावेहि संजदासंजदादीणं ववएसो होज्ज। ण च एवं तधाणुवलंभा। =प्रश्न - दर्शनमोहनीयकर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम का आश्रय करके संयतासंयतादिकों के औपशमिकादि भाव क्यों नहीं बताये गये ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीयकर्म के उपशमादि से संयमासंयम आदि भावों की उत्पत्ति नहीं होती। दूसरे, यहाँ पर सम्यक्त्वविषयक पृच्छ (प्रश्न) भी नहीं है, जिससे कि दर्शनमोहनीय निमित्तक औपशमिकादि भावों की अपेक्षा संयतासंयतादिक के औपशमिकादि भावों का व्यपदेश हो सके। ऐसा है नहीं, क्योंकि उस प्रकार की व्याख्या नहीं पायी जाती है।
देखें - सान्निपातिक - [अथवा सान्निपातिक भावों की अपेक्षा करने पर यहाँ औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक व पारिणामिक इन चारों भावों के द्वि त्रि आदि संयोगी अनेक भंग बन जाते हैं]।
७. सामायिक व छेदोपस्थापना में तीनों भाव कैसे
ध.७/१,१,४९/९३/९ कधमेक्कस्स चरित्तस्स तिण्णि भावा। ण एक्कस्स वि चित्तपयंगस्स बहुवण्णदंसणादो। =[संयत सामान्य, सामायिक व छेदोपस्थापना संयम इनमें औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक तीनों भाव संभव हैं - देखें - भाव / २ / १० ]। प्रश्न - एक ही चारित्र में ओपशमिकादि तीनों भाव कैसे होते हैं ? उत्तर - जिस प्रकार एक ही बहुवर्ण पक्षी के बहुत से वर्ण देखे जाते हैं, उसी प्रकार एक ही चारित्र नाना भावों से युक्त हो सकता है।