संयोगवाद
From जैनकोष
गो.क./मू./८९२/१०७२ संजोगमेवेति वदंति तण्णा णेवेक्कचक्केण रहो पयादि। अंधो य पंगू य वणं पविट्ठा ते संपजुत्ता णयइं पविट्ठा।८९२। =यथार्थज्ञानी संयोग ही को सार्थक मानते हैं। उनका कहना है कि जैसे एक पहिये से रथ नहीं चलता और वन में प्रविष्ट अन्धा और पांगला एक दूसरे के संप्रयोग से दावाग्नि से अपनी रक्षा करके नगर में प्रवेश कर जाते हैं, उसी प्रकार वस्तुओं के संयोग से ही सर्वार्थसिद्धि होती है।८९२।
नोट - [उपरोक्त बात मिथ्या एकान्तरूप संयोगवाद के सम्बन्ध में कही गयी है, पर बिलकुल यही बात इसी उदाहरण सहित सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र की मैत्री दर्शाने के लिए आगम में कही गयी- देखें - मोक्षमार्ग / १ / २ /रा.वा.]।