स्याद्वाद
From जैनकोष
आ. शुभचन्द्र (ई.१५१६-१५५६) द्वारा रचित एक न्याय विषयक ग्रन्थ।
अनेकान्तमयी वस्तु (देखें - अनेकान्त ) का कथन करने की पद्धति स्याद्वाद है। किसी भी शब्द या वाक्य के द्वारा सारी की सारी वस्तु का युगपत् कथन करना अशक्य होने से प्रयोजनवश कभी एक धर्म को मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरे को। मुख्य धर्म को सुनते हुए श्रोता को अन्य धर्म भी गौण रूप से स्वीकार होते रहें उनका निषेध न होने पावे इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता है।
- स्याद्वाद निर्देश
- स्याद्वाद का लक्षण।
- विवक्षा का ठीक-ठीक स्वीकार ही स्याद्वाद की सत्यता है।
- स्याद्वाद के प्रामाण्य में हेतु।
- स्यात् पद का अर्थ।-देखें - स्यात् ।
- अपेक्षा निर्देश
- सापेक्ष व निरपेक्ष का अर्थ।
- विवक्षा एक ही अंश पर लागू होती है अनेक पर नहीं।
- विवक्षा की प्रयोग विधि।
- विवक्षा की प्रयोग विधि प्रदर्शक सारणी।
- वस्तु में अनेकों विरोधी धर्म व उनमें कथंचित् अविरोध- देखें - अनेकान्त / ४ / ५ ।
- अनेकों अपेक्षा से वस्तु में भेदाभेद- देखें - सप्तभंगी / ५ ।
- भेद व अभेद का समन्वय।- देखें - द्रव्य / ४ ।
- नित्यानित्यत्व का समन्वय।- देखें - उत्पाद / २ ।
- मुख्य गौण व्यवस्था
- स्यात् व कथंचित् शब्द प्रयोग विधि
- स्यात्कार का सम्यक् प्रयोग ही कार्यकारी है।
- व्यवहार के साथ ही स्यात्कार आवश्यक है निश्चय के साथ नहीं।
- स्यात्कार का सच्चा प्रयोग प्रमाण ज्ञान के पश्चात् ही सम्यक् होता है।- देखें - नय / II / १० ।
- स्यात् शब्द की प्रयोग विधि- देखें - सप्तभंगी / २ / ३ ;५।
- स्यात्कार का कारण व प्रयोजन
- स्यात् शब्द से ही नय सम्यक् होती हैं।
- स्याद्वाद का प्रयोजन हेयोपादेय बुद्धि।- देखें - अनेकान्त / ३ / २ ।