स्वर्ग देव
From जैनकोष
वैमानिक देवों के भेद व लक्षण
१. वैमानिक का लक्षण
स.सि./४/१६/२४८/४ विमानेषु भवा वैमानिका:। =जो विमानों में होते हैं वे वैमानिक हैं। (रा.वा./४/१६/१/२२२/२९)।
२. कल्प का लक्षण
स.सि./४/३/२३८/६ इन्द्रादय: प्रकारा दश एतेषु कल्पयन्त इति कल्पा:। भवनवासिषु तत्कल्पनासंभवेऽपि रूढिवशाद्वैमानिकेष्वेव वर्तते कल्पशब्द:। =जिनमें इन्द्र आदि दस प्रकार कल्पें जाते हैं वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इन्द्रादि की कल्पना ही कल्प संज्ञा का कारण है। यद्यपि इन्द्रादि की कल्पना भवनवासियों में भी सम्भव है, फिर भी रूढ़ि से कल्प शब्द का व्यवहार वैमानिकों में ही किया जाता है। (रा.वा./४/३/३२१२/८)।
३. कल्प व कल्पातीत रूप भेद व लक्षण
त.सू./४/१७ कल्पोपपन्ना: कल्पातीताश्च।१७। =वे दो प्रकार के हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत। (विशेष देखें - स्वर्ग / ५ )।
स.सि./४/१७/२४८/९ कल्पुषूपपन्ना: कल्पोपपन्ना: कल्पानतीता: कल्पातीताश्च। =जो कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं और जो कल्पों के परे हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं। (रा.वा./४/१७/२२३/२)।
४. कल्पातीत देव सभी अहमिन्द्र हैं
रा.वा./४/१७/१/२२३/४ स्यान्मतम् नवग्रैवेयका नवानुदिशा: पञ्चानुत्तरा: इति च कल्पनासंभवात् तेषामपि च कल्पत्वप्रसङ्ग इति; तन्न; किं कारणम् । उक्तत्वात् । उक्तमेतत्-इन्द्रादिदशतयकल्पनासद्भावात् कल्पा इति। नवग्रैवेयकादिषु इन्द्रादिकल्पना नास्ति तेषामहमिन्द्रत्वात् ।=प्रश्न-नवग्रैवेयक, नव अनुदिश और पंच अनुत्तर इस प्रकार संख्याकृत कल्पना होने से उनमें कल्पत्व का प्रसंग आता है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, पहिले ही कहा जा चुका है कि इन्द्रादि दश प्रकार की कल्पना के सद्भाव से ही कल्प कहलाते हैं। नव ग्रैवेयकादिक में इन्द्रादि की कल्पना नहीं है, क्योंकि, वे अहमिन्द्र हैं।
वैमानिक देव सामान्य निर्देश
१. वैमानिक देवों में मोक्ष की योग्यता सम्बन्धी नियम
त.सू./४/२६ विजयादिषु द्विचरमा:।२६। =विजयादिक में अर्थात् विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के अनुत्तर विमानवासी देव द्विचरम देही होते हैं। [अर्थात् एक मनुष्य व एक देव ऐसे दो भव बीच में लेकर तीसरे भव मोक्ष जायेंगे (देखें - चरम )]।
स.सि./४/२६/२५७/१ सर्वार्थसिद्धिप्रसंग इति चेत् । न; तेषां परमोत्कृष्टत्वात्, अन्वर्थसंज्ञात एकचमरमत्वसिद्धे:। =प्रश्न-इस (उपरोक्त सूत्र से) सर्वार्थसिद्धि का भी ग्रहण प्राप्त होता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, वे परम उत्कृष्ट हैं; उनका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है, इसलिए वे एक भवावतारी होते हैं। अर्थात् अगले भव से मोक्ष जायेंगे। (रा.वा./४/२६/१/२४४/१८)।
देखें - लौकान्तिक -[सब लौकान्तिक देव एक भवावतारी हैं।]
ति.प./८/६७५-६७६ कप्पादीदा दुचरमदेहा हवंति केई सुरा। सक्को सहग्गमहिसी सलोयवालो य दक्खिणा इंदा।६७५। सव्वट्ठसिद्धिवासी लोयंतियणामधेयसव्वसुरा। णियमा दुचरिमदेहा सेसेसु णत्थि णियमो य।६७६। =कल्पवासी और कल्पातीतों में से कोई देव द्विचरमशरीरी अर्थात् आगामी भव में मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। अग्रमहिषी और लोकपालों से सहित सौधर्म इन्द्र, सभी दक्षिणेन्द्र, सर्वार्थसिद्धिवासी तथा लौकान्तिक नामक सब देव नियम से द्विचरम शरीरी हैं। शेष देवों में नियम नहीं है।६७५-६७६।
वैमानिक इन्द्रों का निर्देश
१. वैमानिक इन्द्रों के नाम व संख्या आदि का निर्देश
स.सि./४/१९/२५०/३ प्रथमौ सौधर्मैशानकल्पौ, तयोरुपरि सनत्कुमारमाहेन्द्रौ, तयोरुपरि ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरौ, तयोरुपरि लान्तवकापिष्ठौ, तयोरुपरि शुक्रमहाशुक्रौ, तयोरुपरि शतारसहस्रारौ, तयोरुपरि आनतप्राणतौ, तयोरुपरि आरणाच्युतौ। अध उपरि च प्रत्येकमिन्द्रसंबनधो वेदितव्य:। मध्ये तु प्रतिद्वयम् । सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्राणां चतुर्णां चत्वार इन्द्रा:। ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोरेको ब्रह्मा नाम। लान्तवकापिष्ठयोरेको लान्तवाख्य:। शुक्रमहाशुक्रयोरेक: शुक्रसञ्ज्ञ:। शतारसहस्रारयोरेको शतारनामा। आनतप्राणतारणाच्युतानां चतुर्ण्णां चत्वार:। एवं कल्पवासिनां द्वादश इन्द्रा भवन्ति। =सर्वप्रथम सौधर्म और ऐशान कल्प युगल है। इनके ऊपर क्रम से-सनत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, और आरण-अच्युत; ऐसे १६ स्वर्गों के कुल आठ युगल हैं। नीचे और ऊपर के चार-चार कल्पों में प्रत्येक में एक-एक इन्द्र, मध्य के चार युगलों में दो-दो कल्पों के अर्थात् एक-एक युगल के एक-एक इन्द्र हैं। तात्पर्य यह है, कि सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र इन चार कल्पों के चार इन्द्र हैं। ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तर इन दो कल्पों का एक ब्रह्म नामक इन्द्र है। लान्तव और कापिष्ठ इन दो कल्पों में एक लान्तव नामक इन्द्र है। शुक्र और महाशुक्र में एक शुक्र नामक इन्द्र है। शतार और सहस्रार इन दो कल्पों में एक शतार नामक इन्द्र है। तथा आनत, प्राणत, आरण, अच्युत इन चार कल्पों के चार इन्द्र हैं। इस प्रकार कल्पवासियों के १२ इन्द्र होते हैं। (रा.वा./४/१९/६-७/२२५/४); (त्रि.सा./४५२-४५४); (और भी देखें - स्वर्ग / ५ / २ )
ति.प./८/४५० इदाणं चिण्हाणिं पत्तेकं ताव जा सहस्सारं। आणदआरणजुगले चोद्दसठाणेसु वोच्छामि।४५०। =सौधर्म से लेकर सहस्रार पर्यन्त के १२ कल्पों में प्रत्येक का एक-एक इन्द्र है। तथा आनत, प्राणत और आरण-अच्युत इन दो युगलों के एक-एक इन्द्र हैं। इस प्रकार चौदह स्थानों में अर्थात् चौदह इन्द्रों के चिह्नों को कहते हैं।
रा.वा./४/१९/२३३/२१–त एते लोकानुयोगोपदेशेन चतुर्दशेन्द्रा उक्ता:। इह द्वादशेष्यन्ते पूर्वोक्तेन क्रमेण ब्रह्मोत्तरकापिष्ठमहाशुक्रसहस्रारेन्द्राणां दक्षिणेन्द्रानुवृत्तित्वात् आनतप्राणतकल्पयोश्च एकैकेन्द्रत्वात् । =ये सब १४ इन्द्र ( देखें - स्वर्ग / ५ / ९ में रा.वा.) लोकानुयोग के उपदेश से कहे गये हैं। परन्तु यहाँ (तत्त्वार्थ सूत्र में) १२ इन्द्र अपेक्षित हैं। क्योंकि १४ इन्द्रों में जिनका पृथक् ग्रहण किया गया है ऐसे ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और सहस्रार ये चार इन्द्र अपने-अपने दक्षिणेन्द्रों के अर्थात् ब्रह्म, लान्तव, महाशुक्र और शतार के अनुवर्ती हैं। तथा १४ इन्द्रों में युगलरूप ग्रहण करके जिनके केवल दो इन्द्र माने गये हैं ऐसे आनतादि चार कल्पों के पृथक्-पृथक् चार इन्द्र हैं। [इस प्रकार १४ इन्द्र व १२ इन्द्र इन दोनों मान्यताओं का समन्वय हो जाता है।]
२. वैमानिक इन्द्रों में दक्षिण व उत्तर इन्द्रों का विभाग
देखें - स्वर्ग / ५ / ९ में–(ति.प./८/३३९-३५१), (रा.वा./४/१९/८/पृष्ठ/पंक्ति), (ह.पु./६/१०१-१०२), (ति.सा./४८३)
१२ इन्द्रों की अपेक्षा |
१२ इन्द्रों की अपेक्षा |
१४ इन्द्रों की अपेक्षा |
||||
क्र. |
ति.प. व त्रि.सा. |
ह.पु. |
रा.वा. |
|||
दक्षिण |
उत्तर |
दक्षिण |
उत्तर |
दक्षिण |
उत्तर |
|
१ |
सौधर्म |
ईशान |
सौधर्म |
ईशान |
सौधर्म |
ईशान |
२ |
सनत्कुमार |
माहेन्द्र |
सनत्कुमार |
माहेन्द्र |
सनत्कुमार |
माहेन्द्र |
३ |
ब्रह्म |
× |
ब्रह्म |
× |
ब्रह्म |
ब्रह्मोत्तर |
४ |
लान्तव |
× |
× |
लान्तव |
लान्तव |
कापिष्ठ |
५ |
× |
महाशुक्र |
महाशुक्र |
× |
शुक्र |
महाशुक्र |
६ |
× |
सहस्रार |
× |
शतार |
शतार |
सहस्रार |
७ |
आनत |
प्राणत |
आनत |
प्राणत |
× |
× |
८ |
आरण |
अच्युत |
आरण |
अच्युत |
आरण |
अच्युत |
३. वैमानिक इन्द्रों व देवों के आहार व श्वास का अन्तराल
मू.आ./११४५ जदि सागरोपमाऊ तदि वाससहस्सियादु आहारो। पक्खेहिं दु उस्सासो सागरसमयेहिं चेव भवे।११४५। =जितने सागर की आयु है उतने ही हजार वर्ष के बाद देवों के आहार है और उतने ही पक्ष बीतने पर श्वासोच्छ्वास है। ये सब सागर के समयों कर होता है। (त्रि.सा./५४४); (जं.प./११/३५०)
ति.प./८/५५२-५५५–जेत्तियजलणिहि उवमा जो जीवदि तस्स तेत्तिएहिं च। वरिससहस्सेहि हवे आहारो पणुदिणाणि पल्लमिदे।५५२। पडिइंदाणं सामाणियाण तेत्तीससुरवरणं। भोयणकालपमाणं णिय-णिय-इंदाण सारिच्छं।५५३। इंदप्पहुदिचउक्के देवीणं भोयणम्मि जो समओ। तस्स पमाणरूवणउवएसो संपहि पणट्ठो।५५४। सोहममिंददिगिंदे सोमम्मि जयम्मि भोयणावसरो। सामाणियाण ताणं पत्तेक्कं पंचवीसदलदिवसा।५५५। =जो देव जितने सागरोपम काल तक जीवित रहता है उसके उतने ही हजार वर्षों में आहार होता है। पल्य प्रमाण काल तक जीवित रहने वाले देव के पाँच दिन में आहार होता है।५५२। प्रतीन्द्र, सामानिक और त्रयस्त्रिंश देवों के आहार काल का प्रमाण अपने-अपने इन्द्रों के सदृश है।५५३। इन्द्र आदि चार की देवियों के भोजन का जो समय है उसके प्रमाण के निरूपण का उपदेश नष्ट हो गया है।५५४। सौधर्म इन्द्र के दिक्पालों में से सोम व यम के तथा उनके सामानिकों में से प्रत्येक के भोजन का अवसर १२File:Image/511-520/clip image002.gif दिन है।५५५।
देखें - देव / II / २ –(सभी देवों को अमृतमयी दिव्य आहार होता है।)
४. इन्द्रों के चिह्न व यान विमान
ति.प./५/८४-९७ का भावार्थ–(नन्दीश्वरद्वीप की वन्दनार्थ सौधर्मादिक इन्द्र निम्न प्रकार के यानों पर आरूढ़ होकर आते हैं। सौधर्मेन्द्र=हाथी; ईशानेन्द्र=वृषभ; सनत्कुमार=सिंह; माहेन्द्र=अश्व; ब्रह्मेन्द्र=हंस; ब्रह्मोत्तर=क्रौंच; शुकेन्द्र=चक्रवाक; महाशुक्रेन्द्र=तोता; शतारेन्द्र=कोयल; सहस्रारेन्द्र=गरुड़; आनतेन्द्र=गरुड़; प्राणतेन्द्र=पद्म विमान; आरणेन्द्र=कुमुद विमान; अच्युतेन्द्र=मयूर।)
ति.प./८/४३८-४४० का भावार्थ–[इन्द्रों के यान विमान निम्न प्रकार हैं–सौधर्म=बालुक; ईशान=पुष्पक; सनत्कुमार=सौमनस; माहेन्द्र=श्रीवृक्ष; ब्रह्म=सर्वतोभद्र; लान्तव=प्रीतिंकर; शुक्र=रम्यक; शतार=मनोहर; आनत=लक्ष्मी; प्राणत=मादिन्ति (?); आरण=विमल; अच्युत=विमल]
ति.प./८/४४८-४५० का भावार्थ–[१४ इन्द्रवाली मान्यता की अपेक्षा प्रत्येक इन्द्र के क्रम से निम्न प्रकार मुकुटों में नौ चिह्न हैं जिनसे कि वे पहिचाने जाते हैं–शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, भेक(मेंढक) ; सर्प, छागल, वृषभ व कल्पतरु।]
ति.प./८/४५१ का भावार्थ–[दूसरी दृष्टि से उन्हीं १४ इन्द्रों में क्रम से–शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, कूर्म, भेक(मेंढक), हय, हाथी, चन्द्र, सर्प, गवय, छगल, वृषभ और कल्पतरु ये १४ चिह्न मुकुटों में होते हैं।] (त्रि.सा./४८६-४८७)
५. इन्द्रों व देवों की शक्ति व विक्रिया
ति.प./८/६९७-६९९ एक्कपलिदोवमाऊ उप्पाडेदुं धराए छक्खंडे। तग्गदणरतिरियजणे मारेदुं पोसेदुं सक्को।६९७। उवहिउवमाणजीवी पल्लट्टेदुं च जंबुदीवं हि। तग्गदणरतिरियाणं मारेदुं पोसिदुं सक्को।६९८। सोहम्मिंदो णियमा जंबूदीवं समुक्खिवदि एवं। केई आइरिया इय सत्तिसहावं परूवंति।६९९। =एक पल्योपम प्रमाण आयुवाला देव पृथिवी के छह खण्डों को उखाड़ने के लिए और उनमें स्थित मनुष्यों व तिर्यंचों को मारने अथवा पोषने के लिए समर्थ हैं।६९७। सागरोपम प्रमाण काल तक जीवित रहने वाला देव जम्बूद्वीप को भी पलटने के लिए और उसमें स्थित तिर्यंचों व मनुष्यों को मारने अथवा पोषने के लिए समर्थ है।६९८। सौधर्म इन्द्र नियम से जम्बूद्वीप को फेंक सकता है, इस प्रकार कोई आचार्य शक्ति स्वभाव का निरूपण करते हैं।६९९।
त्रि.सा./५२७ दुसु-दुसु तिचक्केसु य णवचोद्दसगे विगुव्वणा सत्ती। पढमखिदीदो सत्तमखिदिपेरंतो त्ति अवही य।५२७। =दो स्वर्गों में दूसरी नरक पृथिवी पर्यन्त चार स्वर्गों में तीसरी पर्यन्त, चार स्वर्गों में, चौथी पर्यन्त, चार स्वर्गों में पाँचवीं पर्यन्त, नवग्रैवेयकों में छठीं पर्यन्त और अनुदिश अनुत्तर विमानों में सातवीं पर्यन्त, इस प्रकार देवों में क्रम से विक्रिया शक्ति व अवधि ज्ञान से जानने की शक्ति है (विशेष– देखें - अवधिज्ञान / ९ )।
६. वैमानिक इन्द्रों का परिवार
१. सामानिक आदि देवों की अपेक्षा (ति.प./८/२१८-२४६), (रा.वा.४/१९/८/२२५-२३५), (त्रि.सा./४९४,४९५,४९८), (ज.पं./१६/२३९-२४२,२७०-२७८)।
पारिषद् |
सप्त अनीक* |
|||||||||
इन्द्रों के नाम |
प्रतीन्द्र |
सामानिक |
त्रायस्त्रिंश |
अभ्यन्तर समिति |
मध्य समिति |
बाह्य समिति |
आत्मरक्ष |
लोकपाल |
प्रत्येक अनीक |
कुल अनीक |
सहस्र |
सहस्र |
|||||||||
सौधर्म |
१ |
८४००० |
३३ |
१२००० |
१४००० |
१६००० |
३३६००० |
४ |
१०६६८ |
७४६७६ |
ईशान |
१ |
८०००० |
३३ |
१०००० |
१२००० |
१४००० |
३२००० |
४ |
१०१६० |
७११२० |
सनत्कु. |
१ |
७२००० |
३३ |
८००० |
१०००० |
१२००० |
२८८००० |
४ |
९१४४ |
६४००८ |
माहेन्द्र |
१ |
७०००० |
३३ |
६००० |
८००० |
१०००० |
२८०००० |
४ |
८८९० |
६२२३० |
ब्रह्म |
१ |
६०००० |
३३ |
४००० |
६००० |
८००० |
२४०००० |
४ |
७६२० |
५३३४० |
लान्तव |
१ |
५०००० |
३३ |
२००० |
४००० |
६००० |
२००००० |
४ |
६३५० |
४४४५० |
महाशुक्र |
१ |
४०००० |
३३ |
१००० |
२००० |
४००० |
१६०००० |
४ |
५०८० |
३५५६० |
सहस्रार |
१ |
३०००० |
३३ |
५०० |
१००० |
२००० |
१२०००० |
४ |
३८१० |
२६६७० |
आनत |
१ |
२०००० |
३३ |
२५० |
५०० |
१००० |
८०००० |
४ |
२५४० |
१७७८० |
प्राणत |
१ |
२०००० |
३३ |
२५० |
५०० |
१००० |
८०००० |
४ |
२५४० |
१७७८० |
आरण |
१ |
२०००० |
३३ |
१२५ |
५०० |
१००० |
८०००० |
४ |
२५४० |
१७७८० |
अच्युत |
१ |
२०००० |
३३ |
१२५ |
५०० |
१००० |
८०००० |
४ |
२५४० |
१७७८० |
*नोट—[वृषभ तुरंग आदि सात अनीक सेना है। प्रत्येक सेना में सात-सात कक्षा हैं। प्रथम कक्षा अपने सामानिक प्रमाण है। द्वितीयादि कक्षाएँ उत्तरोत्तर दूनी-दूनी हैं। अत: एक अनीक का प्रमाण=सामानिक का प्रमाण×१२७। कुल सातों अनीकों का प्रमाण=एक अनीक×७–(देखें - अनीक ); (ति.प./८/२३५-२३७)] |
२. देवियों की अपेक्षा
(ति.प./८/३०६-३१५+३७९–३८५); (रा.वा./४/१९/८/२२५-२३५); (त्रि.सा./५०९-५१३)।
क्र. |
इन्द्र का नाम |
ज्येष्ठ देवियाँ |
प्रत्येक ज्येष्ठ देवी की परिवार देवियाँ |
वल्लभिका |
अग्र देवियाँ |
प्रत्येक देवी के वैक्रियक रूप |
१ |
सौधर्म |
८ |
१६००० |
३२००० |
१६०,००० |
१६००० |
२ |
ईशान |
८ |
१६००० |
३२००० |
१६०,००० |
१६००० |
३ |
सनत्कुमार |
८ |
८००० |
८००० |
७२,००० |
३२००० |
४ |
माहेन्द्र |
८ |
८००० |
८००० |
७२,००० |
३२००० |
५ |
ब्रह्म |
८ |
४००० |
२००० |
३४,००० |
६४००० |
६ |
लान्तव |
८ |
२००० |
५०० |
१६५०० |
१२८००० |
७ |
महाशुक्र |
८ |
१००० |
२५० |
८२५० |
२५६००० |
८ |
सहस्रार |
८ |
५०० |
१२५ |
४१२५ |
५१२००० |
९ |
आनत |
८ |
२५० |
६३ |
२०६३ |
१०२४००० |
१० |
प्राणत |
८ |
२५० |
६३ |
२०६३ |
१०२४००० |
११ |
आरण |
८ |
२५० |
६३ |
२०६३ |
१०२४००० |
१२ |
अच्युत |
२५० |
६३ |
२०६३ |
१०२४००० |
७. वैमानिक इन्द्रों के परिवार देवों की देवियाँ
(ति.प./८/३१९-३३०); (रा.वा./४/१९/८/२२५-२३५)।
परिवार देव |
देवी का पद |
सौधर्म ईशान |
सनत्कुमार माहेन्द्र |
ब्रह्म ब्रह्मोत्तर |
लान्तव कापिष्ठ |
शुक्र महाशुक्र |
शतार सहस्रार |
आनत-प्राणत आरण-अच्युत |
प्रतीन्द्र सामानिक त्रायस्त्रिंश |
अग्र देवी |
— |
अपने इन्द्रों के समान |
— |
||||
परिवार देवी |
४००० |
२००० |
१००० |
५०० |
२५० |
१२५ |
६३,६२ |
|
प्रत्येक लोकपाल |
अग्र देवी |
— |
File:Image/511-520/clip image004.gif ३५०,००,००० |
— |
— |
— |
||
अभ्यन्तर पारिषद् |
अग्र देवी |
५०० |
४०० |
३०० |
२०० |
१०० |
५० |
२५ |
मध्य पारिषद् |
अग्र देवी |
६०० |
५०० |
४०० |
३०० |
२०० |
१०० |
५० |
बाह्य पारिषद् |
अग्र देवी |
७०० |
६०० |
५०० |
४०० |
३०० |
२०० |
१०० |
अनीक मह |
अग्र देवी |
६०० |
६०० |
६०० |
६०० |
६०० |
६०० |
६०० |
अनीक- |
अग्र देवी |
२०० |
२०० |
२०० |
२०० |
२०० |
२०० |
|२०० |
आत्मरक्ष |
ज्येष्ठ देवी |
१ |
१ |
१ |
१ |
१ |
१ |
१ |
आत्मरक्ष |
वल्लभा देवी |
१ |
१ |
१ |
१ |
१ |
१ |
१ |
प्रकीर्णक आदि |
— |
उपदेशनष्ट |
— |
— |
८. वैमानिक इन्द्रों के परिवार, देवों का परिवार व विमान आदि
ति.प./८/२८६-३०४ का भावार्थ–प्रतीन्द्र, सामानिक व त्रायस्त्रिंश में प्रत्येक के १० प्रकार के परिवार अपने-अपने इन्द्रों के समान हैं।२८६। सौधर्मादि १२ इन्द्रों के लोकपालों में प्रत्येक सामन्त क्रम से ४०००, ४०००, १०००, १०००, ५००, ४००, ३००, २००, १००, १००, १००, १०० है।२८७-२८८। समस्त दक्षिणेन्द्रों में प्रत्येक के सोम व यम लोकपाल के अभ्यन्तर आदि तीनों पारिषद के देव क्रम से ५०,४०० व ५०० हैं।२८९। वरुण के ६०,५००,६०० हैं तथा कुबेर के ७०,६००,७०० हैं।२९०। उत्तरेन्द्रों में इससे विपरीत क्रम करना चाहिए।२९०। सोम आदि लोकपालों की सात सेनाओं में प्रत्येक की प्रथम कक्षा २८००० और द्वितीय आदि ६ कक्षाओं में उत्तरोत्तर दुगुनी है। इस प्रकार वृषभादि सेनाओं में से प्रत्येक सेना का कुल प्रमाण २८०००×१२७=३५५६००० है।२९४। और सातों सेनाओं का कुल प्रमाण ३५५६०००×७=२४८९२००० है।२९५। सौधर्म सनत्कुमार व ब्रह्म इन्द्रों के चार-चार लोकपालों में से प्रत्येक के विमानों की संख्या ६६६६६६ है। शेष की संख्या उपलब्ध नहीं है। २९७,२९९,३०२। सौधर्म के सोमादि चारों लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से स्वयंप्रभ, अरिष्ट, चलप्रभ और वल्गुप्रभ हैं।२९८। शेष दक्षिणेन्द्रों में सोमादि उन लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से स्वयंप्रभ, वरज्येष्ठ, अंजन और वल्गु है।३००। उत्तरेन्द्रों के लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से सोक (सम), सर्वतोभद्र, सुभद्र और अमित हैं।३०१। दक्षिणेन्द्रों के सोम और यम समान ऋद्धिवाले हैं; उनसे अधिक वरुण और उससे भी अधिक कुबेर है।३०३। उत्तरेन्द्रों के सोम और यम समान ऋद्धिवाले हैं। उनसे अधिक कुबेर और उससे अधिक वरुण होता है।३०४।
वैमानिक देवियों का निर्देश
१. वैमानिक इन्द्रों की प्रधान देवियों के नाम
ति.प./८/३०६-३०७,३१६-३१८ बलमाणा अच्चिणिया ताओ सव्विंदसरिसणामाओ। एक्केक्कउत्तरिंदे तम्मेत्ता जेट्ठदेवीओ।३०६। किण्हा या ये पुराइं रामावइरामरक्खिदा वसुका। वसुमित्ता वसुधम्मा वसंधरा सव्वइंद समणामा।३०७। विणयसिरिकणयमालापउमाणंदासुसीमजिणदत्ता। एक्केक्कदक्खिंणिदे एक्केक्का पाणवल्लहिया।३१६। एक्केक्कउत्तरिंदे एक्केक्का होदि हेममाला य। णिलुप्पलविस्सुदया णंदावइलक्खणादो जिणदासी।३१७। सयलिंदवल्लभाणं चत्तारि महत्तरीओ पत्तेवकं कामा कामिणिआओ पंकयगंधा यलंबुणामा य।३१८।=सभी दक्षिणेन्द्रों की ८ ज्येष्ठ देवियों के नाम समान होते हुए क्रम से पद्मा, शिवा, शची, अंजुका, रोहिणी, नवमी, बला और अर्चिनिका ये हैं और सभी उत्तरेन्द्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम, मेघराजी, रामापति, रामरक्षिता, वसुका, वसुमित्रा, वसुधर्मा और वसुन्धरा ये हैं।३०६-३०७। छह दक्षिणेन्द्रों की प्रधान वल्लभाओं के नाम क्रम से विनयश्री, कनकमाला, पद्मा, नन्दा, सुसीमा, और जिनदत्ता ये हैं।३१६। छह उत्तरेन्द्रों की प्रधान वल्लभाओं के नाम हेममाला, नीलोत्पला, विश्रुता, नन्दा, वैलक्षणा और जिनदासी ये हैं।३१७। इन वल्लभाओं में से प्रत्येक के कामा, कामिनिका, पंकजगन्धा और अलम्बु नाम की चार महत्तरिका होती हैं।३१८।
त्रि.सा./५०६,५१०-५११ ताओ चउरो सग्गे कामा कामिणि य पउमगंधा य। तो होदि अलंबूसा सव्विंदपुराणमेस कमो।५०६। सचि पउम सिव सियामा कालिंदीसुलसअज्जुकाणामा भाणुत्ति जेट्ठदेवी सव्वेसिं दक्खिणिंदाणं।५१०। सिरिमति रामा सुसीमापभावदि जयसेण णाम य सुसेणा। वसुमित्त वसुंधर वरदेवीओ उत्तरिंदाणं।५११। =सौधर्मादि स्वर्ग में कामा, कामिनी, पद्मगन्धा, अलंबुसा ऐसी नाम वाली चार प्रधान गणिका हैं।५०६। छह दक्षिणेन्द्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रम से शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिन्दी, सुलसा, अज्जुका और भानु ये हैं।५१०। छहों उत्तरेन्द्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रम से श्रीमती, रामा, सुसीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, वसुमित्रा और वसुन्धरा ये हैं।५११।
२. देवियों की उत्पत्ति व गमनागमन सम्बन्धी नियम
मू.आ./११३१-११३२ आईसाणा कप्पा उववादो होइ देवदेवीणं। तत्तो परंतु णियमा उववादो होइ देवाणं।११३१। जावदु आरण-अच्युद गमणागमणं च होइ देवीणं। तत्तो परं तु णियमा देवीणं णत्थिसे गमणं।११३२। =[भवनवासी से लेकर] ईशान स्वर्ग पर्यन्त देव व देवी दोनों की उत्पत्ति होती है। इससे आगे नियम से देव ही उत्पन्न होते हैं, देवियाँ नहीं।११३१। आरण अच्युत स्वर्ग तक देवियों का गमनागमन है, इससे आगे नियम से उनका गमनागमन नहीं है।११३२। (ति.प./८/५६५)।
ति.प./८/गा. सोहम्मीसाणेसुं उप्पज्जंते हु सव्वदेवीओ। उवरिमकप्पे ताणं उप्पत्ती णत्थि कइया वि।३३१। तेसुं उप्पणाओ देवीओ भिण्णओहिणाणेहिं। णादूणं णियकप्पे णेंति हु देवा सरागमणा।३३३। णवरि विसेसो एसो सोहम्मीसाणजाददेवीणं। वच्चंति मूलदेहा णियणियकप्पामराण पासम्मि।५९६। =सब (कल्पवासिनी) देवियाँ सौधर्म और ईशान कल्पों में ही उत्पन्न होती हैं, इससे उपरिम कल्पों में उनकी उत्पत्ति नहीं होती।३३१। उन कल्पों में उत्पन्न हुई देवियों को भिन्न अवधिज्ञान से जानकर सराग मनवाले देव अपने कल्पों में ले जाते हैं।३३४। विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्प में उत्पन्न हुई देवियों के मूल शरीर अपने-अपने कल्पों के देवों के पास जाते हैं।५९६।
ह.पु./६/११९-१२१ दक्षिणाशारणान्तानां देव्य: सौधर्ममेव तु। निजागारेषु जायन्ते नीयन्ते च निजास्पदम् ।११९। उत्तराशाच्युतान्तानां देवानां दिव्यमूर्तय:। ऐशानकल्पसंभूता देव्यो यान्ति निजाश्रयम् ।१२०। शुद्धदेवीयुतान्याहुर्विमानानि मुनीश्वरा:। षट्लक्षास्तु चतुर्लक्षा: सौधर्मैशानकल्पयो:।१२१।=आरण स्वर्ग पर्यन्त दक्षिण दिशा के देवों की देवियाँ सौधर्म स्वर्ग में ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होती हैं और नियोगी देवों के द्वारा यथास्थान ले जायी जाती हैं।११९। तथा अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्तर दिशा के देवों की सुन्दर देवियाँ ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं, एवं अपने-अपने नियोगी देवों के स्थान पर जाती हैं।१२०। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में शुद्ध देवियों से युक्त विमानों की संख्या क्रम से ६००,००० और ४००,००० बतायी हैं। अर्थात् इतने उनके उपपाद स्थान हैं।१२१। (त्रि.सा./५२४-५२५); (त.सा./२/८१)।
ध.१/१,१,९८/३३८/२ सनत्कुमारादुपरि न स्त्रिय: समुत्पद्यन्ते सौधर्मादाविव तदुत्पत्त्यप्रतिपादनात् । तत्र स्त्रीणामभावे कथं तेषां देवानामनुपशान्ततत्संतापानां सुखमिति चेन्न, तत्स्त्रीणां सौधर्मकल्पोपपत्ते:। =प्रश्न–सनत्कुमार स्वर्ग से लेकर ऊपर स्त्रियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, क्योंकि सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवांगनाओं के उत्पन्न होने का जिस प्रकार कथन किया गया है, उसी प्रकार आगे के स्वर्गों में उनकी उत्पत्ति का कथन नहीं किया गया है इसलिए वहाँ स्त्रियों का अभाव होने पर, जिनका स्त्री सम्बन्धी सन्ताप शान्त नहीं हुआ है, ऐसे देवों के उनके बिना सुख कैसे हो सकता है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि सनत्कुमार आदि कल्प सम्बन्धी स्त्रियों की सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में उत्पत्ति होती है।
स्वर्ग लोक निर्देश
१. स्वर्ग लोक सामान्य निर्देश
ति.प./८/६-१० उत्तरकुरुमणुबाणं एक्केणूणेणं तह य बालेणं। पणवीसुत्तरचउसहकोसयदंडेहिं विहीणेणं।६। इगिसट्ठीअहिएणं लक्खेणं जोयणेण ऊणाओ। रज्जूओ सत्त गयणे उड्ढुड्ढं णाकपडलाणिं।७। कणयद्दिचूलिउवरिं उत्तरकुरुमणुवएक्कबालस्स। परिमाणेणंतरिदौ चेट्ठदि हु इंदओ पढमो।८। लोयसिहरादु हेट्ठा चउसय पणवीसं चावमाणाणिं। इगिवीस जोयणाणिं गंतूणं इंदओ चरिमो।९। सेसा य एकसट्ठी एदाणं इंदयाण विच्चाले। सव्वे अणादिणिहणा रयणमया इंदया होंति।१०। =उत्तरकुरु में स्थित मनुष्यों के एक बाल हीन चार सौ पचीस धनुष और एक लाख इकसठ योजनों से रहित सात राजू प्रमाण आकाश में ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं।६-७। मेरु की चूलिका के ऊपर उत्तरकुरु क्षेत्रवर्ती मनुष्य के एक बालमात्र के अन्तर से प्रथम इन्द्रक स्थित है।८। लोक शिखर के नीचे ४२५ धनुष और २१ योजन मात्र जाकर अन्तिम इन्द्रक स्थित है।९। शेष इकसठ इन्द्रक इन दोनों इन्द्रकों के बीच में हैं। ये सब रत्नमय इन्द्रक विमान अनादिनिधन हैं।१०। (स.सि./४/१९/२५१/१), (ह.पु./६/३५), (ध.४/१,३,१/९/२), (त्रि.सा./४७०)।
२. कल्प व कल्पातीत विभाग निर्देश
ति.प./८/११५-१२८ कप्पाकप्पातीदं इदि दुविहं होदि।११४। बारस कप्पा केइ केइ सोलस वदंति आइरिया। तिविहाणि भासिदाणिं कप्पतीदाणि पडलाणिं।११५। हेट्ठिम मज्झे उवरिं पत्तेक्कं ताणं होंति चत्तारि। एवं बारसकप्पा सोलस उड्ढुड्ढमट्ठ जुगलाणिं।११६। गेवज्जमणुद्दिसयं अणुत्तरं इय हुवंति तिविहप्पा। कप्पातीदा पडला गेवज्जं णवविहं तेसु।११७। सोहम्मीसाणसणक्कुमारमाहिंदबम्हलंतवया। महसुक्कसहस्सारा आणदपाणदयआरणच्चुदया।१२०। एवं बारस कप्पा कप्पातीदेसु णव य गेवेज्जा।...।१२१। आइच्चइंदयस्स य पुव्वादिसु...चत्तारो वरविमोणाइं।१२३। पइण्णयाणि य चत्तारो तस्स णादव्वा।१२४। विजयंत...पुव्वावरदक्खिणुत्तरदिसाए।१२५। सोहम्मो ईसाणो सणक्कुमारो तहेव माहिंदो। बम्हाबम्हुत्तरयं लंतवकापिट्ठसुक्कमहसुक्का।१२७। सदरसहस्साराणदपाणदआरणयअच्चुदा णामा। इय सोलस कप्पाणिं मण्णंते केइ आइरिया।१२८। =१. स्वर्ग में दो प्रकार के पटल हैं–कल्प और कल्पातीत।११४। कल्प पटलों के सम्बन्ध में दृष्टिभेद है। कोई १२ कहता है और कोई सोलह, कल्पातीत पटल तीन हैं।११५। १२ कल्प की मान्यता के अनुसार अधो, मध्यम व उपरिम भाग में चार-चार कल्प हैं ( देखें - स्वर्ग / ३ / १ ) और १६ कल्पों की मान्यता के अनुसार ऊपर-ऊपर आठ युगलों में १६ कल्प हैं।११६। ग्रैवेयक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन कल्पातीत पटल हैं।११७। सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तव, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये बारह कल्प हैं। इनसे ऊपर कल्पातीत विमान हैं। जिनमें नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं।१२०-१२५। (त.सू./४/१६-१८,२३) + (स्वर्ग/३/१)। २. सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक ये १६ कल्प हैं, ऐसा कोई आचार्य मानते हैं।१२७-१२८। (त.सू./४/१९), (ह.पु./६/३६-३७)। (देखें - अगले पृष्ठ पर चित्र सं .६)
चित्र
३. स्वर्गों में स्थित पटलों के नाम व उनमें स्थित इन्द्रक व श्रेणीबद्ध
देखें - स्वर्ग / ५ / १ (मेरु की चूलिका से लेकर ऊपर लोक के अन्त तक ऊपर-ऊपर ६३ पटल या इन्द्रक स्थित हैं।)
ति.प./८/११ एक्केक्क इंदयस्स य विच्चालमसंखजोयणाण समं। एदाणं णामाणिं वोच्छोमो आणुपुव्वीए।११। =एक-एक इन्द्रक का अन्तराल असंख्यात योजन प्रमाण है। अब इनके नामों को अनुक्रम से कहते हैं।११। (देखें - आगे कोष्ठक )।
रा.वा./४/१९/८/२२५/१५ तयोरेकत्रिंशद् विमानप्रस्तारा:। =उन सौधर्म व ईशान कल्पों के ३१ विमान प्रस्तार हैं। (अर्थात् जो इन्द्रक का नाम हो वही पटल का नाम है।)
कोष्ठक सं.१-४=(ति.प./८/१२-१७); (रा.वा./४/१९/८/पृष्ठ/पंक्ति–२२५/१४+२२७/३०+२२९/१४+२३०/१२+२३१/७+२३१/३६+२३३/३०); (ह.पु./६/४४-५४); (त्रि.सा./४६४-४६९)।
कोष्ठक सं.६-७=(ति.प./८/८२-८५); (रा.वा./४/१९/८/पृष्ठ/पंक्ति=२२५/१७+२२७/२९+२२९/१४+२३०/१२+२३१/९+२३१/३५+२३२/२८); (ह.पु./६/४३); (त्रि.सा./४७३-४७४)।
नोट—(ह.पु. में ६२ की बजाय ६३ श्रेणीबद्ध से प्रारम्भ किया है।)
कोष्ठक नं.८–(ति.प./८/१८-८१); (त्रि.सा./४७२)।
संकेत–इस ओर वाला नाम = File:Image/511-520/clip image006.gif
क्र. |
प्रत्येक स्वर्ग के इन्द्रक या पटल |
५ प्रत्येक पटल में इन्द्रक |
श्रेणीबद्ध |
८ इन्द्रकों का विस्तार योजन |
||||
१ ति.प. |
२ रा.वा. |
३ ह.पु. |
४ त्रि.सा. |
६ प्रति दिशा |
७ कुल योग |
|||
(१) |
सौधर्म ईशान युगल में ३१ |
|||||||
१ |
ऋतु |
१ |
६२ |
२४८ |
४५००००० योजन |
|||
२ |
विमल |
चन्द्र |
विमल |
विमल |
१ |
६१ |
२४४ |
४४२९०३२File:Image/511-520/clip image008.gif योजन |
३ |
चन्द्र |
विमल |
चन्द्र |
चन्द्र |
१ |
६० |
२४० |
४३५८०६४File:Image/511-520/clip image010.gif योजन |
४ |
वल्गु |
१ |
५९ |
२३६ |
४२८७०९६File:Image/511-520/clip image012.gif योजन | |||
५ |
वीर |
१ |
५८ |
२३२ |
४२१६१२९File:Image/511-520/clip image014.gif योजन | |||
६ |
अरुण |
१ |
५७ |
२२८ |
४१४५१६१File:Image/511-520/clip image016.gif योजन | |||
७ |
नन्दन |
१ |
५६ |
२२४ |
४०७४१९३File:Image/511-520/clip image018.gif योजन | |||
८ |
नलिन |
१ |
५५ |
२२० |
४००३२२५File:Image/511-520/clip image020.gif योजन | |||
९ |
कंचन |
लोहित |
कांचन |
कांचन |
१ |
५४ |
२१६ |
३९३२२५८File:Image/511-520/clip image022.gif योजन |
१० |
रुधिर (रोहित) |
कांचन |
रोहित |
रोहित |
१ |
५३ |
२१२ |
३८६१२९०File:Image/511-520/clip image024.gif योजन |
११ |
चंचत् |
वंचन |
चंचतल |
चंचल |
१ |
५२ |
२०८ |
३७९०३२२File:Image/511-520/clip image026.gif योजन |
१२ |
मरुत |
१ |
५१ |
२०४ |
३७१९३५४File:Image/511-520/clip image028.gif योजन | |||
१३ |
ऋद्धीश |
१ |
५० |
२०० |
३६४८३८७File:Image/511-520/clip image030.gif योजन | |||
१४ |
वैडूर्य |
१ |
४९ |
१९६ |
३५७७४१९File:Image/511-520/clip image032.gif योजन | |||
१५ |
रुचक |
१ |
४८ |
१९२ |
३५०६४५१File:Image/511-520/clip image034.gif योजन | |||
१६ |
रुचिर |
१ |
४७ |
१८८ |
३४३५४८३File:Image/511-520/clip image036.gif योजन | |||
१७ |
अंक |
अर्क |
अंक |
१ |
४६ |
१८४ |
३३६४५१६File:Image/511-520/clip image038.gif योजन | |
१८ |
स्फटिक |
१ |
४५ |
१८० |
३२९३५४८File:Image/511-520/clip image040.gif योजन | |||
१९ |
तपनीय |
१ |
४४ |
१७६ |
३२२२५८०File:Image/511-520/clip image042.gif योजन | |||
२० |
मेघ |
१ |
४३ |
१७२ |
३१५१६१२File:Image/511-520/clip image044.gif योजन |
517 व 518 सिंगल पेज अलग से है।
४. श्रेणी बद्धों के नाम निर्देश
ति.प./८/८७-१०० णियणियमाणि सेढिबद्धेसुं। पढमेसुं पहमज्झिमआवत्तविसिट्ठजुत्ताणि।८९। उडुइंदयपुव्वादी सेढिगया जे हुवंति बासट्ठी। ताणं विदियादीणं एक्कदिसाए भणामो णामाइं।९०। संठियणामा सिरिवच्छवट्टणामा य कुसुमजावाणिं। छत्तंजणकलसा...।९६। एवं चउसु दिसासुं णामेसुं दक्खिणादियदिसासुं। सेढिगदाणं णामा पीदिकरइंदयं जाव।९८। आइच्चइंदययस्स य पुव्वादिसु लच्छिलच्छिमालिणिया। वइरावइरावणिया चत्तारो वरविमाणाणिं।९९। विजयंतवइजयंत जयंतमपराजिदं च चत्तारो। पुव्वादिसु माणाणिं ठिदाणि सव्वट्ठसिद्धिस्स।१००। =१. ऋतु आदि सर्व इन्द्रकों की चारों दिशाओं में स्थित श्रेणी बद्धों में से प्रथम चार का नाम उस-उस इन्द्र के नाम के साथ प्रभ, मध्यम, आवर्त व विशिष्ट ये चार शब्द जोड़ देने से बन जाते हैं। जैसे–ऋतुप्रभ, ऋतु मध्यम, ऋतु आवर्त और ऋतु विशिष्ट। २. ऋतु इन्द्र के पूर्वादि दिशाओं में स्थित, शेष द्वितीय आदि ६१-६१ विमानों के नाम इस प्रकार हैं। एक दिशा के ६१ विमानों के नाम–संस्थित, श्रीवत्स, वृत्त, कुसुम, चाप, छत्र, अंजन, कलश आदि हैं। शेष तीन दिशाओं के नाम बनाने के लिए इन नामों के साथ ‘मध्यम’, ‘आवर्त’ और ‘विशिष्ट’ ये तीन शब्द जोड़ने चाहिए। इस प्रकार नवग्रैवेयक के अन्तिम प्रीतिंकर विमान तक के श्रेणी बद्धों के नाम प्राप्त होते हैं। ३. आदित्य इन्द्रक की पूर्वादि दिशाओं में लक्ष्मी, लक्ष्मीमालिनी, वज्र और वज्रावनि ये चार विमान हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थसिद्धि की पूर्वादि दिशाओं में हैं।
ह.पु./६/६३-६५ अर्चिराद्यं परं ख्यातमर्चिमालिन्यभिख्यया। वज्रं वैरोचनं चैव सौम्यं स्यात्सौम्यरूप्यकम् ।६३। अङ्कं च स्फुटिकं चेति दिशास्वनुदिशानि तु। आदित्याख्यस्य वर्तन्ते प्राच्या: प्रभृति सक्रमम् ।६४। विजयं वैजयन्तं च जयन्तमपराजितम् । दिक्षु सर्वार्थसिद्धेस्तु विमानानि स्थितानि वै।६५। =अनुदिशों में आदित्य नाम का विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि दिशाओं तथा विदिशाओं में क्रम से–अर्चि, अर्चिमालिनी, वज्र, वैरोचन, सौम्य, सौम्यरूपक, अंक और स्फटिक ये आठ विमान हैं। अनुत्तर विमानों में सर्वार्थसिद्धि विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि चार दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार विमान स्थित हैं।
ज.प./११/३३८-३४० अच्ची य अच्चिमालिणी दिव्वं वइरोयणं पभासं च। पुव्वावरदक्खिण उत्तरेण आदिच्चदो होंति।३३८। विजयं च वेजयंतं जयंतमपराजियं च णामेण। सव्वट्टस्स दु एदे चदुसु वि य दिसासु चत्तारि।३४०। =अर्चि, अर्चिमालिनी, दिव्य, वैरोचन और प्रभास ये चार विमान आदित्य पटल के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में हैं।३३८। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थपटल की चारों ही दिशाओं में स्थित है।३४०।
सौधर्म युगल के ३१ पटल
Insert picture
५. स्वर्गों में विमानों की संख्या
१. १२ इन्द्रों की अपेक्षा
(ति.प./८/१४९–१७७+१८६); (रा.वा./४/१९/८/-२२१/२६/+२३३/२४); (त्रि.सा./४५९–४६२+४७३–४७९)।
क्र. |
कल्प का नाम |
इन्द्रक |
श्रेणीबद्ध |
प्रकीर्णक |
कुल योग |
सं.व असं.योजन युक्त |
१ |
सौधर्म |
३१ |
४३७१ |
३१९५५९८ |
३२ लाख |
सर्व राशि के पाँचवें भाग प्रमाण संख्यात योजन विस्तार युक्त है और शेष असंख्यात योजन विस्तार युक्त। |
२ |
ईशान |
— |
१४५७ |
२७९८५४३ |
२८ लाख |
|
३ |
सनत्कुमार |
७ |
५८८ |
११९९४०५ |
१२ लाख |
|
४ |
|माहेन्द्र |
— |
१९६ |
७९९८०४ |
८ लाख |
|
५ |
ब्रह्म |
४ |
३६० |
३९९६३६ |
४ लाख |
|
६ |
लान्तव |
२ |
१५६ |
४९८४२ |
५०,००० |
|
७ |
महाशुक्र |
१ |
७२ |
३९९२७ |
४०,००० |
|
८ |
सहस्रार |
१ |
६८ |
५९३१ |
६,००० |
|
९ |
आनतादि चार |
६ |
३२४ |
३७० |
७०० |
|
१० |
अधो ग्रै. |
३ |
१०८ |
× |
१११ |
|
११ |
मध्य ग्रै. |
३ |
७२ |
३२ |
१०७ |
|
१२ |
ऊर्ध्व ग्रै. |
३ |
३६ |
५२ |
९१ |
|
१३ |
अनुदिश |
१ |
४ |
४ |
९ |
|
१४ |
अनुत्तर |
१ |
४ |
× |
५ |
२. १४ इन्द्रों की अपेक्षा
१. (ति.पं./८/१७८-१८५); (ह.पु./६/४४-६२+६६-८८)।
नं. |
कल्प का नाम |
इन्द्रक |
श्रेणीबद्ध |
प्रकीर्णक |
कुल योग |
संख्यात यो.युक्त |
१ |
सौधर्म |
३१ |
४४९५ |
कुल राशि में से इन्द्रक व श्रेणीबद्ध की संख्या घटाकर जो शेष बचे |
३२ लाख |
६४०,००० |
२ |
ईशान |
— |
१४८८ |
२८ लाख |
५०८,००० |
|
३ |
सनत्कुमार |
७ |
६१६ |
१२ लाख |
२४०,००० |
|
४ |
माहेन्द्र |
— |
२०३ |
८ लाख |
१६०,००० |
|
५ |
ब्रह्म |
४ |
२४६ |
२९६००० |
८०,००० |
|
६ |
ब्रह्मोत्तर |
— |
९४ |
१०४००० |
||
७ |
लान्तव |
२ |
१२५ |
२५०४२ |
१०,००० |
|
८ |
कापिष्ठ |
— |
४१ |
२४९५८ |
||
९ |
शुक्र |
— |
५८ |
२००२० |
४००० |
|
१० |
महाशुक्र |
१ |
१९ |
१९९८० |
३००० |
|
११ |
शतार |
— |
५५ |
३०१९ |
१२०० |
|
१२ |
सहस्रार |
१ |
१८ |
२९८१ |
||
१३ |
आनत-प्राणत |
३ |
१९५ |
४४० |
८८ |
|
१४ |
आरण-अच्युत |
३ |
१५९ |
२६० |
५२ |
|
१५ |
अधो ग्रै. |
३ |
११३ |
१११ |
|
|
१६ |
मध्य ग्रै. |
३ |
८७ |
१०७ |
|
|
१७ |
उपरि ग्रै. |
३ |
६१ |
९१ |
|
|
१८ |
अनुदिश |
१ |
८ |
९ |
|
|
१९ |
अनुत्तर |
१ |
४ |
५ |
|
६. विमानों के वर्ण व उनका अवस्थान
(ति.प./८/२०३-२०७); (रा.वा./४/१९/२३५/३), (ह.पु./६/९७-१००); (त्रि.सा./४८१-४८२)।
कल्प का नाम |
वर्ण |
आधार |
सौधर्म-ईशान |
पंच वर्ण |
घन वात |
सनत्कुमार-माहेन्द्र |
कृष्ण रहित ४ |
केवल पवन |
ब्रह्म-लान्तव |
कृष्ण नील रहित ३ |
जल व वायु दोनों |
महाशुक्र-सहस्रार |
श्वेत व हरित |
जल व वायु दोनों |
आनतादि चार |
श्वेत |
शुद्ध आकाश |
ग्रैवेयक आदि |
श्वेत |
शुद्ध आकाश |
ह.पु./६/९१ सर्वश्रेणीविमानानामर्द्धमूर्ध्वमितोऽपरम् । अन्येषां स्वविमानार्धं स्वयंभूरमणोदधे:।९१। =समस्त श्रेणीबद्ध विमानों की जो संख्या है, उसका आधा भाग तो स्वम्भूरमण समुद्र के ऊपर है और आधा अन्य समस्त द्वीप समुद्रों के ऊपर फैला हुआ है।
त्रि.सा./४७४ उडुसेढीबद्धदलं सयंभुरमणुदहिपणिधिभागम्हि। आइल्लतिण्णि दीवे तिण्णि समुद्दे य सेसा हु।४७४। =सौधर्म के प्रथम ऋतु इन्द्रक सम्बन्धी श्रेणीबद्धों का एक दिशा सम्बन्धी प्रमाण ६२ है, उसके आधे अर्थात् ३१ श्रेणीबद्ध तो स्वयम्भूरमण समुद्र के उपरिमभाग में स्थित हैं और अवशेष विमानों में से १५ स्वयम्भूरमण द्वीप के ऊपर आठ अपने से लगते समुद्र के ऊपर, ४ अपने से लगते द्वीप के ऊपर, २ अपने से लगते समुद्र के ऊपर, १ अपने से लगते द्वीप के ऊपर तथा अन्तिम १ अपने से लगते अनेक द्वीपसमुद्रों के ऊपर है।
७. दक्षिण व उत्तर कल्पों में विमानों का विभाग
ति.प./८/१३७-१४८ का भावार्थ–जिनके पृथक्-पृथक् इन्द्र हैं ऐसे पहिले व पिछले चार-चार कल्पों में सौधर्म, सनत्कुमार, आनत व आरण ये चार दक्षिण कल्प हैं। ईशान, माहेन्द्र, प्राणत व अच्युत ये चार उत्तर विमान हैं, क्योंकि, जैसा कि निम्न प्ररूपणा से विदित है इनमें क्रम से दक्षिण व उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध सम्मिलित हैं। तहाँ सभी दक्षिण कल्पों में उस-उस युगल सम्बन्धी सर्व इन्द्रक, पूर्व, पश्चिम व दक्षिण दिशा के श्रेणीबद्ध और नैर्ऋत्य व अग्नि दिशा के प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। सभी उत्तर कल्पों में उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध तथा वायु व ईशान दिशा के प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। बीच के ब्रह्म आदि चार युगल जिनका एक-एक ही इन्द्र माना गया है, उनमें दक्षिण व उत्तर का विभाग न करके सभी इन्द्रक, सभी श्रेणीबद्ध व सभी प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। (त्रि.सा./४७६); (ज.प./११/२/३-२१८)।
८. दक्षिण व उत्तर इन्द्रों का निश्चित निवास स्थान
ति.प./८/३५१ छज्जुगलसेसएसुं अट्ठारसमम्मि सेढिबद्धेसुं। दोहीणकमं दक्खिण उत्तरभागम्मि होंति देविंदा।३५१। =छह युगलों और शेष कल्पों में यथाक्रम से प्रथम युगल में अपने अन्तिम इन्द्रक से सम्बद्ध अठारहवें श्रेणीबद्ध में, तथा इससे आगे दो हीन क्रम से अर्थात् १६वें, १४वें, १२वें, १०वें, ८वें और ६ठें श्रेणीबद्ध में, दक्षिण भाग में दक्षिण इन्द्र और उत्तर भाग में उत्तर इन्द्र स्थित हैं।३५१। (त्रि.सा./४८३)।
ति.प./८/३३९-३५० का भावार्थ–[अपने-अपने पटल के अन्तिम इन्द्रक की दक्षिण दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से १८वें, १६वें, १४वें, १२वें, ६ठें और पुन: ६ठें श्रेणीबद्ध विमान में क्रम से सौधर्म, सनत्कुमार, ब्रह्म, लान्तव, आनत और आरण ये छह इन्द्र स्थित हैं। उन्हीं इन्द्रकों की उत्तर दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से १८वें, १६वें, १०वें, ८वें, ६ठें और पुन: ६ठें श्रेणीबद्धों में क्रम से, ईशान, माहेन्द्र, महाशुक्र, सहस्रार, प्राण और अच्युत ये छह इन्द्र रहते हैं।] (ह.पु./६/१०१-१०२)।
नोट–[ह.पु. में लान्तव के स्थान पर शुक्र और महाशुक्र के स्थान पर लान्तव दिया है। इस प्रकार वहाँ शुक्र को दक्षिणेन्द्र और लान्तव को उत्तरेन्द्र कहा है।]
रा.वा./४/१९/८/पृ./पंक्ति का भावार्थ–सौधर्म युगल के अन्तिम इन्द्रक की दक्षिण दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से १८वें में सौधर्मेन्द्र (२२५/२१)। उसी के उत्तर दिशा वाले १८वें श्रेणीबद्ध में ईशानेन्द्र (२२७/६)। सनत्कुमार युगल के अन्तिम इन्द्रक की दक्षिण दिशा वाले १६वें श्रेणी बद्ध में सनत्कुमारेन्द्र (२२७/३२)। और उसी की उत्तर दिशा वाले १६वें श्रेणीबद्ध में माहेन्द्र (२२८/२५)। ब्रह्मयुगल के अन्तिम इन्द्रक की दक्षिण दिशा वाले १२वें श्रेणीबद्ध में ब्रह्मेन्द्र (२२९/१७)। और उसी की उत्तर दिशा वाले १२वें श्रेणीबद्ध में ब्रह्मोत्तरेन्द्र (२३०/३)। लान्तव युगल के अन्तिम इन्द्रक की दक्षिण दिशा वाले ९वें श्रेणीबद्ध में लान्तवेन्द्र (२३०/१२) और उसी के उत्तर दिशा वाले ९वें श्रेणीबद्ध में कापिष्ठेन्द्र (२३०/३४)। शुक्र युगल के एक ही इन्द्रक की दक्षिण दिशा वाले १२वें श्रेणीबद्ध में शुक्रेन्द्र (२३१/८) और उसी की उत्तर दिशा वाले १२वें श्रेणीबद्ध में महाशुक्रेन्द्र (२३१/२६)। शतार युगल के एक ही सहस्रार इन्द्रक की दक्षिण दिशा वाले ९वें श्रेणीबद्ध में शतारेन्द्र (२३१/३६) और उसी की उत्तर दिशा वाले ९वें श्रेणीबद्ध में सहस्रारेन्द्र (२३२/१८)। आनतादि चार कल्पों के आरण इन्द्रक की दक्षिण दिशा वाले ६ठें श्रेणीबद्ध में आरणेन्द्र (२३२/३१) और अच्युत इन्द्रक की उत्तर दिशा वाले ६ठें श्रेणीबद्ध में अच्युतेन्द्र (२३३/१४)। इस प्रकार ये १४ इन्द्र क्रम से स्थित हैं।
९. इन्द्रों के निवासभूत विमानों का परिचय
ति.प./८/गा.का भावार्थ–१. इन्द्रक श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इन तीनों प्रकार के विमानों के ऊपर समचतुष्कोण व दीर्घ विविध प्रकार के प्रासाद स्थित हैं।२०८। ये सब प्रासाद सात-आठ-नौ-दस भूमियों से भूषित हैं। आसनशाला, नाट्यशाला व क्रीड़नशाला आदिकों से शोभायमान हैं। सिंहासन, गजासन, मकरासन आदि से परिपूर्ण हैं। मणिमय शय्याओं से कमनीय हैं। अनादिनिधन व अकृत्रिम विराजमान हैं।२०९-२१३। २. प्रधान प्रासाद के पूर्व दिशाभाग आदि में चार-चार प्रासाद होते हैं।३९६। दक्षिण इन्द्रों में वैडूर्य, रजत, अशोक और मृषत्कसार तथा उत्तर इन्द्रों में रुचक, मन्दर, अशोक और सप्तच्छद ये चार-चार प्रासाद होते हैं।३९७। (त्रि.सा./४८४-४८५)। ३. सौधर्म व सनत्कुमार युगल के ग्रहों के आगे स्तम्भ होते हैं, जिनपर तीर्थंकर बालकों के वस्त्राभरणों के पिटारे लटके रहते हैं।३९८-४०४। सभी इन्द्र मन्दिरों के सामने चैत्य वृक्ष होते हैं।४०५-४०६। सौधर्म इन्द्र के प्रासाद के ईशान दिशा में सुधर्मा सभा, उपपाद सभा और जिनमन्दिर हैं।४०७-४११। (इस प्रकार अनेक प्रासाद व पुष्प वाटिकाओं आदि से युक्त वे इन्द्रों के नगरों में) एक के पीछे एक ऊँची-ऊँची पाँच वेदियाँ होती हैं। प्रथम वेदी के बाहर चारों दिशाओं में देवियों के भवन, द्वितीय के बाहर चारों दिशाओं में पारिषद, तृतीय के बाहर सामानिक और चौथी के बाहर अभियोग्य आदि रहते हैं।४१३-४२८। पाँचवी वेदी के बाहर वन हैं और उनसे भी आगे दिशाओं में लोकपालों के।४२८-४३३। और विदिशाओं में गणिका महत्तरियों के नगर हैं।४३५। इसी प्रकार कल्पातीतों के भी विविध प्रकार के प्रासाद, उपपाद सभा, जिनभवन आदि होते हैं।४५३-४५४।
१०. कल्प विमनों व इन्द्र भवनों के विस्ताद आदि
नोट–सभी प्रमाण योजनों में बताये गये हैं।
इन्द्रों के नाम |
कल्प विमान |
इन्द्रों के भवन |
देवियों के भवन |
||||
ति.प./८/१९८-२०२ ह.पु./६/९२-९३ त्रि.सा./४८० |
ति.प./८/३७२-३७३+४५५-४५६ ह.पु./६/९४-९६ |
ति.प./८/४१४-४१७ |
|||||
|
मोटाई |
लम्बाई |
चौड़ाई |
ऊँचाई |
लम्बाई |
चौड़ाई |
ऊँचाई |
सौधर्म यु. |
११२१ |
१२० |
६० |
६०० |
१०० |
५० |
५०० |
सनत.यु. |
१०२२ |
१०० |
५० |
५०० |
९० |
४५ |
४५० |
ब्रह्म यु. |
९२३ |
९० |
४५ |
४५० |
८० |
४० |
४०० |
लान्तव यु. |
८२४ |
८० |
४० |
४०० |
७० |
३५ |
३५० |
महाशुक्र यु. |
७२५ |
७० |
३५ |
३५० |
६० |
३० |
३०० |
सहस्रार यु. |
६२६ |
६० |
३० |
३०० |
५० |
२५ |
२५० |
आनतादि ४ |
५२७ |
५० |
२५ |
२५० |
४० |
२० |
२०० |
अधो ग्रै. |
४२८ |
४० |
२० |
२०० |
|
|
|
मध्य ग्रै. |
३२९ |
३० |
१५ |
१५० |
|
|
|
उपरि ग्रै. |
२३० |
२० |
१० |
१०० |
|
|
|
अनुदिश |
१३१ |
१० |
५ |
५० |
|
|
|
अनुत्तर |
१२१ |
५ |
२ |
२५ |
|
|
|
११. इन्द्र नगरों का विस्तार आदि
नोट–सभी प्रमाण योजनों में जानने।
इन्द्रों के नाम |
नगर |
नगरकोट |
नगर द्वार |
|||
त्रि.सा./४८९ |
त्रि.सा./४९०-४९१ |
त्रि.सा./४९२-४९३ |
||||
|
लम्बाई |
चौड़ाई |
ऊँचाई |
मोटाई व नींव |
संख्या व ऊँचाई |
चौड़ाई |
सौधर्म |
८४००० |
८४००० |
३०० |
५० |
४०० |
१०० |
ईशान |
८०००० |
८०००० |
३०० |
५० |
४०० |
१०० |
सनत्कुमार |
७२००० |
७२००० |
२५० |
२५ |
३०० |
९० |
माहेन्द्र |
७०,००० |
७०००० |
२५० |
२५ |
३०० |
९० |
ब्रह्म ब्रह्मोत्तर |
६०,००० |
६०००० |
२०० |
१२ |
२०० |
८० |
लान्तव कापिष्ठ |
५०,००० |
५०००० |
१५० |
६ |
१६० |
७० |
शुक्र महाशुक्र |
४०,००० |
४०००० |
१२० |
४ |
१४० |
५० |
शतार सहस्रार |
३०,००० |
३०००० |
१०० |
३ |
१२० |
४० |
आनतादि ४ |
२०,००० |
२०००० |
८० |
२ |
१०० |
३० |