हास्य
From जैनकोष
१. हास्य प्रकृति का लक्षण
स.सि./८/९/३८५/१२ यस्योदयाद्धास्याविर्भावस्तद्धास्यम् । =जिसके उदय से हँसी आती है वह हास्य कर्म है। (रा.वा./८/९/४/५७४/१७);(गो.क./जी.प्र./३३/२७)।
ध.६/१,९-२४/४७/४ हसनं हास:। जस्स कम्मक्खंधस्स उदएण हस्सणिमित्तो जीवस्स रागो उप्पज्जइ, तस्स कम्मक्खंधस्स हास्सो त्ति सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो।=हँसने को हास्य कहते हैं। जिस कर्म-स्कन्ध के उदय से जीव के हास्य निमित्तक राग उत्पन्न होता है उस कर्म-स्कन्ध की कारण में कार्य के उपचार से हास्य संज्ञा है।
ध.१३/५,५,९६/३६१/८ जस्स कम्मस्स उदएण अणेयविहो हासो समुप्पज्जदि तं कम्मं हस्सं णाम। =जिस कर्म के उदय से अनेक प्रकार का परिहास उत्पन्न होता है वह हास्य कर्म है।
* अन्य सम्बन्धित विषय
- हास्य राग है। देखें - कषाय / ४ ।
- हास्य प्रकृति की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा। देखें - वह वह नाम।
- हास्य प्रकृति के बन्ध योग्य परिणाम। देखें - मोहनीय / ३ / ६ ।