काल 02
From जैनकोष
- निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि
- निश्चय काल का लक्षण
पं.का./मू./24 ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंधअट्ठफासो य। अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति।24।=काल (निश्चय काल) पाँच वर्ण और पाँच रस रहित, दो गन्ध और आठ स्पर्श रहित, अगुरुलघु, अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला है। (स.सि./5/22/293/2) (ति.प./4/278)
स.सि./5/22/291/5 स्वात्मनै व वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तद्वृत्त्यभावात्तत्प्रवर्तनोपलक्षित: काल:। =(यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय उत्पन्न करने में) स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती इसलिए उसे प्रवर्ताने वाला काल है ऐसा मानकर वर्तना काल का उपकार कहा है।
स.सि./5/39/312/11 कालस्य पुनर्द्वेधापि प्रदेशप्रचयकल्पना नास्तीत्यकायत्वम् ।...तस्मात्पृथगिह कालोद्देश: क्रियते। अनेकद्रव्यत्वे सति किमस्य प्रमाणम् । लोकाकाशस्य यावन्त: प्रदेशास्तावन्त: कालाणवो निष्क्रिया एकैकाकाशप्रदेशे एकैकवृत्त्या लोकं व्याप्य व्यवस्थित्ता:।...रूपादिगुणविरहादमूर्ता:।=(निश्चय और व्यवहार) दोनों ही प्रकार के काल में प्रदेशप्रचय की कल्पना का अभाव है।...काल द्रव्य का पृथक् से कथन किया गया है। शंका—काल अनेक द्रव्य हैं इसका क्या प्रमाण है? उत्तर—लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने कालाणु हैं और वे निष्क्रिय हैं। तात्पर्य यह है कि लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु अवस्थित है। और वह काल रूपादि गुणों से रहित तथा अमूर्तीक है। (रा.वा./5/22/24/482/2)
रा.वा./4/14/222/12 कल्यते क्षिप्यते प्रेर्यते येन क्रियावद्द्रव्यं स काल:।=जिसके द्वारा क्रियावान द्रव्य ‘कल्यते, क्षिप्यते, प्रेर्यते’ अर्थात् प्रेरणा किये जाते हैं, वह काल द्रव्य है।
ध.4/1,5,1/3/315 ण य परिणमइ सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवइ सुहेऊ सयं कालो।3।=वह काल नामक पदार्थ न तो स्वयं परिणमित होता है, और न अन्य को अन्यरूप से परिणमाता है। किन्तु स्वत: नाना प्रकार के परिणामों को प्राप्त होने वाले पदार्थों का काल स्वयं सुहेतु होता है।3। (ध.11/4,2,6,1/2/76)
ध.4/1,5,1/7/317 सब्भावसहावाणं जीवाणं तह ये पोग्गलाणं च। परियट्टणसंभूओ कालो णियमेण पण्णत्तो।7।=सत्ता स्वरूप स्वभाव वाले जीवों के, तथैव पुद्गलों के और ‘च’ शब्द से धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश द्रव्य के परिवर्तन में जो निमित्तकारण हो, वह नियम से कालद्रव्य कहा गया है।
म.पु./3/4 यथा कुलालचक्रस्य भ्रान्तेर्हेतुरधश्शिला। तथा काल: पदार्थानां वर्त्तनोपग्रहे मत:।4।=जिस प्रकार कुम्हार के चाक के घूमने में उसके नीचे लगी हुर्इ कील कारण है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन होने में कालद्रव्य सहकारी कारण है।
न.च.वृ./137 परमत्थो जो कालो सो चिय हेऊ हवेइ परिणामो।=जो निश्चय काल है वही परिणमन करने में कारण होता है।
गो.जी./मू./568 वत्तणहेदू कालो वत्तणगुणमविय दव्वणिचयेषु। कालाधारेणेव य वट्टंति हु सव्वदव्वाणि।568।=णिच् प्रत्यय संयुक्त धातु का कर्मविषैं वा भावविषैं वर्तना शब्द निपजै है सो याका यहु जो वर्तेवा वर्तना मात्र होइ ताकों वर्तना कहिए सो धर्मादिक द्रव्य अपने अपने पर्यायनि को निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान है तिनके बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति संभवे नाहीं, तातैं तिनकैं तिस प्रवृत्ति करावने कूं कारण कालद्रव्य है, ऐसे वर्तना काल का उपकार है।
नि.सा./ता.वृ./9/24/4 पञ्चानां वर्तमानहेतु: काल:।=पाँच द्रव्यों का वर्तना का निमित्त वह काल है।
द्र.सं.वृ./मू./21 परिणामादोलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो।=वर्तना लक्षण वाला जो काल है वह निश्चय काल है।
द्र.सं.वृ./टी./21/61 वर्त्तनालक्षण: कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकाल:।=वह वर्तना लक्षणवाला कालाणु द्रव्यरूप ‘निश्चयकाल’ है।
- कालद्रव्य के विशेष गुण व कार्य वर्तना हेतुत्व है
त.सू./5/22,40 वर्तनापरिणामक्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य।22। सोऽनन्तसमय:।40।=वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।22। वह अनन्त समयवाला है।
ति.प./4/279-282 कालस्स दो वियप्पा मुक्खामुक्खा हवंति एदेसुं। मुक्खाधारबलेण अमुक्खकालो पयट्टेदि।279। जीवाण पुग्गलाणं हुवंति परियट्टणाइ विविहाइं। एदाणं पज्जाया वट्टंते मुक्खकाल आधारे।280। सव्वाण पयत्थाण णियमा परिणामपहुदिवित्तीओ। बहिरंतरंगहेदुहि सव्वब्भेदेसु वट्टंति।281। वाहिरहेदुं कहिदो णिच्छयकालोत्ति सव्वदरिसीहिं। अब्भंतरं णिमित्तं णियणियदव्वेसु चेट्ठेदि।282।=काल के मुख्य और अमुख्य दो भेद हैं। इनमें से मुख्य काल के आश्रय से अमुख्य काल की प्रवृत्ति होती है।279। जीव और पुद्गल के विविध प्रकार के परिवर्तन हुआ करते हैं। इनकी पर्यायें मुख्य काल के आश्रय से वर्तती हैं।280। सर्व पदार्थों के समस्त भेदों में नियम से बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तों के द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं।281। सर्वज्ञ देवने सर्वपदार्थों के प्रवर्तने का बाह्य निमित्त निश्चय काल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्यों में स्थित है।
रा.वा./5/39/2/501/31 गुणा अपि कालस्य साधारणासाधारणरूपा: सन्ति। तत्रासाधारणा वर्तनाहेतुत्वम् । साधारणाश्च अचेतनत्वामूर्तत्वसूक्ष्मत्वागुरुलघुत्वादय: पर्यायाश्च व्ययोत्पादलक्षणा योज्या:।=काल में अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारणगुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं। व्यय और उत्पादरूप पर्यायें भी काल में बराबर होती रहती हैं।
आ.प./2/99 कालद्रव्ये वर्त्तनाहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति विशेषगुणा:।=कालद्रव्य में वर्तनाहेतुत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व ये विशेष गुण हैं। (ध.5/33/7)
प्र.सा./त.प्र./133-134 अशेषशेषद्रव्याणांगं प्रतिपर्यायं समयवृत्तिहेतुत्वं कालस्य।=(काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों की प्रतिपर्याय में समयवृत्ति का हेतुत्व (समय-समय की परिणति का निमित्तत्व) काल का विशेष गुण है।
- काल द्रव्यगति में भी सहकारी है
त.सू./5/22...क्रिया...च कालस्य।22।=क्रिया में कारण होना, यह काल द्रव्य का उपकार है।
- काल द्रव्य के 15 सामान्य विशेष स्वभाव
न.च.वृ./70 पंचदसा पुण काले दव्वसहावा य णायव्वा।70।=काल द्रव्य के 15 सामान्य तथा विशेष स्वभाव जानने चाहिए। (आ.प./4) (वे स्वभाव निम्न हैं—सद्, असद्, नित्य, अनित्य, अनेक, भेद, अभेद, स्वभाव, अचैतन्य, अमूर्त, एकप्रदेशत्व, शुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकान्त, अनेकान्त स्वभाव)
- <a name="2.5" id="2.5"></a>काल द्रव्य एक प्रदेशी असंख्यात द्रव्य है
नि.सा./मू./36 कालस्स ण कायत्तं एयपदेसो हवे जम्हा।36।=काल द्रव्य को कायपना नहीं है, क्योंकि वह एकप्रदेशी है। (पं.का./त.प्र./4) (द्र.सं.वृ./मू./25)
प्र.सा./त.प्र/.135 कालाणोस्तु द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात्पर्यायेण तु परस्परसंपर्कासंभवादप्रदेशत्वमेवास्ति। तत: कालद्रव्यमप्रदेशं।=कालाणु तो द्रव्यत: प्रदेश मात्र होने से और पर्यायत: परस्पर सम्पर्क न होने से अप्रदेशी ही है। इसलिए निश्चय हुआ कि काल द्रव्य अप्रदेशी है। (प्र.सा./त.प्र./138)
प्र.सा./त.प्र./136 कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुनरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोक एवेति।136।=काल, जीव तथा पुद्गल एक द्रव्य की अपेक्षा से लोक के एकदेश में रहते हैं, और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा से अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई डिबिया के अनुसार समस्त लोक में ही है। (अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से कालद्रव्य असंख्यात हैं।)
गो.जी./मू./585 एक्केक्को दु पदेसो कालाणूणं धुवो होदि।585।=बहुरि कालाणू एक एक लोकाकाश का प्रदेशविषै एक-एक पाइए है सो ध्रुव रूप है, भिन्न–भिन्न सत्व धरै है तातै तिनिका क्षेत्र एक-एक प्रदेशी है।
- कालद्रव्य आकाश प्रदेशों पर पृथक्-पृथक् अवस्थित है
ध./4/1,51/4/315 लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया दु एक्केक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयव्वा।4।=लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के समान जो एक एक रूप से स्थित हैं, वे कालाणु जानना चाहिए। (गो.जी./सू./589) (द्र.सं.वृ./मू./22)
ति.प./4/283 कालस्स भिण्णाभिण्णा अण्णुण्णपवेसणेण परिहीणा। पुहपुह लोयायासे चेट्ठंते संचएण विणा।283।=अन्योन्य प्रवेश से रहित काल के भिन्न-भिन्न अणु संचय के बिना पृथक्-पृथक् लोकाकाश में स्थित है। (प.प्र./मू./2/21) (रा.वा./5/22/24/482/3) (न.च.वृ./136)
- <a name="2.7" id="2.7"></a>काल द्रव्य का अस्तित्व कैसे जाना जाये
स.सि./5/22/292/1 स कथं काल इत्यवसीयते। समयादीनां क्रियाविशेषाणां समयादिभिर्निर्वर्त्यमानानां च पाकादीनां समय: पाक इत्येवमादिस्वसंज्ञारूढिसद्भावेऽपि समय: काल: ओदनपाक: काल इति अध्यारोप्यमाण: कालव्यपदेश: तद्व्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति। कुत:। गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् ।=प्रश्न—कालद्रव्य है यह कैसे जाना जा सकता है? उत्तर—समयादिक क्रियाविशेषों की और समयादिक के द्वारा होने वाले पाक आदिक की समय, पाक इत्यादिक रूप से अपनी-अपनी रौढिक संज्ञा के रहते हुए भी उसमें जो समयकाल, ओदनपाक काल इत्यादि रूप से काल संज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है। (रा.वा./5/22/6/477/16) (गो.जी./जी.प्र./568/1013/14)
प्र.सा./त.प्र./134 अशेषशेषद्रव्याणां प्रतिपर्यायसमयवृत्तिहेतुत्वं कारणान्तरसाध्यत्वात्समयविशिष्टाया वृत्ते: स्वतस्तेषामसंभवत्कालमधिगमयति।
प्र.सा./त.प्र./136 कालोऽपि लोके जीवपुद्गलपरिणामव्यज्यमानसमयादिपर्यायत्वात् ।
प्र.सा./त.प्र./142 तौ यदि वृत्त्यंशस्यैव किं यौगपद्येन किं क्रमेण, यौगपद्येन चेत् नास्ति यौगपद्यं सममेकस्य विरुद्धधर्मयोरनवतारात् । क्रमेण चेत् नास्ति क्रम:, वृत्त्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । ततो वृत्तिमान् कोऽप्यवश्यमनुसर्तव्य:, स च समयपदार्थ एव।
प्र.सा./त.प्र./143 विशेषास्तित्वस्य सामान्यास्तित्वमन्तरेणानुपपत्ते:। अयमेव च समयपदार्थस्य सिद्धयति सद्भाव:।=1. (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों के, प्रत्येक पर्याय में समयवृत्ति का हेतुत्व काल को बतलाता है, क्योंकि उनके, समयविशिष्ट वृत्ति कारणान्तर से साध्य होने से (अर्थात् उनके समय से विशिष्ट-परिणति अन्य कारण से होते हैं, इसलिए) स्वत: उनके वह (समयवृत्ति हेतुत्व। संभवित नहीं है। (134) (पं.का./त.प्र.ता.वृ./33)। 2. जीव और पुद्गलों के परिणामों के द्वारा (काल की) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं (136/ (प्र.सा./त.प्र./139)। 3. यदि उत्पाद और विनाश वृत्त्यंश के (काल रूप पर्याय) ही मानें जायें तो, (प्रश्न होता है कि:–) (1) वे युगपद् हैं या (2) क्रमश: ? (1) यदि ‘युगपत्’ कहा जाय तो युगपत्पना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते। (एक ही समय एक वृत्त्यंश के प्रकाश और अन्धकार की भाँति उत्पाद और विनाश-दो विरुद्ध धर्म नहीं होते।) (2) यदि ‘क्रमश:’ कहा जाय तो क्रम नहीं बनता, क्योंकि वृत्त्यंश के सूक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है। इसलिए (समयरूपी वृत्त्यंश के उत्पाद तथा विनाश होना अशक्य होने से) कोई वृत्तिमान अवश्य ढूँढना चाहिए। और वह (वृत्तिमान) काल पदार्थ ही है। (142)। 4. सामान्य अस्तित्व के बिना विशेष अस्तित्व की उत्पत्ति नहीं होती, वह ही समय पदार्थ के सद्भाव की सिद्धि करता है।
त.सा./परि./1/पृ. 172 पर शोलापुर वाले पं0 वंशीधरजी ने काफी विस्तार से युक्तियों द्वारा छहों द्रव्यों की सिद्धि की है।
- समय से अन्य कोई काल द्रव्य उपलब्ध नहीं—
प्र.सा./त.प्र./144 न च वृत्तिरेव केवला कालो भवितुमर्हति, वृत्तेर्हि वृत्तिमन्तमन्तरेणानुपपत्ते:। =मात्र वृत्ति ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्तिमान के बिना वृत्ति नहीं हो सकती।
पं.का./ता.वृ./26/55/8 समयरूप एव परमार्थकालो न चान्य: कालाणुद्रव्यरूप इति। परिहारमाह-समयस्तावत्सूक्ष्मकालरूप: प्रसिद्ध: स एव पर्याय: न च द्रव्यम् । कथं पर्यायत्वमिति चेत् । उत्पन्नप्रध्वंसित्वात्पर्यायस्य ‘‘समओ उप्पण्णपद्धंसी’’ ति वचनात् । पर्यायस्तु द्रव्यं बिना न भवति द्रव्यं च निश्चयेनाविनश्वरं तच्च कालपर्यायस्योपादानकारणभूतं कालाणुरूपं कालद्रव्यमेव न च पुद्गलादि। तदपि कस्मात् । उपादानसदृशत्वात्कार्य...। =प्रश्न–समय रूप ही निश्चय काल है, उस समय से भिन्न अन्य कोई कालाणु द्रव्यरूप निश्चयकाल नहीं है? उत्तर—समय तो कालद्रव्य की सूक्ष्म पर्याय है स्वयंद्रव्य नहीं है। प्रश्न—समय को पर्यायपना किस प्रकार प्राप्त है? उत्तर—पर्याय उत्पत्ति विनाशवाली होती है ‘‘समय उत्पन्न प्रध्वंसी है’’ इस वचन से समय को पर्यायपना प्राप्त होता है। और वह पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती, तथा द्रव्य निश्चय से अविनश्वर होता है। इसलिए कालरूप पर्याय का उपादान कारणभूत कालाणुरूप कालद्रव्य ही होना चाहिए न कि पुद्गलादि। क्योंकि, उपादान कारण के सदृश ही कार्य होता है। (पं.का./ता.वृ./23/49/8) (पं.प्र./ही./2/21/136/10) (द्र.सं.वृ.टी./21/61/9)।
- समय आदि का उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि हैं, कालद्रव्य से क्या प्रयोजन—
रा.वा./5/22/7/477/20 आदित्यगतिनिमित्ता द्रव्याणां वर्तनेति; तन्न; किं, कारणम् । तद्गतावपि तत्सद्भावात् । सवितुरपि व्रज्यायां भूतादिव्यवहारविषयभूतायां क्रियेत्येवं रूढायां वर्तनादर्शनात् तद्धेतुना अन्येन कालेन भवितव्यम् ।=प्रश्न–आदित्य—सूर्य की गति से द्रव्यों में वर्तना हो जावे? उत्तर—ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि सूर्य की गति में भी ‘भूत वर्तमान भविष्यत’ आदि अनेक कालिक व्यवहार देखे जाते हैं। वह भी एक क्रिया है उसकी वर्तना में भी किसी अन्य को हेतु मानना ही चाहिए। वही काल है। (पं.का./ता.वृ./25/52/16)।
द्र.सं.वृ./टी./21/62/2 अथ मतं-समयादिकालपर्यायाणां कालद्रव्यमुपादानकारणं न भवति; किन्तु समयोतपत्तौ मन्दगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुटविघटनं तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्तौ घटिकासामग्रीभूतजलभाजनपुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकरबिम्बमुपादानकारणमिति। ‘‘नैवम् । यथा तन्दुलोपादानकारणोत्पन्नस्य सदोदनपर्यायस्य शुक्लकृष्णादिवर्णा, सुरभ्यसुरभिगन्ध-स्निग्धरूक्षादिस्पर्शमधुरादिरसविशेषरूपा गुणा दृश्यन्ते। तथा पुद्गलपरमाणुनयनपुटविघटनजलभाजनपुरुषव्यापारादिदिनकरबिम्बरूपै: पुद्गलपर्यायैरुपादानभूतै: समुत्पन्नानां समयनिमिषघटिकादिकालपर्यायाणामपि शुक्लकृष्णादिगुणा: प्राप्नुवन्ति, न च तथा। =प्रश्न—समय, घड़ी आदि कालपर्यायों का उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है किन्तु समय रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में मन्दगति से परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है; तथा निमेषरूप काल पर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों का विघटन अर्थात् पलक का गिरना-उठना उपादान कारण है; ऐसे ही घड़ी रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्रीरूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यापार उपादान कारण है; दिन रूप कालपर्याय की उत्पत्ति में सूर्य का बिम्ब उपादान कारण है। उत्तर—ऐसा नहीं है, जिस तरह चावल रूप उपादान कारण से उत्पन्न भात पर्याय के उपादान कारण में प्राप्त गुणों के समान ही सफेद, कालादि वर्ण, अच्छी या बुरी गन्ध; चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श; मीठा आदि रस; इत्यादि विशेष गुण दीख पड़ते हैं; वैसे ही पुद्गल परमाणु, नेत्र, पलक, विघटन, जल कटोरा, पुरुष व्यापार आदि तथा सूर्य का बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय है उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घड़ी, दिन आदि जो काल पर्याय हैं उनके भी सफेद, काला आदि गुण मिलने चाहिए; परन्तु समय, घड़ी आदि में ये गुण नहीं दीख पड़ते हैं। (रा.वा./5/22/26-27/482-484 में सविस्तार तर्कादि)।
पं.का./ता.वृ./26/54/16 यद्यपि निश्चयेन द्रव्यकालस्य पर्यायस्तथापि व्यवहारेण परमाणुजलादिपुद्गलद्रव्यं प्रतीत्याश्रित्य निमित्तीकृत्य भव उत्पन्नो जात इत्यभिधीयते।=यद्यपि निश्चय से (समय) द्रव्य काल की पर्याय है, तथापि व्यवहार से परमाणु, जलादि पुद्गलद्रव्य के आश्रय से अर्थात् पुद्गल द्रव्य को निमित्त करके प्रगट होती है, ऐसा जानना चाहिए। (द्र.सं.वृ./टी./35/134)।
- परमाणु आदि की गति में भी धर्म आदि द्रव्य निमित्त है, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन
रा.वा./5/22/8/477/24 आकाशप्रदेशनिमित्ता वर्तना नान्यस्तद्धेतु: कालोऽस्तीति; तन्न; किं कारणम् । तां प्रत्यधिकरणभावाद् भाजनवत् । यथा भाजनं तण्डुलानामधिकरणं न तु तदेव पचति, तेजसो हि स व्यापार:, तथा आकाशमप्यादित्यगत्यादिवर्तनायामधिकरणं न तु तदेव निर्वर्तयति। कालस्य हि स व्यापार:।=प्रश्न–आकाश प्रदेश के निमित्त से (द्रव्यों में) वर्तना होती है। अन्य कोई ‘काल’ नामक उसका हेतु नहीं है? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे वर्तन चावलों का आधार है, पर पाक के लिए तो अग्नि का व्यापार ही चाहिए, उसी तरह आकाश वर्तना वाले द्रव्यों का आधार तो हो सकता है, पर वह वर्तना की उत्पत्ति में सहकारी नहीं हो सकता। उसमें तो काल द्रव्य का ही व्यापार है।
पं.का./ता.वृ./25/53/3 आदित्यगत्यादिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं कालस्य किमायातम् । नैवं। गतिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति कालद्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्ति यत् कारणात् घटोत्पत्तौ कुम्भकारचक्रचीवरादिवत् मत्स्यादीनां जलादिवत् मनुष्याणां शकटादिवत्...इत्यादि कालद्रव्यं गतिकारणं। कुत्र भणितं तिष्ठतीति चेत् ‘‘पोग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणेहिं’’ क्रियावन्तो भवन्तीति कथयत्यग्रे। =प्रश्न—सूर्य की गति आदि परिणति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण है तो काल द्रव्य की क्या आवश्यकता है? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि गति परिणत के धर्मद्रव्य सहकारी कारण होता है तथा काल द्रव्य भी। सहकारी कारण तो बहुत सारे होते हैं जैसे घट की उत्पत्ति में कुम्हार चक्र चीवरादि के समान, मत्स्यों की गति में जलादि के समान, मनुष्यों की गति में गाड़ी पर बैठना आदि के समान,...इत्यादि प्रकार कालद्रव्य भी गति में कारण है।=प्रश्न—ऐसा कहाँ है? उत्तर—धर्म द्रव्य के विद्यमान होने पर भी जीवों की गति में कर्म, नोकर्म, पुद्गल सहकारी कारण होते हैं और अणु तथा स्कन्ध इन दो भेदों वाले पुद्गलों के गमन में काल द्रव्य सहकारी कारण होता है। (पं.का./मू./98) ऐसा आगे कहेंगे।
- सर्व द्रव्य स्वभाव से ही परिणमन करते हैं, काल द्रव्य से क्या प्रयोजन
रा.वा./5/22/9/477/27 सत्तानां सर्वपदार्थानां साधारण्यस्ति तद्धेतुका वर्तनेति; तन्न; किं कारणम् । तस्या अप्यनुग्रहात् । कालानुगृहीतवर्तना हि सत्तेति ततोऽप्यन्येन कालेन भवितव्यम् ।=प्रश्न—सत्ता सर्व पदार्थों में रहती है, साधारण है, अत: वर्तना सत्ताहेतुक है? उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तना सत्ता का भी उपकार करती है। काल से अनुगृहीत वर्तना ही सत्ता कहलाती है। अत: काल पृथक् ही होना चाहिए।
द्र.सं.वृ./टी./22/65/4 अथ मतं यथा कालद्रव्यं स्वस्योपादानकारणं परिणते: सहकारिकारणं च भवति तथा सर्वद्रव्याणि, कालद्रव्येण किं प्रयोजनमिति। नैवम्; यदि पृथग्भूतसहकारिकारणेन प्रयोजनं नास्ति तर्हि सर्वद्रव्याणां साधारणगतिस्थित्यवगाहनविषये धर्माधर्माकाशद्रव्यैरपि सहकारिकारणभूतै: प्रयोजनं नास्ति। किंच, कालस्य घटिकादिवसादिकार्यं प्रत्यक्षेणं दृश्यते; धर्मादीनां पुनरागमकथनमेव, प्रत्यक्षेण किमपि कार्यं न दृश्यते; ततसतेषामपि कालद्रव्यस्येवाभाव: प्राप्नोति। ततश्च जीवपुद्गलद्रव्यद्वयमेव, स चागमविरोध:।=प्रश्न—(काल की भाँति) जीवादि सर्वद्रव्य भी अपने उपादानकारण और अपने-अपने परिणमन सहकारी कारण रहें। उन द्रव्यों के परिणमन में काल द्रव्य से क्या प्रयोजन है? उत्तर—ऐसा नहीं, क्योंकि यदि अपने से भिन्न बहिरंग सहकारी कारण की आवश्यकता न हो तो सब द्रव्यों के साधारण, गति, स्थिति, अवगाहन के लिए सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य हैं उनकी भी कोई आवश्यकता न रहेगी। विशेष—काल का कार्य तो घड़ी, दिन, आदि प्रत्यक्ष से दीख पड़ता है; किन्तु धर्म द्रव्य आदि का कार्य तो केवल आगम के कथन से ही जाना जाता है; उनका कोई कार्य प्रत्यक्ष नहीं देखा जाता। इसलिए जैसे काल द्रव्य का अभाव मानते हो, उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म, तथा आकाश द्रव्यों का भी अभाव प्राप्त होता है। और तब जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे। केवल दो ही द्रव्यों के मानने पर आगम से विरोध आता है। (पं.का./ता.वृ./24/51)।
- काल द्रव्य न माने तो क्या दोष है
नि.सा./ता.वृ./32 में मार्ग प्रकाश से उद्धृत-कालाभावे न भावानां परिणामस्तदन्तरात् । न द्रव्यं नापि पर्याय: सर्वाभाव: प्रसज्यते। =काल के अभाव में पदार्थों का परिणमन नहीं होगा, और परिणमन न हो तो द्रव्य भी न होगा, तथा पर्याय भी न होगी; इस प्रकार सर्व के अभाव का (शून्य का) प्रसंग आयेगा।
गो.जी./जी.प्र./568/1013/12 धर्मादिद्रव्याणां स्वपर्यायनिर्वृत्तिं प्रति स्वयमेव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाभावे तद्वृत्त्यसंभवात् ।=धर्मादिक द्रव्य अपने-अपने पर्यायनि की निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान हैं, तिनके बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति सम्भवै नाहीं। - अलोकाकाश में वर्तना का हेतु क्या है
पं.का./ता.वृ./24/50/13 लोकाकाशाद्बहिर्भागे कालद्रव्यं नास्ति कथमाकाशस्य परिणतिरिति प्रश्ने प्रत्युत्तरमाह—यथैकप्रदेशे स्पष्टे सति लम्बायमानमहावरत्रायां महावेणुदण्डे वा–सर्वत्र चलनं भवति यथैव च मनोजस्पर्शनेन्द्रियविषयैकदेशस्पर्शे कृते सति रसनेन्द्रियविषये च सर्वाङ्गेन सुखानुभवो भवति...तथा लोकमध्ये स्थितेऽपि कालद्रव्ये सर्वत्रालोकाकाशे परिणतिर्भवति। कस्मात् । अखण्डैकद्रव्यत्वात् ।=प्रश्न–लोक के बाहरी भाग में कालाणु द्रव्य के अभाव में अलोकाकाश में परिणमन कैसे होता है? उत्तर—जिस प्रकार बहुत बड़े बाँस का एक भाग स्पर्श करने पर सारा बाँस हिल जाता है...अथवा जैसे स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का, या रसना इन्द्रिय के विषय का प्रिय अनुभव एक अंग में करने से समस्त शरीर में सुख का अनुभव होता है; उसी प्रकार लोकाकाश में स्थित जो काल द्रव्य है वह आकाश के एक देश में स्थित है, तो भी सर्व अलोकाकाश में परिणमन होता है, क्योंकि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है। (द्र.सं.वृ./टी./22/64)।
- स्वयं काल द्रव्य में वर्तना का हेतु क्या है
ध.4/1,5,1/321/5 कालस्स कालो किं तत्तो पुधभूदो अणण्णो वा।...अणब्भुवगमा।...एत्थ वि एक्कम्हि काले भेदेण ववहारो जुज्जदे।=प्रश्न–काल का परिणमन कराने वाला काल क्या उससे पृथग्भूत है या अनन्य? उत्तर—हम काल के काल को काल से भिन्न तो मानते नहीं हैं...यहाँ पर एक या अभिन्न काल में भी भेद रूप से व्यवहार बन जाता है।
पं.का./ता.वृ./24/50/19 कालस्य किं परिणतिसहकारिकारणमिति। आकाशस्याकाशाधारवत् ज्ञानादित्यरत्नप्रदीपानां स्वपरप्रकाशवच्च कालद्रव्यस्य परिणते: काल एव सहकारिकारणं भवति। =प्रश्न—काल द्रव्य की परिणति में सहकारी कारण कौन है? उत्तर—जिस प्रकार आकाश स्वयं अपना आधार है, तथा जिस प्रकार ज्ञान, सूर्य, रत्न वा दीपक आदि स्वपर प्रकाशक हैं, उसी प्रकार कालद्रव्य की परिणति में सहकारी कारण स्वयं काल ही है। (द्र.सं.वृ./टी./22/65)
- <a name="2.15" id="2.15"></a>काल द्रव्य को असंख्यात मानने की क्या आवश्यकता, एक अखण्ड द्रव्य मानिए
श्लो.वा. 2/भाषाकार 1/4/44-45/148/17=प्रश्न—काल द्रव्य को असंख्यात मानने का क्या कारण है? उत्तर—काल द्रव्य अनेक हैं, क्योंकि एक ही समय परस्पर में विरुद्ध हो रहे अनेक द्रव्यों की क्रियाओं की उत्पत्ति में निमित्त कारण हो रहे हैं...अर्थात् कोई रोगी हो रहा है, कोई निरोग हो रहा है।
- काल द्रव्य क्रियावान क्यों नहीं
स.सि./5/22/291/7 वर्तते द्रव्यपर्यायस्तस्य वर्तयिता काल:। यद्येव कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति। यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति। नैष दोष:, निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृव्यपदेशो दृष्ट:। यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति। एवं कालस्य हेतुकर्तृता।=द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है। प्रश्न—यदि ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य प्राप्त होता है? जैसे शिष्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि निमित्तमात्र में भी हेतुकर्ता रूप व्यपदेश देखा जाता है। जैसे—कण्डे की अग्नि पढ़ाती है। यहाँ कण्डे की अग्नि निमित्त मात्र है। उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है।
- कालाणु को अनन्त कैसे कहते हैं
स.सि./5/40/315/6 अनन्तपर्यायवर्तनाहेतुत्वादेकोऽपि कालाणुरनन्त इत्युपचर्यते।=प्रश्न–[एक कालाणु को भी अनन्त संज्ञा कैसे देते हैं?] उत्तर—अनन्त पर्याय वर्तना गुण के निमित्त से होती हैं, इसलिए एक कालाणु को भी उपचार से अनन्त कहा है।
ह.पु./7/10...। अनन्तसमयोत्पादादनन्तव्यपदेशिन:।10। =ये कालाणु अनन्त समयों के उत्पादक होने से अनन्त भी कहे जाते हैं।10।
- कालद्रव्य को जानने का प्रयोजन
स.सा./ता.वृ./139/197/7 एवमुक्तलक्षणे काले विद्यमानेऽपि परमात्मतत्त्वमलभमानोऽतीतानन्तकाले संसारसागरे भ्रमितोऽयं जीवो यतस्तत: कारणात्तदेव निजपरमात्मतत्त्वं सर्वप्रकारोपादेयरूपेण श्रद्धेयं...ज्ञातव्यम् ...ध्येयमिति तात्पर्य्यम् ।=उपरोक्त लक्षणवाले काल के जानने पर भी इस जीव ने परमात्म तत्त्व की प्राप्ति के बिना संसार सागर में अनन्त काल तक भ्रमण किया है इसलिए निज परमात्मतत्त्व सर्व प्रकार उपादेय रूप से श्रद्धेय है, जानने योग्य है, तथा ध्यान करने योग्य है। यह तात्पर्य है।
पं.का./ता.वृ./26/55/20 अत्र व्याख्यानेऽतीतानन्तकाले दुर्लभो योऽसौ शुद्धजीवास्तिकायस्तस्मिन्नेव चिदानन्दैककालस्वभावे सम्यक्श्रद्धानं रागादिभ्यो भिन्नरूपेण भेदज्ञानं...विकल्पजालत्यागेन तत्रैव स्थिरचित्तं च कर्तव्यमिति तात्पर्यार्थ:।
पं.का./ता.वृ./100/160/12 अत्र यद्यपि काललब्धिवशेन भेदाभेदरत्नत्रयलक्षणं मोक्षमार्गं प्राप्य जीवो रागादिरहितनित्यानन्दैकस्वभावमुपादेयभूतं पारमार्थिकसुखं साधयति तथा जीवस्तस्योपादानकारणं न च काल इत्यभिप्राय:।=1. इस व्याख्यान में तात्पर्यार्थ यह है कि अतीत अनन्त काल में दुर्लभ ऐसा जो शुद्ध जीवास्तिकाय है, उसी चिदानन्दैककालस्वभाव में सम्यक्श्रद्धान, तथा रागादि से भिन्न रूप से भेदज्ञान...तथा विकल्प जाल को त्यागकर उसी में स्थिरचित्त करना चाहिए। 2. यद्यपि जीव काललब्धि के वश से भेदाभेद रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग को प्राप्त करके रागादि से रहित नित्यानन्द एक स्वभाव तथा उपादेयभूत पारमार्थिक सुख को साधता है, परन्तु जीव ही उसका उपादान कारण है न कि काल, ऐसा अभिप्राय है।
द्र.सं.वृ./टी./21/63 यद्यपि काललब्धिवशेनानन्तसुखभाजनो भवति जीवस्तथापि...परमात्मतत्त्वस्य सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठान...तपश्चरणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न च कालस्तेन स हेय इति।=यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से अनन्त सुख का भाजन होता है, तथापि...निज परमात्म तत्त्व का सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान, आचरण और तपश्चरण रूप जो चार प्रकार की निश्चय आराधना है वह आराधना ही उस जीव के अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण जाननी चाहिए, उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए काल हेय है।
- निश्चय काल का लक्षण