परमार्थ
From जैनकोष
स./सा./मू./151 परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी। तम्हि ट्ठिदा मुणिणो पावंति णिव्वाणं। 151। = निश्चय से जो परमार्थ है, समय है, शुद्ध है, केवली है, मुनि है, ज्ञानी है, उस स्वभाव में स्थित मुनि निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
न.च.वृ./4 तच्चं तह परमट्ठं दव्वसहावं तहेव परमपरं। धेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुंति अभिहाणा। 4। = तत्त्व, परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, पर, अपर, ध्येय, शुद्ध और परम ये सब एक ही अर्थ को जनानेवाले हैं।
स.सा./ता.वृ./151/214/11 उत्कृष्टार्थः परमार्थः धर्मार्थकाममोक्षलक्षणेषु परमार्थेषु परमउत्कृष्टो मोक्षलक्षणोऽर्थः परमार्थः.... अथवा मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानभेदरहितत्वेन निश्चयेनैकः परमार्थः सोऽपि परमात्मैव। = उत्कृष्ट अर्थ को परमार्थ कहते हैं। अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष लक्षणवाले परमार्थों में जो परम उत्कृष्ट है, ऐसा मोक्ष लक्षणवाला अर्थ परमार्थ कहलाता है। अथवा मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय व केवलज्ञान के भेद से रहित होने से निश्चय से एक ही परमार्थ है, वह भी आत्मा ही है।