प्रणिधान
From जैनकोष
भ.आ./मू./116-118/271 पणिधायं पि य दुविहं इंदिय णोइंदियं च बोधव्वं । सद्दादि इंदियं पुण कोधाईयं भवे इदरं ।116। सद्दरसरूवगंधे फासे य मणोहरे य इयरे य । नं रागदोसगमणं पंचविहं होदि पणिधाणं ।117। णोइंदियपणिधाणं कोधो माणो तधेव माया य । लोभो य णोकसाया मणपणिधाणं तु तं वज्जे ।118। = प्रणिधान के इन्द्रिय प्रणिधान, नोइन्द्रिय प्रणिधान ऐसे दो भेद हैं । स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द ये इष्ट और अनिष्ट ऐसे दो प्रकार के हैं ।इनसे आत्मा में रागद्वेष की उत्पत्ति होती है, इसको इन्द्रिय प्रणिधान कहते हैं । स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय, प्रणिधान ऐसे पाँच भेद हैं ।116-117। क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सातथा तीनों वेद, इन सर्व के परिणामों को नोइन्द्रिय प्रणिधान कहते हैं । (मू.आ./299-300) ।
मू.आ./298 पणिधाणंपि य दुविहं पसत्थं तह अपसत्थं च । समिदीसु य गुत्तीसु य सत्थं सेसमप्पसत्थं तु ।298। = प्रणिधानके भी दो भेद हैं - शुभ और अशुभ । पाँच समिति और तीन गुप्तियों में जो परिणाम हैं वे शुभ होते हैं और शेष इन्द्रियविषयों में जो परिणाम हैं वह अशुभ हैं ।298।
रा.वा./7/33/2/557/7 दुष्ठु प्रणिधानमन्यथा वा दुःप्रणिधानम् ।2। प्रणिधानं प्रयोगः परिणाम इत्यनर्थान्तरम् । दुष्ठु पापं प्रणिधानं दुःप्रणिधानम्, अन्यथा वा प्रणिधानं दुःप्रणिधानम् । तत्र क्रोधादिपरिणामवशात् दुष्ठु प्रणिधानं शरीरावयवानाम् अनिभृतमवस्थानम्, ‘वर्णसंस्काराभावाऽर्थागमकत्वचापलादिवाग्गतम्, मनसोऽनर्पितत्वं चेत्यन्यथा प्रणिधानम् । = परिणाम, प्रयोग व प्रणिधान ये एकार्थवाची शब्द हैं । दुःप्रणिधान का अर्थ दुष्ट या पाप रूप प्रणिधान है या अन्यथा प्रणिधान को दुःप्रणिधान कहते हैं । तहां क्रोधादि कषायों के वश होकर दुष्ट प्रणिधान होता है और शरीर का विचित्र विकृति रूप से हो जाना, निरर्थक अशुद्ध वचनों का प्रयोग करना और मनका उपयोग न लगना ये अन्यथा प्रणिधान है । (और भी देखें उपयोग - II.4.1,2 तथा मनोयोग/5) ।
न्या.सू./टी./3/2/43/208/14 सुस्मूर्षया मनसो धारणं प्रणिधानं सुस्मूर्षितलिङ्गचिन्तनं चार्थ-स्मृतिकारणम् । = स्मरण की इच्छा से मन को एक स्थान में लगाने का ‘नाम’ प्रणिधान है ।