वेदांत सामान्य
From जैनकोष
- वेदान्त सामान्य
- सामान्य परिचय
स्या. मं./परि.च./438- उत्तर मीमांसा या ब्रह्ममीमांसा ही वेदांत है। वेदों के अन्तिम भाग में उपदिष्ट होने के कारण ही इसका नाम वेदान्त है। यह अद्वैतवादी है।
- इनके साधु ब्राह्मण ही होते हैं। वे चार प्रकार के होते हैं – कुटीचर, बहूदक, हंस और परमहंस।
- इनमें से कुटीचर मठ में रहते हैं, त्रिदण्डी होते हैं; शिखा व ब्रह्मसूत्र रखते हैं। गृहत्यागी होते हैं। यजमानों के अथवा कदाचित् अपने पुत्र के यहाँ भोजन करते हैं।
- बहूदक भी कुटीचर के समान हैं, परन्तु ब्राह्मणों के घर नीरस भोजन लेते हैं। विष्णु का जाप करते हैं, तथा नदी में स्नान करते हैं।
- हंस साधु ब्रह्म सूत्र व शिखा नहीं रखते। कषाय वस्त्र धारण करते हैं, दण्ड रखते हैं, गाँव में एक रात और नगर में तीन रात रहते हैं। धुँआ निकलना बन्द हो जाय तब ब्राह्मणों के घर भोजन करते हैं। तप करते हैं और देश विशेष में भ्रमण करते हैं।
- आत्मज्ञानी हो जाने पर वही हंस परमहंस कहलाते हैं। ये चारों वर्णों के घर भोजन करते हैं। शंकर के वेदान्त की तुलना Bradleyके सिद्धान्तों से की जा सकती है। इसके अन्तर्गत समय-समय पर अनेक दार्शनिक धाराएँ उत्पन्न होती रहीं जो अद्वैत का प्रतिकार करती हुई भी किन्हीं-किन्हीं बातों में दृष्टिभेद को प्र्राप्त रहीं। उनमें से कुछ के नाम ये हैं–भर्तृ प्रपञ्च वेदान्त (ई.श.7); शंकर वेदान्त या ब्रह्मद्वैत (ई.श.8); भास्कर वेदान्तः रामानुज वेदान्त या विशिष्टाद्वैत (ई.श.11); माध्ववेदान्त या द्वैतवाद (ई.श.12-13); वल्लभ वेदान्त या शुद्धाद्वैत (ई.श.15); श्रीकण्ठ वेदान्त या अविभागद्वैत (ई.श.17)।
- प्रवर्तक साहित्य व समय
स्या.मं./परि.च./438- वेदान्त का कथन महाभारत व गीतादि प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। तत्पश्चात् औडुलोमि, आश्मरथ्य, कासकृत्स्न, कार्ष्णाजिनि, बादरि, आत्रेय और जैमिनी वेदान्त दर्शन के प्रतिपालक हुए।
- वेदान्त साहित्य में बादरायण का ब्रह्मसूत्र सर्व प्रधान है। जिसका समय ई.400 है।
- तत्पश्चात् बोधायन व उपवर्य ने उनपर वृत्ति लिखी है।
- द्रविड़ाचार्य टंक व भर्तृप्रपञ्च (ई.श.7) भी टीकाकारों में प्रसिद्ध हैं।
- गौड़पाद (ई. 780) उनके शिष्य गोविन्द और उनके शिष्य शंकराचार्य हुए। इनका समय ई. 800 है। शंकराचार्य ने ईशा, केन, कठ आदि 10 उपनिषदों पर तथा भगवद्गीता व वेदान्त सूत्रों पर टीकाएँ लिखी हैं।
- मण्डन और मण्डन मिश्र भी शंकर के समकालीन थे। मण्डन ने ब्रह्म सिद्धि आदि अनेक ग्रन्थ रचे।
- शंकर के शिष्य सुरेश्वर (ई.820) थे। इन्होंने नैष्कर्म्य सिद्धि, वृहदारण्यक उपनिषद् भाष्य आदि ग्रन्थ लिखे। नैष्कर्म्य आदि के चित्सुख आदि ने टीकाएँ लिखीं।
- पद्मपाद (ई.820) शंकराचार्य के दूसरे शिष्य थे। इन्होंने पञ्चपद आदि ग्रन्थों की रचना की।
- वाचस्पति मिश्र (ई.840) ने शंकर भाष्य पर भामती और ब्रह्मसिद्धि पर तत्त्व समीक्षा लिखी।
- सूरेश्वर के शिष्य सर्वज्ञात्म मुनि (ई.900) थे, जिन्होंने संक्षेप शारीरिक नामक ग्रन्थ लिखा।
- इनके अतिरिक्त आनन्दबोध (ई.श.11-12) का न्याय मरकन्द और न्याय दीपावली, श्री हर्ष (ई.1150) का खण्डन खण्ड खाद्य, चित्सुखाचार्य (ई.1250) की चित्सुखी, विद्यारण्य (ई.1350) की पञ्चशती और जीवन्मुक्तिविवेक, मधुसूदन सरस्वती (ई.श.16 को) अद्वैत सिद्धि, अप्पय दीक्षित (ई.श.17) का सिद्धान्त लेश और सदानन्द का वेदान्त सार महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
- जैन व वेदान्त की तुलना
(जैनमत भी किसी न किसी अपेक्षा वेदान्त के सिद्धान्तों को स्वीकार करता है, संग्रह व्यवहारनय के आश्रय पर विचार करने से यह रहस्य स्पष्ट हो जाता है। जैसे–पर संग्रह नय की अपेक्षा एक सत् मात्र ही है इसके अतिरिक्त अन्य किसी चीज की सत्ता नहीं। इसी का व्यवहार करने पर वह सत्-उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप तीन शक्तियों से युक्त है, अथवा जीव व अजीव दो भेद रूप है। सत् ही वह एक है, वह सर्व व्यापक, ब्रह्म है। उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप शक्ति उसकी माया है। जीव व अजीव पुरुष व प्रकृति है। उत्पादादि त्रय से ही उसमें परिणमन या चंचलता होती है। उसी से सृष्टि की रचना होती है। इत्यादि (देखें सांख्य ) इस प्रकार दोनों में समानता है। परन्तु अनेकान्तवादी होने के कारण जैन तो इनके विपक्षी नयों को भी स्वीकार करके अद्वैत के साथ द्वैत पक्ष का भी ग्रहण कर लेते हैं। परन्तु वेदान्ती एकान्तवादी होने के कारण द्वैत का सर्वथा निरास करते हैं। इस प्रकार दोनों में भेद हैं। वेदान्तवादी संग्रहनयाभासी हैं। (देखें अनेकान्त - 2.9)।
- द्वैत व अद्वैत दर्शन का समन्वय
पं. वि./9/29 द्वैतं संसृतिरेव निश्चयवशादद्वैतमेवामृतं, संक्षेपादुभयत्र जल्पितमिदं पर्यन्तकाष्ठागतम्। निर्गत्यादिपदाच्छनैः शबलितादन्यत्समालम्बते यः सोऽसंज्ञ इति स्फुटं व्यवहते ब्रह्मादिनामेति च।29। = निश्चय से द्वैत ही संसार तथा अद्वैत ही मोक्ष है, यह दोनों के विषय में संक्षेप से कथन है, जो चरम सीमा को प्राप्त है। जो भव्य जीव धीरे-धीरे इस प्रथम (द्वैत) पद से निकलकर दूसरे अद्वैत पद का आश्रय करता है वह यद्यपि निश्चयतः वाच्य वाचक भाव का अभाव हो जाने के कारण संज्ञा (नाम) से रहित हो जाता है, फिर भी व्यवहार से वह ब्रह्मादि (पर ब्रह्म परमात्मा आदि) नाम को प्राप्त करता है।
देखें द्रव्य - 4 वस्तु स्वरूप में द्वैत व अद्वैत विधि निषेध व उसका समन्वय।
देखें उत्पाद - 2 (नित्य पक्ष का विधि निषेध व उसका समन्वय)।
- भर्तृप्रपञ्च वेदान्त
स्या. मं./परि.–च./पृ.440 भर्तृप्रपञ्च नामक आचार्य द्वारा चलाया गया। इसका अपना कोई ग्रन्थ इस समय उपलब्ध नहीं है। भर्तृप्रपञ्च वैश्वानर के उपासक थे। शंकर की भाँति ब्रह्म के पर अपर दो भेद मानते थे।
- सामान्य परिचय