साधन
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से == 1. लक्षण
1. हेतु के अर्थ में
श्लो.वा./3/1/13/श्लो.122/269 अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र साधनं। = अन्यथा अनुपपत्ति ही एक जिसका लक्षण है, वह साधन है। (सि.वि./वृ./5/22/359/7); (और भी देखें हेतु - 1.1)।
न्या.दी./3/19/69 निश्चितसाध्यान्यथानुपपत्तिकं साधनम् । यस्य साध्याभावासंभवनियमरूपा व्याप्त्यविनाभावाद्यपरपर्याया साध्यान्यथानुपपत्तिस्तर्काख्येन प्रमाणेन निर्णीता तत्साधनमित्यर्थ:। तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकै:-अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिङ्गमङ्गयते [वादन्याय] इति। = जिसकी साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति निश्चित है उसे साधन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिसकी साध्य के अभाव में नहीं होने रूप व्याप्ति, अविनाभाव आदि नामों वाली साध्यानुपपत्ति-साध्य के होने पर ही होना और साध्य के अभाव में नहीं होना-तर्क नाम के प्रमाण द्वारा निर्णीत है वह साधन है। श्री कुमारनन्दि भट्टारक ने भी कहा है - अन्यथानुपपत्तिमात्र जिसका लक्षण है उसे लिंग कहा गया है। - (और भी देखें हेतु - 1.1)।
2. चारित्र के अर्थ में
भ.आ./वि./2/14/21 उपयोगान्तरेणान्तर्हितानां दर्शनादिपरिणामानां निष्पादनं साधनं।=अन्य कार्य के प्रति ज्ञानोपयोग लगने से तिरोहित हुए दर्शनादिपरिणामों को उत्पन्न करना, अर्थात् नित्य व नैमित्तिक कार्य करने में चित्त लगने से तिरोहित हुए सम्यग्दर्शनादिकों में से, किसी एक को पुन: उपायों के प्रयोग से सम्पूर्ण करना साधन कहलाता है।
देखें श्रावक - 1.3.4 [मरण समय आहार व मन वचन काय के व्यापार का त्याग करके आत्मशुद्धि करना साधन है। उसको करने वाला श्रावक साधक श्रावक कहलाता है।]
* अन्य सम्बन्धित विषय
- कारण के अर्थ में साधन-देखें करण - I.1.1।
- साधन साध्य संबन्ध-देखें संबन्ध ।
- निश्चय व्यवहार में साध्य साधन भाव-देखें सम्यग्दर्शन आदि वह वह नाम ।
पुराणकोष से
हिंसा आदि दोषों की शुद्धि के श्रावकाचार के तीन अंगों में तीसरा अंग-आयु के अन्त में शरीर, आहार और अन्य व्यापारों का परित्याग कर ध्यानशुद्धि से आत्मशोधन करना । महापुराण 39. 143-145, 149