सूक्ष्म सांपराय
From जैनकोष
1. सूक्ष्म साम्पराय चारित्र का लक्षण
स.सि./9/18/436/9 अतिसूक्ष्मकषायत्वात्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रम् । = जिस चारित्र में कषाय अति सूक्ष्म हो वह सूक्ष्म साम्पराय चारित्र है। (रा.वा./9/18/9/617/21); (ध.1/1,1,123/371/3); (गो.जी./जी.प्र./547/714/7)।
पं.सं./प्रा./1/132 अणुलोहं वेयंतो जीओ उवसामगो व खवगो वा। सो सुहूमसंपराओ जहखाएणूणओ किंचि।132। = मोहकर्म का उपशमन या क्षपण करते हुए सूक्ष्म लोभ का वेदन करना सूक्ष्मसाम्पराय संयम है, और उसका धारक सूक्ष्मसाम्पराय संयत कहलाता है। यह संयम यथाख्यात संयम से कुछ ही कम होता है। (ध.1/1,1,123/गा.190/373); (गो.जी./मू./474/882); (त.सा./6/48)
रा.वा./9/18/9/617/21 सूक्ष्मस्थूलसत्त्ववधपरिहाराप्रमत्तत्वात् अनुपहतोत्साहस्य अखण्डितक्रियाविशेषस्य ...कषायविषाङ्कुरस्य अपचयाभिमुखालीनस्तोकमोहबीजस्य तत एव परिप्राप्तन्वर्थसूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतस्य सूक्ष्मसाम्परायचारित्रमाख्यायते। = सूक्ष्म-स्थूल प्राणियों के वध के परिहार में जो पूरी तरह अप्रमत्त है, अत्यन्त निर्बाध उत्साहशील, अखण्डितचारित्र...जिसने कषाय के विषांकुरों को खोंट दिया है, सूक्ष्म मोहनीय कर्म के बीज को भी जिसने नाश के मुख में ढकेल दिया है, उस परम सूक्ष्म लोभ वाले साधु के सूक्ष्म साम्पराय चारित्र होता है। (चा.सा./84/2)।
यो.सा.यो./103 सुहुमहें लोहहें जो बिलउ जो सुहुम वि परिणामु। सो सुहुम वि चारित्त मुणि सो सासय-सुह-धामु। = सूक्ष्म लोभ का नाश होने से जो सूक्ष्मपरिणामों का शेष रह जाना है, वह सूक्ष्म चारित्र है, वह शाश्वत सुख का स्थान है।
द्र.सं./टी./35/148/4 सूक्ष्मातीन्द्रियनिजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन सूक्ष्मलोभाभिधानसाम्परायस्य कषायस्य यत्र निरवशेषोपशमनं क्षपणं वा तत्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रमिति। = सूक्ष्म अतीन्द्रिय निजशुद्धात्मा के बल से सूक्ष्म लोभ नामक साम्पराय कषाय का पूर्ण रूप से उपशमन वा क्षपण सो सूक्ष्म साम्पराय चारित्र है।
2. सूक्ष्म साम्पराय चारित्र का स्वामित्व
ष.खं.1/1,1/सू.127/376 सुहुम-सांपराइयसुद्धिसंजदा एक्कम्मि चेव सुहुम-सांपराइय सुद्धिसंजदट्ठाणे।127। = सूक्ष्म साम्पराय शुद्धि संयत जीव एक सूक्ष्म-साम्पराय-शुद्धि-संयत गुणस्थान में ही होते हैं।127। (गो.जी./मू./467); (गो.जी./जी.प्र./704/140/11); (द्र.सं./35/148)
3. जघन्य उत्कृष्ट स्थानों का स्वामित्व
ष.खं.7/2,11/सू.172-173 व टी./568 सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमस्स जहण्णिया चरित्तलद्धी...।172। उवसमसेडीदो ओयरमाण चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स। ‘तस्सेव उक्कसिया चरित्तलद्धो...।173। चरिमसमयसुहुमसांपराइयखवगस्स। = सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धि संयम की जघन्य चरित्र लब्धि...।172। ‘उपशम श्रेणी से उतरने वाले अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक के होती है। ‘उसी ही सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धि संयम की उत्कृष्ट चारित्र लब्धि...।173।’-अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिक क्षपक के होती है।
4. सूक्ष्म साम्पराय चारित्र व गुप्ति समिति में अन्तर
रा.वा./9/18/10/617/26 स्यान्मतम्-गुप्तिसमित्योरन्यतरत्रान्तर्भवतीदं चारित्रं प्रवृत्तिनिरोधात् सम्यगयनाच्चेति; तन्न; किं कारणम् । तद्भावेऽपि गुणविशेषनिमित्ताश्रयणात् । लोभसंज्वलनाख्य: साम्पराय: सूक्ष्मो भवतीत्ययं विशेष आश्रित:। = प्रश्न-यह चारित्र प्रवृत्ति निरोध या सम्यक् प्रवृत्ति रूप होने से गुप्ति और समिति में अन्तर्भूत होता है ? उत्तर-ऐसा नहीं है क्योंकि यह उनसे आगे बढ़कर है। यह दसवें गुणस्थान में, जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ टिमटिमाता है, होता है, अत: यह पृथक् रूप से निर्दिष्ट है।
5. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/22-23 कोसुंभोजिह राओ अब्भंतरदो य सुहुमरत्तो य। एवं सुहुमसराओ सुहुमकसाओ त्ति णायव्वो।22। पुव्वापुव्वप्फड्डयअणुभागाओ अणंतगुणहीणे। लोहाणुम्मि य ट्ठिअओ हंदि सुहुमसंपराओ य।23। = जिस प्रकार कुसूमली रंग भीतर से सूक्ष्म रक्त अर्थात् अत्यन्त कम लालिमा वाला होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म राग सहित जीव को सूक्ष्मकषाय वा सूक्ष्म साम्पराय जानना चाहिए।22। लोभाणु अर्थात् सूक्ष्म लोभ में स्थित सूक्ष्मसाम्परायसंयत की कषाय पूर्वस्पर्धक और अपूर्व स्पर्धक के अनुभाग शक्ति से अनन्तगुणी हीन होती है।23। (गो.जी./मू./58-59); (ध.2/1,1,18/गा.121/188)।
रा.वा./9/1/21/590/17 साम्पराय: कषाय:, स यत्र सूक्ष्मभावेनोपशान्तिं क्षयं च आपद्यते तौ सूक्ष्मसाम्परायौ वेदितव्यौ। =साम्पराय-कषायों को सूक्ष्म रूप से भी उपशम या क्षय करने वाला सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक क्षपक है।
ध.1/1,1,18/187/3 सूक्ष्मश्चासौ साम्परायश्च सूक्ष्मसाम्पराय:। तं प्रविष्टा शुद्धिर्येषां संयतानां ते सूक्ष्मसाम्परायप्रविष्टशुद्धिसंयता।
ध.1/1,1,27/2/14/3 तदो णंतर-समए सुहुमकिट्ठिसरूवं लोभं वेदंतो णट्ठअणियट्ठि-सण्णो सुहुमसांपराइओ होदि। =सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्म साम्पराय कहते हैं उनमें जिन संयतों की शुद्धि ने प्रवेश किया है उन्हें सूक्ष्म-साम्पराय-प्रविष्ट-शुद्धि संयत कहते हैं। 2. इसके अनन्तर समय में जो सूक्ष्म कृष्टि गत लोभ का अनुभव करता है और जिसने अनिवृत्तिकरण इस संज्ञा को नष्ट कर दिया है, ऐसा जीव सूक्ष्म साम्पराय संयम वाला होता है।
द्र.सं./टी./13/35/5 सूक्ष्मपरमात्मतत्त्वभावनाबलेन सूक्ष्मकृष्टिगतलोभकषायस्योपशमका: क्षपकाश्च दशमगुणस्थानवर्तिनो भवन्ति। =सूक्ष्म परमात्म तत्त्व भावना के बल से जो सूक्ष्म कृष्टिरूप लोभ कषाय के उपशमक और क्षपक हैं, वे दशम गुणस्थानवर्ती हैं।
* अन्य सम्बन्धित विषय
- सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान के स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ।-देखें वह वह नाम ।
- इस गुणस्थान सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्प-बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।-देखें वह वह नाम ।
- इस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय, व सत्त्व प्ररूपणाएँ।-देखें वह वह नाम ।
- सभी गुणस्थानों व मार्गणास्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।-देखें मार्गणा ।
- इस गुणस्थान में कषाय योग के सद्भाव सम्बन्धी।-देखें वह वह नाम ।
- इस गुणस्थान में औपशमिक व क्षायिक भाव सम्बन्धी।-देखें अनिवृत्तिकरण ।
- सूक्ष्म कृष्टिकरण सम्बन्धी।-देखें कृष्टि ।
- उपशम व क्षपक श्रेणी।-देखें श्रेणी ।
- पुन: पुन: यह गुणस्थान पाने की सीमा।-देखें संयम - 2।
- सूक्ष्मसाम्पराय व छेदोपस्थापना में भेदाभेद।-देखें छेदोपस्थापना - 4।