हेतु
From जैनकोष
अनुमान प्रमाण के अंगों में हेतु का सर्व प्रधान स्थान है, क्योंकि इसके बिना केवल विज्ञप्ति व उदाहरण आदि से साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती। अन्य दर्शनकारों ने इस हेतु के तीन लक्षण किये हैं, पर स्याद्वादमतावलम्बियों को ‘अन्यथा अनुपपत्ति’ रूप एक लक्षण ही इष्ट व पर्याप्त है। इस लक्षण की विपरीत आदि रूप से वृत्ति होने पर वे हेतु स्वयं हेत्वाभास बन जाते हैं।
<img height="547" src="image/hetu_image.png" width="1048" />
- भेद व लक्षण
- हेतु सामान्य का लक्षण
- अविनाभावी के अर्थ में
ध.13/5,5,50/287/3 हेतु: साध्याविनाभावि लिङ्गं अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणोपलक्षित:। =जो लिंग अन्यथानुपपत्तिरूप लक्षण से उपलक्षित होकर साध्य का अविनाभावी होता है, उसे हेतु कहते हैं।
प.मु./3/15 साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।15। =जो साध्य के साथ अविनाभाविपने से निश्चित हो अर्थात् साध्य के बिना न रहे, उसको हेतु कहते हैं।
न्या.दी./3/31/76/5 साध्याविनाभावि साधनवचनं हेतु:। यथाधूमवत्त्वान्यथानुपपत्ते: इति-तथैव धूमवत्त्वोपपत्ते: इति वा।
न्या.दी./3/46/90/15 साध्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति निश्चयपथप्राप्तत्वं खलु हेतोर्लक्षणम् ।=1. साध्य के अविनाभावी साधन के बोलने को हेतु कहते हैं। जैसे-धूमवाला अन्यथा नहीं हो सकता, अथवा अग्नि के होने से ही धूमवाला है। 2. साध्य के होने पर ही होता है अन्यथा साध्य के बिना नहीं होता तथा निश्चय पथ को प्राप्त है अर्थात् जिसका निश्चय हो चुका है वह हेतु है। (और भी देखें साधन )।
न्या.सू./मू./1/1/34-35 उदाहरणसाधर्स्यात्साध्यसाधनं हेतु:।34। तथा वैधर्म्यात् ।35। =उदाहरण की समानता के साध्य के धर्म के साधन को हेतु कहते हैं।34। अथवा उदाहरण के विपरीत धर्म से जो साध्य का साधक है उसे भी हेतु कहते हैं। (न्या.सू./भाष्य/1/1/39/38/11)।
- स्वपक्षसाधकत्व के अर्थ में
ध.13/5,5,50/287/4 तत्र स्वपक्षसिद्धये प्रयुक्त: साधनहेतु:। =स्वपक्ष की सिद्धि के लिए प्रयुक्त हुआ हेतु साधन हेतु है। (स.मं.तं./90/3)।
- फल के अर्थ में
पं.का./ता.वृ./1/6/18 हेतु: फलं, हेतुशब्देन फलं कथं भण्यत इति चेत् । फलकारणात्फलमुपचारात् । =फल को हेतु कहते हैं। प्रश्न-हेतु शब्द से फल कैसे कहा जाता है ? उत्तर-फल का कारण होने से उपचार से इसको फल कहा।
- साधन का लक्षण - देखें साधन ।
- साध्य का लक्षण - देखें पक्ष ।
- कारण के अर्थ में हेतु - देखें कारण - I.1.2।
- अविनाभावी के अर्थ में
- हेतु के भेद
- प्रत्यक्ष परोक्षादि
ति.प./1/35-36 दुविहो हवेदि हेदू...। पच्चक्खपरोक्खभेएहिं।35। सक्खापच्चक्खा परं पच्चक्खा दोण्णि होदि पच्चक्खा।...।36। =हेतु प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार है।5। प्रत्यक्ष हेतु साक्षात् प्रत्यक्ष और परम्परा प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार है।36। (ध.1/1,1,1/55/10)।
देखें कारण - I.1.2 [हेतु दो प्रकार है-अभ्यन्तर व बाह्य। बाह्य हेतु भी दो प्रकार का है-आत्मभूत, अनात्मभूत।
- अन्वय व्यतिरेकी आदि
प.मु./3/57-86।
न्या.दी./3/42-58/88-99।
- नैयायिक मान्य भेद
न्या.दी./3/42/88/12 ते मन्यन्ते त्रिविधो हेतु:-अन्वय-व्यतिरेकी, केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी चेति। =नैयायिकों ने हेतु के तीन भेद माने हैं-अन्वयव्यतिरेकी, केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी।
- प्रत्यक्ष परोक्षादि
- असाधारण हेतु का लक्षण
श्लो.वा./3/1/10/33/55/23 यदात्मा तत्र व्याप्रियते तदैव तत्कारणं नान्यदा इत्यसाधारणो हेतु:। =नित्य भी आत्मा जिस समय उस प्रमिति को उत्पन्न करने में व्यापार कर रहा है तब ही उस प्रमाका कारण है। इस प्रकार आत्मा असाधारण हेतु है।
- उपलब्धि रूप हेतु सामान्य व विशेष के लक्षण
प.मु./3/65-77 परिणामी शब्द: कृतकत्वात्, य एवं, स एवं दृष्टो, यथा घट:, कृतकश्चायं, तस्मात्परिणामी, यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा बन्ध्यास्तनंधय:, कृतकश्चायं तस्मात्परिणामी।65। अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिर्व्याहारादे:।66। अस्त्यत्र छाया छत्रात् ।67। उदेष्यति शकटं कृतिकोदयात् ।68। उदगाद्भरणि: प्राक्तत एव।69। अस्त्यत्र मातुलिङ्गे रूपं रसात् ।70। नास्त्यत्र शीलस्पर्श औष्ण्यात् ।72। नास्त्यत्र शीतस्पर्शो धूमात् ।73। नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ।74। नोदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं रेवत्युदयात् ।75। नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्पूर्वं पुष्योदयात् ।76। नास्त्यत्र भित्तौ परभागाभावोऽर्वाग्भागदर्शनात् ।77।
विधिरूप
- शब्द परिणामी है क्योंकि वह किया हुआ है, जो-जो पदार्थ किया हुआ होता है वह-वह परिणामी होता है जैसे-घट। शब्द किया हुआ है इसलिए परिणामी है, जो परिणामी नहीं होता वह-वह किया हुआ भी नहीं होता जैसे-बाँझ का पुत्र। यह शब्द किया हुआ है, इसलिए वह परिणामी है।65।
- इस प्राणी में बुद्धि है, क्योंकि यह चलता आदि है।66।
- यहाँ छाया है क्योंकि छाया का कारण छत्र मौजूद है।67।
- मुहूर्त के पश्चात् शकट (रोहिणी) का उदय होगा क्योंकि इस समय कृत्तिका का उदय है।68।
- भरणी का उदय हो चुका क्योंकि इस समय कृत्तिका का उदय है।69।
- इस मातुलिंग (पपीता) में रूप है क्योंकि इसमें रस पाया जाता है।70।
प्रतिषेध रूप
- इस स्थान पर शीतस्पर्श नहीं है क्योंकि उष्णता मौजूद है।72।
- यहाँ शीतस्पर्श नहीं है क्योंकि शीतस्पर्श रूप साध्य से विरुद्ध अग्नि का कार्य यहाँ धुँआ मौजूद है।73। (प.मु./3/93)
- इस प्राणी में सुख नहीं, क्योंकि सुख से विरुद्ध दु:ख का कारण इसके मानसिक व्यथा मालूम होती है।74।
- एक मुहूर्त के बाद रोहिणी का उदय न होगा, क्योंकि इस समय रोहिणी से विरुद्ध अश्विनी नक्षत्र से पहले उदय होने वाली रेवती नक्षत्र का उदय है।75।
- मुहूर्त के पहले भरणी का उदय नहीं हुआ क्योंकि इस समय भरणी से विरुद्ध पुनर्वसु के पीछे होने वाले पुष्य का उदय है।76।
- इस भित्ति में उस ओर के भाग का अभाव नहीं है क्योंकि उस ओर के भाग के साथ इस ओर का भाग साफ दीख रहा है।
न्या.दी./3/52-59/55-59/9 यथा-पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वान्यानुपपत्ते: इत्यत्र धूम:। धूमो ह्यग्ने: कार्यभूतस्तदभावेऽनुपपद्यमानोऽग्निं गमयति। कश्चित्कारणरूप:, यथा-‘वृष्टिर्भविष्यति विशिष्टमेघान्यथानुपपत्ते:’ इत्यत्र मेघविशेष:। मेघविशेषो हि वर्षस्य कारणं स्वकार्यभूतं वर्षं गमयति।52। कश्चिद्विशेषरूप:, यथा-वृक्षोऽयं शिंशपात्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्र [शिंशपा] शिंशपा हि वृक्षविशेष: सामान्यभूतं वृक्षं गमयति। न हि वृक्षाभावे वृक्षविशेषो घटत इति। कश्चित्पूर्वचर:, यथा-उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयान्यथानुपपत्तेरित्यत्र कृत्तिकोदय:। कृत्तिकोदयानन्तरं मुहूर्त्तान्ते नियमेन शकटोदयो जायत इति कृतिकोदय: पूर्वचरो हेतु: शकटोदयं गमयति। कश्चिदुत्तरचर:, यथा-उद्ग्गद्भरणि: प्राक्कृत्तिकोदयादित्यत्र कृत्तिकोदय:। कृत्तिकोदयो हि भरण्युदयोत्तरचरस्तं गमयति। कश्चित्सहचर:, यथा मातुलिङ्गरूपवद्भवितुमर्हति रसवत्त्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्र रस:। रसो हि नियमेन रूपसहचरितस्तदभावेऽनुपपद्यमानस्तद्गमयति।54। स यथा-नास्य मिथ्यात्वम्, आस्तिक्यान्यथोपपत्तेरित्यत्रास्तिक्यम् । आस्तिक्यं हि सर्वज्ञवीतरागप्रणीतजीवादितत्त्वार्थरुचिलक्षणम् । तन्मिथ्यात्ववतो न संभवतीति मिथ्यात्वाभावं साधयति।56। अस्त्यत्र प्राणिनि सम्यक्त्वं विपरीताभिनिवेशाभावात् । अत्र विपरीताभिनिवेशाभाव: प्रतिषेधरूप: सम्यक्त्वसद्भावं साधयतीति प्रतिषेधरूपो विधिसाधको हेतु:।58। नास्त्यत्र घूमोऽग्न्यनुपलब्धेरित्यत्राग्न्यभाव: प्रतिषेध रूपो घूमाभावं प्रतिषेधरूपमेव साधयतीति प्रतिषेधरूप: प्रतिषेधसाधको हेतु:।
विधिसाधक
- कोई कार्यरूप है जैसे यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि धूमवाला अन्यथा नहीं हो सकता ‘यहाँ धूम’ कार्यरूप हेतु है। कारण धूम अग्नि का कार्य है, और उसके बिना न होता हुआ अग्नि का ज्ञान कराता है।
- कोई कारण रूप है जैसे-‘वर्षा होगी, क्योंकि विशेष बादल अन्यथा नहीं हो सकते, यहाँ ‘विशेष बादल’ कारण हेतु है। क्योंकि विशेष बादल वर्षा के कारण हैं और वे अपने कार्यभूत वर्षा का बोध कराते हैं।52।
- कोई विशेष रूप हैं। जैसे-‘यह वृक्ष है’, क्योंकि शिंशपा अन्यथा नहीं हो सकती; यहाँ ‘शिंशपा’ विशेष रूप हेतु है। क्योंकि शिंशपा वृक्षविशेष है, वह अपने सामान्य के बिना नहीं हो सकता है।
- कोई पूर्वचर है, जैसे-‘एक मुहूर्त के बाद शकट का उदय होगा; क्योंकि कृत्तिका का उदय अन्यथा नहीं हो सकता। यहाँ ‘कृत्तिका का उदय’ पूर्वचर हेतु है; क्योंकि कृत्तिका के उदय के बाद मुहूर्त के अन्त में नियम से शकट का उदय होता है। और इसलिए कृत्तिका का उदय पूर्वचर हेतु होता हुआ शकट के उदय को जनाता है।
- कोई उत्तरचर है, जैसे-एक मुहूर्त के पहले भरणी का उदय हो चुका है। क्योंकि इस समय कृत्तिका का उदय अन्यथा नहीं हो सकता’ यहाँ कृत्तिका का उदय उत्तरचर हेतु है। कारण, कृत्तिका का उदय भरणी के उदय के बाद होता है और इसलिए वह उसका उत्तरचर होता हुआ उसको जानता है।
- कोई सहचर है, जैसे-‘मातुलिंग (पपीता) रूपवान होना चाहिए, क्योंकि रसवान् अन्यथा नहीं हो सकता’, यहाँ ‘रस’ सहचर हेतु है। कारण रस, नियम से रूप का सहचारी है और इसलिए वह उसके अभाव में नहीं होता हुआ उसका ज्ञापन कराता है।54।
निषेध साधक
- सामान्य-इस जीव के मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि आस्तिकता अन्यथा नहीं हो सकती। यहाँ आस्तिकता निषेध साधक है, क्योंकि आस्तिकता सर्वज्ञ वीतराग के द्वारा प्रतिपादित तत्त्वार्थों का श्रद्धान रूप है, वह श्रद्धान मिथ्यात्व वाले जीव के नहीं हो सकता, इसलिए वह विवक्षित जीव में मिथ्यात्व के अभाव को सिद्ध करता है।56।
- विधिसाधक-इस जीव में सम्यक्त्व है, क्योंकि मिथ्या अभिनिवेश नहीं है। यहाँ ‘मिथ्या अभिनिवेश नहीं है’ यह प्रतिषेध रूप है और वह सम्यग्दर्शन के सद्भाव को साधता है, इसलिए वह प्रतिषेध रूप विधि साधक हेतु है।
- प्रतिषेध साधक-‘यहाँ धुँआ नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है ‘यहाँ अग्नि का अभाव’ स्वयं प्रतिषेध रूप है और वह प्रतिषेधरूप ही धूम के अभाव को सिद्ध करता है, इसलिए ‘अग्नि का अभाव’ प्रतिषेध रूप प्रतिषेध साधक हेतु है।
- अनुपलब्धि रूप हेतु सामान्य व विशेष के लक्षण
प.मु./3/79-89 नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धे:।79। नास्यत्यत्र शिंशपावृक्षानुपलब्धे:।80। नास्त्यत्र प्रतिबद्धसामर्थ्योऽग्निर्धूमानुपलब्धे:।81। नास्त्यत्र धूमोऽनग्ने:।82। न भविष्यति मुहूर्तान्ते शकटं कृत्तिकोदयानुपलब्धे:।83। नोदगाद्भरणिर्मुहूर्तात्प्राक्तत एव।84। नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धे:।85। यथास्मिन् प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धे:।87। अस्त्यत्र देहिनि दु:खमिष्टसंयोगाभावात् ।88। अनेकान्तात्मकं वस्त्वेकान्तस्वरूपानुपलब्धे:।89।
विधिरूप
- इस भूतल पर घड़ा नहीं है क्योंकि उसका स्वरूप नहीं दीखता।79।
- यहाँ शिंशपा नहीं क्योंकि कोई किसी प्रकार का यहाँ वृक्ष नहीं दीखता।80।
- यहाँ पर जिसकी सामर्थ्य किसी द्वारा रुकी नहीं ऐसी अग्नि नहीं है, क्योंकि यहाँ उसके अनुकूल धुआँ रूप कार्य नहीं दीखता है।81।
- यहाँ धुआँ नहीं पाया जाता क्योंकि उसके अनुकूल अग्नि रूप कारण यहाँ नहीं है।82।
- एक मुहूर्त के बाद रोहिणी का उदय न होगा, क्योंकि इस समय कृत्तिका का उदय नहीं हुआ।83।
- मुहूर्त के पहले भरणी का उदय नहीं हुआ है क्योंकि इस समय कृत्तिका का उदय नहीं पाया जाता।84।
- इस बराबर पलड़े वाली तराजू में (एक पल्ले में) ऊँचापन नहीं क्योंकि दूसरे पल्ले में नीचापन नहीं पाया जाता है।85।
प्रतिषेध रूप
- जैसे इस प्राणी में कोई रोग विशेष है क्योंकि इसकी चेष्टा नीरोग मालूम नहीं पड़ती।87।
- यह प्राणी दु:खी है क्योंकि इसके पिता माता आदि प्रियजनों का सम्बन्ध छूट गया है।88।
- हरएक पदार्थ नित्य, अनित्य आदि अनेक धर्मवाला है क्योंकि केवल नित्यत्व आदि एक धर्म का अभाव है।89।
- अन्वय व्यतिरेकी आदि हेतुओं के लक्षण
न्या.दी./3/42-44/89-90/1 तत्र पञ्चरूपोपपन्नोऽन्वयव्यतिरेकी। यथा-‘शब्दोऽनित्यो भवितुमर्हति कृतकत्वात्, यद्यत्कृतकंतत्तदनित्यं यथा घट:, यद्यदनित्यं न भवति तत्तत्कृतकं न भवति यथाकाशम्, तथा चायं कृतक:, तस्मादनित्य एवेति।’ अत्र शब्दं पक्षीकृत्यानित्यत्वं साध्यते। तत्र कृतकत्वं हेतुस्तस्य पक्षीकृतशब्दधर्मत्वात्पक्षधर्मत्वमस्ति। सपक्षे घटादौ वर्तमानत्वाद्विपक्षे गगनादाववर्तमानत्वादन्वयव्यतिरेकित्वम् ।42। पक्षसपक्षवृत्तिर्विपक्षरहित: केवलान्वयी। यथा-‘अदृष्टादय: कस्यचित्प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात्, यद्यदनुमेयं तत्तत्कस्यचित्प्रत्यक्षम्, यथाग्न्यादि’ इति। अत्रादृष्टादय: पक्ष:, कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं साध्यम्, अनुमेयत्वं हेतु:, अग्न्याद्यन्वयदृष्टान्त:।43। पक्षवृत्तिर्विपक्षव्यावृत्त: सपक्षरहितो हेतु:, केवलव्यतिरेकी। यथा-‘जीवच्छरीरं सात्मकं भवितुमर्हति प्राणादिमत्त्वात् यद्यत्सात्मकं न भवति तत्तत्प्राणादिमन्न भवति यथा लोष्ठम्’ इति। अत्र जीवच्छरीरं पक्ष:, सात्मकत्वं साध्यम्, प्राणादिमत्त्वं हेतु: लोष्ठादिर्व्यतिरेकदृष्टान्त:।44।
- जो पाँच रूपों से सहित है वह अन्वयव्यतिरेकी है। जैसे-शब्द अनित्य है क्योंकि कृतक है, जो-जो किया जाता है वह-वह अनित्य है जैसे घड़ा, जो-जो अनित्य नहीं होता वह-वह किया नहीं जाता जैसे-आकाश। शब्द किया जाता है, इसलिए अनित्य ही है। यह शब्द का पक्ष करके उसमें अनित्यता सिद्ध की जा रही है, उस अनित्यता के सिद्ध करने में ‘किया जाना’ हेतु है वह पक्षभूत शब्द का धर्म है। अत: उसके पक्षधर्मत्व है। सपक्ष घटादि में रहने और विपक्ष आकाशादिक में न रहने से सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति भी है, हेतु का विषय ‘अनित्यत्व रूप साध्य’ किसी प्रमाण से बाधित न होने से अबाधित विषयत्व और प्रतिपक्ष साधन न होने से असत्प्रतिपक्ष भी विद्यमान है। इस तरह किया जाना हेतु पाँच रूपों से विशिष्ट होने के कारण अन्वयव्यतिरेकी है।42।
- जो पक्ष और सपक्ष में रहता है तथा विपक्ष से रहित है वह केवलान्वयी है। जैसे-अदृष्ट (पुण्य-पाप) आदिक किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं। जो-जो अनुमान से जाने जाते हैं वह वह किसी के प्रत्यक्ष हैं जैसे अग्नि आदि। यहाँ ‘अदृष्ट आदिक’ पक्ष है, ‘किसी के प्रत्यक्ष’ साध्य है परन्तु अनुमान से जाना हेतु है और अग्नि आदि अन्वय दृष्टान्त है।43।
- जो पक्ष में रहता है, विपक्ष में नहीं रहता और सपक्ष से रहित है वह हेतु केवलव्यतिरेकी है। जैसे-जिन्दा शरीर जीव सहित होना चाहिए, क्योंकि वह प्राणादि वाला है जो-जो जीव सहित नहीं होता है वह-वह प्राणादि वाला नहीं होता है जैसे लोष्ठ। यहाँ जिन्दा शरीर पक्ष है, जीव सहितत्व साध्य है, ‘प्राणादिक’ हेतु है और लोष्ठादिक व्यतिरेकी दृष्टान्त है।
- अतिशायन हेतु का लक्षण
आप्त मी./1/4 दोषावरणयोर्हानिर्नि:शेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तरमलक्षय:।4। =क्वचित् अपने योग्य ताप आदि निमित्तों को पाकर जैसे सुवर्ण की कालिमा आदि नष्ट हो जाती है उसी प्रकार जीव में भी कथंचित् कदाचित् सम्पूर्ण अन्तरंग व बाह्य मलों का अभाव सम्भव है, ऐसा अतिशायन हेतु से सिद्ध है।
- हेतुवाद व हेतुमत् का लक्षण
ध.13/5,5,50/287/5 हिनोति गमयति परिच्छिनत्त्यर्थमात्मानं चेति प्रमाणपञ्चकं वा हेतु:। स उच्यते कथ्यते अनेनेति हेतुवाद: श्रुतज्ञानम् । =जो अर्थ और आत्मा का ‘हिनोति’ अर्थात् ज्ञान कराता है उस प्रमाण पंचक को हेतु कहा जाता है। उक्त हेतु जिसके द्वारा ‘उच्यते’ अर्थात् कहा जाता है वह श्रुतज्ञान हेतुवाद कहलाता है।
सू.पा./पं.जयचन्द/6/54 जहाँ प्रमाण नय करि वस्तु की निर्बाध सिद्धि जामे करि मानिये सो हेतुमत् है।
- हेतु सामान्य का लक्षण
- हेतु निर्देश
- अन्यथानुपपत्ति ही एक हेतु पर्याप्त है
सि.वि./मू./5/23/361 सतर्केणाह्यते रूपं प्रत्यक्षस्येतरस्य वा। अन्यथानुपपन्नत्व हेतोरेकलक्षणम् ।23।
सि.वि./टी./5/15/345/21 विपक्षे हेतुसद्भावबाधकप्रमाणव्यावृत्तौ हेतुसामर्थ्यमन्यथानुपपत्तेरेव। =प्रत्यक्ष या आगमादि अन्य प्रमाणों के द्वारा ग्रहण किया गया साधन अन्यथा हो नहीं सकता, इस प्रकार ऊहापोह रूप ही हेतु का लक्षण है।23। प्रश्न-विपक्ष में हेतु के सद्भाव के बाधक प्रमाण की व्यावृत्ति हो जाने पर हेतु की अपनी कौन सी शक्ति है जिससे कि साध्य की सिद्धि हो सके। उत्तर-यह साधन अन्यथा हो नहीं सकता, इस प्रकार की अन्यथानुपपत्ति की ही सामर्थ्य है।
न्या.वि./मू./2/154/177 अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ? नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ?।154। =अन्यथा अनुपपन्नत्व के घटित हो जाने पर हेतु के अन्य तीन लक्षण से क्या प्रयोजन और अन्यथानुपपन्नत्व के घटित न होने पर भी उन तीन लक्षणों से क्या प्रयोजन है।177।
प.मु./3/94,97 व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्यान्यथानुपपत्त्यैव वा।94। तावता च साध्यसिद्ध:।97। =व्युत्पन्न पुरुष के लिए तो अन्यथा अनुपपत्ति रूप हेतु का प्रयोग ही पर्याप्त है।94। वे लोग तो उदाहरण आदि के प्रयोग के बिना ही हेतु के प्रयोग से ही व्याप्ति का निश्चय कर लेते हैं।97।
- अन्यथानुपपत्ति से रहित सब हेत्वाभास है
न्या.वि./मू./2/202/232 अन्यथानुपपन्नत्वरहिता ये त्रिलक्षणा:। अकिंचित्करान् सर्वान् तान् वयं संगिरामहे।202। =अन्यथा अनुपपन्नत्व से शून्य जो हेतु के तीन लक्षण किये गये हैं वे सब अकिंचित्कर हैं। उन सबको हम हेत्वाभास कहते हैं।202। (न्या.वि./मू./2/174/210)
- हेतु स्वपक्ष साधक व परपक्ष दूषक होना चाहिए
प.मु./6/73 प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भाषितौ परिहृतापरिहृतदोषौ वादिन: साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषण भूषणे च।73। =प्रथमवादी के द्वारा प्रयुक्त प्रमाण को प्रतिवादी द्वारा दुष्ट बना दिया जाने पर, यदि वादी उस दूषण को हटा देता है तो वह प्रमाण वादी के लिए साधन और प्रतिवादी के लिए दूषण है। यदि वादी साधनाभास को प्रयोग करे, और पीछे प्रतिवादी द्वारा दिये दूषण को हटा न सके तो वह प्रमाण वादी के लिए दूषण और प्रतिवादी के लिए भूषण है। यही स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण की व्यवस्था है।
स.भं.त./90/3 हेतु: स्वपक्षस्य साधक: परपक्षस्य दूषकश्च। =हेतु स्वपक्ष का साधक और परपक्ष का दूषक होना चाहिए।
- हेतु देने का कारण व प्रयोजन
प.मु./अन्तिम श्लोक परीक्षामुखमादशं हेयोपादेयतत्त्वयो:। संविदे मादृशो बाल: परीक्षादक्षवद्व्यधाम् ।1। =परीक्षा प्रवीण मनुष्य की तरह मुझ बालक ने हेय उपादेय तत्त्वों को अपने सरीखे बालकों को उत्तम रीति से समझाने के लिए दर्पण के समान इस परीक्षामुख ग्रन्थ की रचना की है।
स.भं.त./90/2 स्वेष्टार्थसिद्धिमिच्छता प्रवादिना हेतु: प्रयोक्तव्य:, प्रतिज्ञामात्रेणार्थसिद्धेरभावात् । =अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि चाहने वाले प्रौढ वादी को हेतु का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। क्योंकि केवल प्रतिज्ञा मात्र से अभिलषित अर्थ की सिद्धि नहीं होती।
- जय-पराजय व्यवस्था। - देखें न्याय - 2।
- अन्यथानुपपत्ति ही एक हेतु पर्याप्त है
- हेत्वाभास निर्देश
- हेत्वाभास सामान्य का लक्षण
न्या.वि./मू./2/174/210 अन्यथानुपपन्नत्वरहिता ये विडम्बिता:।174। हेतुत्वेन परैस्तेषां हेत्वाभासत्वमीक्षते। =अन्यथानुपपन्नत्व से रहित अन्य एकान्तवादियों के द्वारा जो हेतु नहीं होते हुए भी, हेतुरूप से ग्रहण किये गये हैं वे हेत्वाभास कहे गये हैं।
न्या.दी./3/40/88/5 हेतुलक्षणरहिता हेतुवदवभासमाना: खलु हेत्वाभासा:। =जो हेतु के लक्षण से रहित हैं, और कुछ रूप में हेतु के समान होने से हेतु के समान प्रतीत होते हैं, वे हेत्वाभास हैं। (न्या.दी./3/60/100/1) (न्या.सू.भाषा./1/1/4/44)
- हेत्वाभास के भेद
न्या.मू./2/101/129 विरुद्धासिद्धसंदिग्धा अकिंचित्करविस्तरा: इति।101। =विरुद्ध, असिद्ध, सन्दिग्ध और अकिंचित्कर ये चारों ही अन्यथानुपपन्नत्व रूप हेतु के लक्षण से विकल होने के कारण हेत्वाभास हैं। (न्या.वि.मू./2/197/125)
सि.वि./मू./6/32/429 एकलक्षणसामर्थ्याद्धेत्वाभासा निवर्तिता:। विरुद्धानैकान्तिकासिद्धाज्ञाताकिञ्चित्करादय:।32। =अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षण की सामर्थ्य से ही विरुद्ध, अनैकान्तिक, असिद्ध अज्ञात व अकिंचित्कर आदि हेत्वाभास उत्पन्न होते हैं। अर्थात् उपरोक्त लक्षण की वृत्ति विपरीत आदि प्रकारों से पायी जाने के कारण ही ये विरुद्ध आदि हेत्वाभास हैं।
श्लो.वा.4/न्या./273/425/7 पर भाषा में उद्धृत-सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमातीतकाला हेत्वाभासा:। =सव्यभिचारी, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम, अतीतकाल ये पाँच हेत्वाभास हैं। (न्या.सू./मू./1/4/44)
न्या.दी./3/40/86/4 पञ्च हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धनैकान्तिककालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाख्या: संपन्ना:। =हेत्वाभास पाँच हैं-असिद्ध, विरुद्ध, अनेकान्तिक, कालत्ययापदिष्ट और प्रकरणसम।
प.मु./6/21 हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानैकान्तिकाकिंचित्करा:। =हेत्वाभास के चार भेद हैं-असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिंचित्कर।
स.म./24/1 विरोधस्योपलक्षणत्वात् वैयधिकरणम् अनवस्था संकर: व्यतिकर: संशय: अप्रतिपत्ति: विषयव्यवस्थाहानिरिति। =सप्त भंगी वाद में विरोध, वैयधिकरण्य, अनवस्था, संकर, व्यतिकर, संशय, अप्रतिपत्ति और विषयव्यवस्था हानि ये आठ दोष आते हैं।
- हेत्वाभास सामान्य का लक्षण