नैगमनय निर्देश
From जैनकोष
- नैगम नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.17/230 तत्र संकल्पमात्रो ग्राहको नैगमो नय:। सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थिकस्याभिधानात् ।17।=संकल्पमात्र ग्राही नैगमनय अशुद्ध द्रव्य का कथन करने से सोपाधि है। (क्योंकि सत्त्व प्रस्थादि उपाधियां अशुद्धद्रव्य में ही सम्भव हैं और अभेद में भेद विवक्षा करने से भी उसमें अशुद्धता आती है।) (और भी देखें नय - III.2.1-2)।
- शुद्ध व अशुद्ध सभी नय नैगम के पेट में समा जाते हैं
धवला 1/1,1,1/84/6 यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्ध्य वर्तत इति नैकगमो नैगम:, संग्रहासंग्रहस्वरूपद्रव्यार्थिको नैगम इति यावत् ।=जो है वह उक्त दोनों (संग्रह और व्यवहार नय) को छोड़कर नहीं रहता है। इस तरह जो एक को ही प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् अनेक को प्राप्त होता है उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् संग्रह और असंग्रहरूप जो द्रव्यार्थिकनय है वही नैगम नय है। ( कषायपाहुड़ 1/21/353/376/3 )। (और भी देखें नय - III.3.3)।
धवला 9/4,1,45/171/4 यदस्ति न तद् द्वयमतिलङ्ध्य वर्तत इति संग्रह व्यवहारयो: परस्परविभिन्नोभयविषयावलम्बनो नैगमनय:।=जो है वह भेद व अभेद दोनों को उल्लंघन कर नहीं रहता, इस प्रकार संग्रह और व्यवहार नयों के परस्पर भिन्न (भेदाभेद) दो विषयों का अवलम्बन करने वाला नैगमनय है। ( धवला 12/4,2,10,2/303/1 ); ( कषायपाहुड़/1/13-14/183/231/1 ); (और भी देखें नय - III.2.3)।
धवला 13/5,5,7/199/1 नैकगमो नैगम:, द्रव्यपर्यायद्वयं मिथो विभिन्नमिच्छन् नैगम इति यावत् ।=जो एक को नहीं प्राप्त होता अर्थात् अनेक को प्राप्त होता है वह नैगमनय है। जो द्रव्य और पर्याय इन दोनों को आपस में अलग-अलग स्वीकार करता है वह नैगमनय है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
धवला 13/5,3,7/4/9 णेगमणयस्स असंगहियस्स एदे तेरसविफासा होंति त्ति बोद्धव्वा, परिग्गहिदसव्वणयविसयत्तादो।=असंग्राहिक नैगमनय के ये तेरह के तेरह स्पर्श विषय होते हैं, ऐसा यहां जानना चाहिए; क्योंकि, यह नय सब नयों के विषयों को स्वीकार करता है।
देखें निक्षेप - 3-(यह नय सब निक्षेपों को स्वीकार करता है।)
- नैगम तथा संग्रह व व्यवहार नय में अन्तर
श्लोकवार्तिक 4/1/33/60/245/17 न चैवं व्यवहारस्य नैगमत्वप्रसक्ति: संग्रहविषयप्रविभागपरत्वात्, सर्वस्य नैगमस्य तु गुणप्रधानोभय विषयत्वात् ।=इस प्रकार वस्तु के उत्तरोत्तर भेदों को ग्रहण करने वाला होने से इस व्यवहारनय को नैगमपना प्राप्त नहीं हो जाता; क्योंकि, व्यवहारनय तो संग्रह गृहीत पदार्थ का व्यवहारोपयोगी विभाग करने में तत्पर है, और नैगमनय सर्वदा गौण प्रधानरूप से दोनों को विषय करता है।
कषायपाहुड़ 1/21/354-355/376/8 ऐसो णेगमो संगमो संगहिओ असंगहिओ चेदि जइ दुविहो तो णत्थि णेगमो; विसयाभावादो।...ण च संगहविसेसेहिंतो वदिरित्तो विसओ अत्थि, जेण णेगमणयस्स अत्थित्तं होज्ज। एत्थ परिहारो वुच्चदे‒संगह-ववहारणयविसएसु अक्कमेण वट्टमाणो णेगमो।...ण च एगविसएहि दुविसओ सरिसो; विरोहादो। तो क्खहिं ‘दुविहो णेगमो’ त्ति ण घटदे, ण; एयम्मि वट्टमाणअहिप्पायस्स आलंबणभेएण दुब्भावं गयस्स आधारजीवस्स दुब्भावत्ताविरोहादो।=प्रश्न‒यह नैगमनय संग्राहिक और असंग्राहिक के भेद से यदि दो प्रकार का है, तो नैगमनय कोई स्वतन्त्र नय नहीं रहता। क्योंकि, संग्रहनय के विषयभूत सामान्य और व्यवहारनय के विषयभूत विशेष से अतिरिक्त कोई विषय नहीं पाया जाता, जिसको विषय करने के कारण नैगमनय का अस्तित्व सिद्ध होवे। उत्तर‒अब इस शंका का समाधान कहते हैं‒नैगमनय संग्रहनय और व्यवहारनय के विषय में एक साथ प्रवृत्ति करता है, अत: वह उन दोनों में अन्तर्भूत नहीं होता है। केवल एक-एक को विषय करने वाले उन नयों के साथ दोनों को (युगपत्) विषय करने वाले इस नय की समानता नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है। ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.24/233)। प्रश्न‒यदि ऐसा है, तो संग्रह और असंग्रहरूप दो प्रकार का नैगमनय नहीं बन सकता ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि एक जीव में विद्यमान अभिप्राय आलम्बन के भेद से दो प्रकार का हो जाता है, और उससे उसका आधारभूत जीव तथा यह नैगमनय भी दो प्रकार का हो जाता है।
- नैगमनय व प्रमाण में अन्तर
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.22-23/232 प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वत: इत्ययुक्तं इव ज्ञप्ते: प्रधानगुणभावत:।2। प्राधान्येनोभयात्मानमथ गृह्णद्धि वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपञ्चेन निवेदितम् ।23। =प्रश्न‒धर्म व धर्मी दोनों का (अक्रमरूप से) ग्राहक होने के कारण नैगमनय प्रमाणात्मक है ? उत्तर‒ऐसा कहना युक्त नहीं है;क्योंकि, यहां गौण मुख्य भाव से दोनों की ज्ञप्ति की जाती है। और धर्म व धर्मी दोनों को प्रधानरूप से ग्रहण करते हुए उभयात्मक वस्तु के जानने को प्रमाण कहते हैं। अन्य ज्ञान अर्थात् केवल धर्मीरूप सामान्य को जानने वाला संग्रहनय या केवल धर्मरूप विशेष को जानने वाला व्यवहारनय, या दोनों को गौणमुख्यरूप से ग्रहण करने वाला नैगमनय, प्रमाणज्ञानरूप नहीं हो सकते।
श्लोकवार्तिक 2/1/6/ श्लो.19-20/361 तत्रांशिन्यापि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।19। धर्मिधर्मसमूहस्य प्राधान्यार्पणया विद:। प्रमाणत्वेन निर्णीते: प्रमाणादपरो नय:।20।=जब सम्पूर्ण अंशों को गौणरूप से और अंशी को प्रधानरूप से जानना इष्ट होता है, तब मुख्यरूप से द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है, प्रमाण का नहीं।19। और जब धर्म व धर्मी दोनों के समूह को (उनके अखण्ड व निर्विकल्प एकरसात्मक रूप को) प्रधानपने की विवक्षा से जानना अभीष्ट हो, तब उस ज्ञान को प्रमाणपने से निर्णय किया जाता है।20। जैसे‒(देखो अगला उद्धरण)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/754-755 न द्रव्यं नापि गुणो न च पर्यायो निरंशदेशत्वात् । व्यक्तं न विकल्पादपि शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतमेतत् ।754। द्रव्यगुणपर्यायाख्यैर्यदनेकं सद्विभिद्यते हेतो:। तदभेद्यमनंशत्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ।755।=अखण्डरूप होने से वस्तु न द्रव्य है, न गुण है, न पर्याय है, और न वह किसी अन्य विकल्प के द्वारा व्यक्त की जा सकती है, यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का मत है। युक्ति के वश से जो सत् द्रव्य, गुण व पर्यायों के नाम से अनेकरूप से भेदा जाता है, वही सत् अंशरहित होने से अभेद्य एक है, इस प्रकार प्रमाण का पक्ष है।755।
- भावी नैगम नय निश्चित अर्थ में ही लागू होता है
देखें अपूर्वकरण - 4 (क्योंकि मरण यदि न हो तो अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती साधु निश्चितरूप में कर्मों का उपशम अथवा क्षय करता है, इसलिए ही उसको उपशामक व क्षपक संज्ञा दी गयी है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जाता)।
देखें पर्याप्ति - 2 (शरीर की निष्पत्ति न होने पर भी निवृत्त्यपर्याप्त जीव को नैगमनय से पर्याप्त कहा जा सकता है। क्योंकि वह नियम से शरीर की निष्पत्ति करने वाला है)।
देखें दर्शन - 7.2 (लब्ध्यपर्याप्त जीवों में चक्षुदर्शन नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनमें उसकी निष्पत्ति सम्भव नहीं, परन्तु निवृत्त्यपर्याप्त जीवों में वह अवश्य माना गया है, क्योंकि उत्तरकाल में उसकी समुत्पत्ति वहां निश्चित है)।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/48/1 मिथ्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्माव्यक्तिरूपेण अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव भाविनैगमनयापेक्षया व्यक्तिरूपेण च। अभव्यजीवे पुनर्बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव न च व्यक्तिरूपेण भाविनैगमनयेनेति।=मिथ्यादृष्टि भव्यजीव में बहिरात्मा तो व्यक्तिरूप से रहता है और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से रहते हैं, एवं भावि नैगमनय की अपेक्षा व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव में बहिरात्मा व्यक्तिरूप से और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से ही रहते हैं। वहां भाविनैगमनय की अपेक्षा भी ये व्यक्तिरूप में नहीं रहते।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/623 भाविनैगमनयायत्तो भूष्णुस्तद्वानिवेष्यते। अवश्यंभावतो व्याप्ते: सद्भावात्सिद्धिसाधनात् ।=भाविनैगमनय की अपेक्षा होने वाला हो चुके हुए के समान माना गया है, क्योंकि ऐसा कहना अवश्यम्भावी व्याप्ति के पाये जाने से युक्तियुक्त है।
- कल्पनामात्र होते हुए भी भावीनैगम व्यर्थ नहीं है
राजवार्तिक 1/33/3/95/21 स्यादेतत् नैगमनयवक्तव्ये उपकारी नोपलभ्यते, भाविसंज्ञाविषये तु राजादावुपलभ्यते ततो नायं युक्त इति। तन्न, किं कारणम् । अप्रतिज्ञानात् । नैतदस्माभि: प्रतिज्ञातम् ‒‘उपकारे ‘सति भवितव्यम्’ इति। किं तर्हि। अस्य नयस्य विषय: प्रदर्श्यते। अपि च, उपकारं प्रत्यभिमुखत्वादुपकारवानेव।=प्रश्न‒भाविसंज्ञा में तो यह आशा है कि आगे उपकार आदि हो सकते हैं, पर नैगमनय में तो केवल कल्पना ही कल्पना है, इसके वक्तव्य में किसी भी उपकार की उपलब्धि नहीं होती अत: यह संव्यवहार के योग्य नहीं है? उत्तर‒नयों के विषय के प्रकरण में यह आवश्यक नहीं है कि उपकार या उपयोगिता का विचार किया जाये। यहां तो केवल उनका विषय बताना है। इस नय से सर्वथा कोई उपकार न हो ऐसा भी तो नहीं है, क्योंकि संकल्प के अनुसार निष्पन्न वस्तु से, आगे जाकर उपकारादिक की भी सम्भावना है ही।
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.19-20/231 नन्वयं भाविनीं संज्ञां समाश्रित्योपचर्यते। अप्रस्थादिषु तद्भावस्तण्डुलेष्वोदनादिवत् ।19। इत्यसद्बहिरर्थेषुतथानध्यवसानत:। स्ववेद्यमानसंकल्पे सत्येवास्य प्रवृत्तित:।20।=प्रश्न‒भावी संज्ञा का आश्रय कर वर्तमान में भविष्य का उपचार करना नैगमनय माना गया है। प्रस्थादिके न होने पर काठ के टुकड़े में प्रस्थ की अथवा भात के न होने पर भी चावलों में भात की कल्पना मात्र कर ली गयी है ? उत्तर‒वास्तव में बाह्य पदार्थों में उस प्रकार भावी संज्ञा का अध्यवसाय नहीं किया जा रहा है, परन्तु अपने द्वारा जाने गये संकल्प के होने पर ही इस नय की प्रवृत्ति मानी गयी है (अर्थात् इस नय में अर्थ की नहीं ज्ञान की प्रधानता है, और इसलिए यह नय ज्ञान नय मानी गयी है।)