अवाय
From जैनकोष
१. अवायका लक्षण
षट्खण्डागम पुस्तक संख्या १३/५,५/सू.३९/२४३ अवायो ववसायो बुद्धी विण्णाणि आउंडी पच्चाउंडी ।।३६।।
= अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा ये पर्याय नाम हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या १/१५/१११/६ विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः। उत्पतननिपतनपक्षविक्षेपादिभिर्वलाकैवेयं न पताकेति।
= विशेषके निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते हैं। जैसे उत्पतन, निपतन, पक्ष-विक्षेप आदिके द्वारा `यह बक पंक्ति ही है, ध्वजा नहीं' ऐसा निश्चय होना अवाय है।
(धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,२३/२१८/९)
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/१५/३/६०/६ भाषादिविशेनिर्ज्ञानात्तस्य याथात्म्येनावगमनभवायः। `दाक्षिणात्योऽयम्, युवा, गौरः' इति वा
= भाषा आदि विशेषोंके द्वारा उस (ईहा द्वारा गृहीत पुरुष) की उस विशेषताका यथार्थ ज्ञान कर लेना अवाय है, जैसे यह दक्षिणी है, युवा है या गौर है इत्यादि।
(न्यायदीपिका अधिकार २/$११/३२/६)
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,३९/२४३/३ अवेयते निश्चीयते मीमांसितोऽर्थोऽनेनेत्यवायः।
= जिसके द्वारा मीमांसित अर्थ `अवेयते' अर्थात् निश्चित किया जाता है वह अवाय है।
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-१,१४/१७/७ ईहितस्यार्थस्य संदेहापोहनमवायः।
= ईहा ज्ञानसे जाने गये पदार्थ विषयक सन्देहका दूर हो जाना (या निश्चित हो जाना) अवाय है।
(धवला पुस्तक संख्या १/१,१,११५/३५४/३) (घ.९/४,१,४/१४४/७)
जंबूदीव-पण्णत्तिसंगहो अधिकार संख्या १३/५९,६३ ईहिदत्थस्स पुणो थाणु पुरिसो त्ति बहुवियप्पस्स। जो णिच्छियावबोधो सो दु अवायो वियाणाहि ।।५९।। जो कम्मकलुसरहिओ सो देवो णत्थि एत्थ संदेहो। जस्स दु एवं बुद्धी अवायणाणं हवे तस्स ।।६३।।
= यह स्थाणु है या पुरुष. इस प्रकार बहुत विकल्परूप ईहित पदार्थके विषयमें जो निश्चित ज्ञान होता है उसे अवाय जानना चाहिए ।।५९।। जो कर्ममलसे रहित होता है वह देव है, इसमें कोई सन्देह नहीं है, इस प्रकार जिसके निश्चयरूप बुद्धि होती है उसके अवायज्ञान होता है ।।६३।।
२. इस ज्ञानको अवाय कहें या अपाय
राजवार्तिक अध्याय संख्या १/१५/१३/६१/९ आह-किमयम् अपाय उत अवाय इति। उभयथा न दीषः। अन्यतरवचनेऽन्यतरस्यार्थ गृहीतत्वात्। यथा `न दाक्षिणात्योऽयम्' इत्यपायं त्यागं करोति तदा `औदीच्यः' इत्यवायोऽधिगमोऽर्थगृहीतः। यदा च `औदीच्यः; इत्यवायं करोति तदा `न दाक्षिणात्योऽयम्' इत्यापायोऽर्थगृहीतः
= प्रश्न-अवाय नामठीक है या अपाय? उत्तर-दोनों ठीक हैं, क्योंकि एकके वचनमें दूसरे का ग्रहण स्वतः हो जाता है। जैसे अब `यह दक्षिणी नहीं है' ऐसा अपाय त्याग करता है तय `उत्तरी है' यह अवाय-निश्चित हो ही जाता है। इसी तरह `उत्तरी है' इस प्रकार अवाय या निश्चय होनेपर `दक्षिणी नहीं है' यह अपाय या त्याग हो ही जाता है।
३. अन्य सम्बन्धित विषय
1. अवायज्ञानको `मति' व्यपदेश कैसे? - देखे मतिज्ञान ३
2. अवग्रहसे अवाय पर्यन्त मतिज्ञानकी उत्पत्तिका क्रम - देखे मतिज्ञान ३
3. अवग्रह व अवायमें अन्तर - देखे अवग्रह २
4. अवाय के श्रुतज्ञानमें अन्तर - देखे श्रुतज्ञान I
5. अवाय व धारणामें अन्तर - देखे धारणा २