लौकांतिक देव
From जैनकोष
- लौकांतिक देव
सर्वार्थसिद्धि/4/24/255/1 एत्य तस्मिन् लीयन्त इति आलय आवासः। ब्रह्मलोक आलयो येषां ते ब्रह्मलोकालया लौकान्तिका देवा वेदितव्याः।...ब्रह्मलोको लोकः तस्यान्तो लोकान्तः तस्मिन्भवा लौकान्तिका इति न सर्वेषां ग्रहणम्।....अथवा जन्मजरामरणाकीर्णो लोकः संसारः, तस्यान्तो लोकान्तः। लोकान्ते भवा लौकान्तिकाः।’’
सर्वार्थसिद्धि/4/25/256/7 एते सर्वे स्वतन्त्राः हीनाधिकत्वाभावात्। विषयरतिविरहाद्देवर्षय इतरेषां देवानामर्चनीयाः, चतुर्दशपूर्वकधराः। [सततंज्ञानभावनावहितमनसः, संसारान्नित्यमुद्विग्नाः अनित्याशरणाद्यनुप्रेक्षासमाहितमानसाः, अतिविशुद्धसम्यग्दर्शनाः, राजवार्तिक ] तीर्थंकरनिष्क्रमणप्रतिबोधनपरा वेदितव्याः। =- आकर जिसमें लय को प्राप्त होते हैं, वह आलय या आवास कहलाता है। ब्रह्मलोक जिनका घर है वे ब्रह्मलोक में रहने वाले लौकान्तिक देव जानने चाहिए।...लौकान्तिक शब्द में जो लोक शब्द है उससे ब्रह्म लोक लिया है और उसका अन्त अर्थात् प्रान्त भाग लोकान्त कहलाता है। वहाँ जो होते हैं वे लौकान्तिक कहलाते हैं। ( राजवार्तिक/4/24/1/242/25 )।......
- अथवा जन्म जरा और मरण से व्याप्त संसार लोक कहलाता है और उसका अन्त लोकान्त कहलाता है। इस प्रकार संसार के अन्त में जो हैं वे लौकान्तिक हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/8/615 ); ( राजवार्तिक/4/24/1 - 2/242/25 );
- ये सर्व देव स्वतन्त्र हैं, क्योंकि हीनाधिकता का अभाव है। विषय-रति से रहित होने के कारण देव ऋषि हैं। दूसरे देव इनकी अर्चा करते हैं। चौदह पूर्वों के ज्ञाता हैं। [सतत् ज्ञान भावना में निरत मन, संसार से उद्विग्न, अनित्यादि भावनाओं के भाने वाले, अति विशुद्ध सम्यग्दृष्टि होते हैं। राजवार्तिक ] वैराग्य कल्याणक के समय तीर्थंकरों को सम्बोधन करने में तत्पर हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/8/641-646 ); ( राजवार्तिक/4/25/3/244/4 ); ( त्रिलोकसार/539-540 )।
- लौकान्तिक देव के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/4/25 सारस्वतादित्यवह्नयरुणगर्दतोयतुषिताव्यावाधारिष्टाश्च।25।
सर्वार्थसिद्धि/4/25/256/3 सारस्वतादित्यान्तरे अग्न्याभसूर्याभाः। आदित्यस्य च वहन्श्चान्तरे चन्द्राभसत्याभाः। वह्नयरुणान्तराले श्रेयस्करक्षेमंकराः। अरुणगर्दतोयान्तन्तराले वृषभेष्ट - कामचाराः। गर्दतोयतुषितमध्ये निर्माणरजोदिगन्तरक्षिताः। तुषिताव्याबाधमध्ये आत्म रक्षितसर्वरक्षिताः। अव्याबाधारिष्टान्तराले मरुद्वसवः। अरिष्टसारस्वतान्तराले अश्वविश्वाः। = सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट ये लौकान्तिक देव हैं।25। च शब्द से इनके मध्य में दो-दो देवगण और हैं इनका संग्रह होता है यथा−सारस्वत और आदित्य के मध्य में अग्न्याभ और सूर्याभ हैं। आदित्य और वह्नि के मध्य में चन्द्राभ और सत्याभ हैं । वह्नि और अरुण के मध्य में श्रेयस्कर और क्षेमंकर, अरुण और गर्दतोय के मध्य में वृषभेष्ट और कामचर, गर्दतोय और तुषित के मध्य में निर्माणरजस् और दिगन्तरक्षित हैं। और तुषित अव्याबाध के मध्य में आत्मरक्षित और सर्वरक्षित, अव्याबाध और अरिष्ट के मध्य में मरुत् और वसु हैं। तथा अरिष्ट और सारस्वत के मध्य में अश्व और विश्व हैं। ( राजवार्तिक/4/25/3/243/15 ); ( तिलोयपण्णत्ति/8/619-624 )।
- लौकान्तिक देवों की संख्या
तिलोयपण्णत्ति/8/624 −634 सारस्वत 700, आदित्य 700, वह्नि 7007, अरुण 7007, गर्हतोय 9009, तुषित 9009, अव्याबाध 11011, अरिष्ट 11011, अग्न्याभ 7007, सूर्याभ 9009, चन्द्राभ 11011, सत्याभ 13013, श्रेयस्कर 15015, क्षेमंकर 17017, वृषभेष्ट 19019, कामचर 21021, निर्माणरज 23023, दिगन्तरक्षित 25025, आत्मरक्षित 27027, सर्वरक्षित 29029, मरुत 31031, वसु 33033 अश्व 35035, विश्व 37037 हैं। इस प्रकार इन चालीस लौकान्तिकों की समग्र संख्या 40786 है। ( राजवार्तिक/4/25/3/243/20 )।
तिलोयपण्णत्ति/8/639 लोक विभाग के अनुसार सारस्वतदेव 707 हैं।
चित्र
- लौकान्तिक देवों का अवस्थान
सर्वार्थसिद्धि/4/24, 25/255/5 तेषं हि (लौकान्तिकानां) विमानानि ब्रह्मलोकस्यान्तेषु स्थितानि।24। अष्टास्वपि पूर्वोत्तरादिषु दिक्षु यथाक्रममेते सारस्वतादयो देवगणा वेदितव्याः। तद्यथा-पूर्वोत्तरकोणे सारस्वतविमानम्, पूर्वस्यां दिशि आदित्यविमानम्, पूर्वदक्षिणस्यां दिशि वह्निविमानम्, दक्षिणस्यां दिशि अरुणविमानम् दक्षिणापरकोणे गर्दतोयविमानम्, अपरस्यां दिशि तुषितविमानम्, उत्तरापरस्यां दिशि अव्याबाधविमानम्, उत्तरस्यां दिशि अरिष्टविमानम्।.....तेषामन्तरेषु द्वौ देवगणौ। = इन लौकान्तिक देवों के विमान ब्रह्मलोक के प्रान्त भाग में (किनारे पर) स्थित आठ राजियों (Sectors) के अन्तराल में ( तिलोयपण्णत्ति ) हैं। पूर्व-उत्तर आदि आठों ही दिशाओं में क्रम से ये सारस्वत आदि देवगण रहते हैं ऐसा जानना चाहिए। यथा−पूर्वोत्तर कोण में सारस्वतों के विमान, पूर्व दिशा में आदित्यों के विमान, पूर्वदक्षिण में वह्निदेवों के विमान, दक्षिण दिशा में अरुण के विमान, दक्षिण-पश्चिम कोने में गर्दतोय के विमान, पश्चिम दिशा में तुषित के विमान, उत्तर-पश्चिम दिशा में अव्याबाध के विमान और उत्तर दिशा में अरिष्ट विमान हैं। इनके मध्य में दो दो देवगण हैं। (उनकी स्थिति व नाम देखें लौकांतिक - 2); ( तिलोयपण्णत्ति/8/616-619 ); ( राजवार्तिक/4/25/3/243/15 ); ( त्रिलोकसार/534-538 )।
- लौकान्तिक देव एक भवावधारी हैं
सर्वार्थसिद्धि/4/24/255/7 लौकान्तिकाः,......सर्वे परीतसंसाराः ततश्च्युता एकं गर्भावासं प्राप्य परिनिर्वास्यन्तीति। = लौकान्तिक देव क्योंकि संसार के पार को प्राप्त हो गये हैं इसलिए वहाँ से च्युत होकर और एक बार गर्भ में रहकर निर्वाण को प्राप्त होंगे। ( तिलोयपण्णत्ति/8/676 ); ( राजवार्तिक/4/24/242/30 )।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- द्विचरम शरीर का स्पष्टीकरण।−देखें चरम ।
- कैसी योग्यता वाला जीव लौकान्तिक देवों में जाता है।−देखें जन्म - 5।
- ब्रह्म लोक।−देखें स्वर्ग - 5।