इन्द्रिय
From जैनकोष
(1) जीव को जानने के स्पर्शन, रसना, घ्राण, वस्तु, और श्रोत्र थे पाँच साधन । इनमें स्थावर जीवों के केवल स्पर्शन इन्द्रिय तथा त्रस जीवों के यथाक्रम सभी इन्द्रियाँ पायी जाती है । भावेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय के भेद से ये दो प्रकार की भी है । इनमें भावेन्द्रियाँ लब्धि और उपयोग रूप है तथा द्रव्येन्द्रियाँ निवृत्ति और उपकरण रूप । स्पर्शन, अनेक आकारों वाली है, रसना खुरपी के समान, घ्राण तिलपुष्प के समान, चक्षु मसूर के और घ्राण यव की नली के आकार की होती है । एकेन्द्रिय जीव की स्पर्शन इन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय चार सौ धनुष है, इसी प्रकार द्वीन्द्रिय के आठ सौ धनुष और त्रीन्द्रिय के सोलह सौ धनुष, चतुरिन्द्रिय के बत्तीस सौ धनुष और असैनी पंचेन्द्रिय के चौसठ सौ धनुष है । रसना इन्द्रिय के विषय द्वीन्द्रिय के चौसठ धनुष, त्रीन्द्रिय के एक सौ अट्ठाईस धनुष, चतुरिन्द्रिय के दो सौ छप्पन और असैनी पंचेन्द्रिय के पांच सौ धनुष है । घ्राणेन्द्रिय का विषय त्रीन्द्रिय जीव के सौ धनुष, चतुरिन्द्रिय के दो सौ धनुष और असैनी पंचेन्द्रिय के चार सौ धनुष प्रमाण है । चतुरिन्द्रिय अपनी चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा उनतीस सौ चौवन योजन तक देखता है, और असैनी पंचेन्द्रिय के चक्षु का विषय उनसठ सौ आठ योजन है । असैनी पंचेन्द्रिय के श्रोत का विषय एक योजन है । सैनी पंचेन्द्रिय जीव नौ योजन दूर स्थित स्पर्श, रस, और गन्ध को यथायोग्य ग्रहण कर सकता है और बारह योजन दूर तक के शब्द को सुन सकता है । सैनी पंचेन्द्रिय जीव अपने चक्षु के द्वारा सैंतालीस हजार दो सी त्रेसठ योजन की दूरी पर स्थित पदार्थ को देख सकता है । हरिवंशपुराण 18. 84-93
(2) छ: पर्याप्तियों मे इस नाम की एक पर्याप्ति । हरिवंशपुराण 18.83