योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 119
From जैनकोष
निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध मात्र दो पर्यायों में होता है -
कार्य-कारण-भावोsयं परिणामस्य कर्मणा ।
कर्म-चेतनयोरेष विद्यते न कदाचन ।।११९।।
अन्वय :- (पूर्वोक्तम्) अयं परिणामस्य कार्य-कारण-भाव: (जीवस्य) कर्मणा (सह विद्यते) । एष: (कार्य-कारण-भाव:) कर्म-चेतनयो: कदाचन न विद्यते ।
सरलार्थ :- संसारी जीव के मोह-राग-द्वेषादि परिणामों के साथ ज्ञानावरणादि आठ कर्मो का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध विद्यमान है; परंतु कार्माणवर्गणारूप पुद्गलद्रव्य का अनादि-निधन/ त्रिकाली चेतन स्वभाव के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध नहीं है ।
भावार्थ :- इस श्लोक में आचार्य निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध दो द्रव्यों के मात्र वर्तमानकालीन दो पर्यायों में घटित होता है, यह महत्त्वपूर्ण नियम बता रहे हैं । उदाहरण में कार्माण-वर्गणा को द्रव्यस्वरूप लिया और साथ में जीव द्रव्य को लिया है; जिनमें निमित्त-नैमित्तिकपन घटित नहीं होता, यह विषय स्पष्ट किया है । इसी तरह जहाँ धर्मादि चारों द्रव्यों को जो गमनादि कार्यो में निमित्त बताया है, वहाँ भी विशिष्ट पर्याय परिणत धर्मादि द्रव्य को और गमनादि क्रियारूप परिणत जीव-पुद्गल को ही लेना आवश्यक है । अध्यापक विद्यार्थी के ज्ञान के विकास में निमित्त है इसका अर्थ भी पढ़ानेरूप पर्याय से परिणत अध्यापक और पढ़ने के परिणाम से परिणत विद्यार्थी को ही ग्रहण करना चाहिए; मात्र दोनों जीव द्रव्यों को लेकर निमित्त-नैमित्तिकपना घटित नहीं करना चाहिए - क्योंकि दो द्रव्यों में निमित्त नैमित्तिकपना घटित होता ही नहीं, मात्र वर्तमानकालीन पर्यायों में ही घटित होता है ।