ज्येष्ठ स्थिति कल्प
From जैनकोष
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/615/6 पंचमहाव्रतधारिण्याश्चिरप्रव्रजिताया अभि ज्येष्ठो भवति अधुना प्रव्रजित: पुमान् । इत्येष सप्तम: स्थितिकल्प: पुरुषज्येष्ठत्वं। पुरुषत्वं नाम उपकारं, रक्षां च कर्तु समर्थ:। पुरुषप्रणीतश्च धर्म: इति तस्य ज्येष्ठता। तत: सर्वाभि: संयताभि: विनय: कर्त्तव्यो विरतस्य। येन च स्त्रियो लध्व्य: परप्रार्थनीया, पररक्षोपेक्षिण्य:, न तथा पुमांस इति च पुरुषस्य ज्येष्ठत्वां उक्तं च–जेणिच्छी हु लघुसिगा परप्पसज्झा य पच्छणिज्जा य। भीरु पररक्खणज्जेत्ति तेण पुरिसो भवदि जेट्ठो=जिसने पाँच महाव्रत धारण किये हैं वह ज्येष्ठ है और बहुत वर्ष की दीक्षित आर्यिका से भी आज का दीक्षित मुनि ज्येष्ठ है। पुरुष संग्रह, उपकार, और रक्षण करता है, पुरुष ने ही धर्म की स्थापना की है, इसलिए उसकी ज्येष्ठता मानी है। इसलिए सर्व आर्यिकाओं को मुनि का विनय करना चाहिए। स्त्री पुरुष से कनिष्ठ मानी गयी है, क्योंकि वह अपना रक्षण स्वयं नहीं कर सकती, दूसरों द्वारा वह इच्छा की जाती है और ऐसे अवसरों पर वह उसका प्रतिकार भी नहीं कर सकती। उनमें स्वभावत: भय व कमजोरी रहती है। पुरुष ऐसा नहीं है, अत: वह ज्येष्ठ है। यही अभिप्राय उपरोक्त उद्धृत सूत्र का भी समझना।