अपराध
From जैनकोष
समयसार / मूल या टीका गाथा संख्या ३०५ संसिद्धिराद्धसिद्धं साधियमाराधियं च एयट्ठं। अवगयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ।।३०४।। संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित, ये एकार्थवाची शब्द हैं। जो आत्मा अपगतराध अर्थात् राधसे रहित है वह मात्मा अपराध है।
(नियमसार / तात्त्पर्यवृत्ति गाथा संख्या ८४)
सा./सा./आ/३००/क १८६ परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान्। बध्येतानपराधो म स्वद्रव्ये संवृतो यतिः ।।१८६।।
= जो परद्रव्यको ग्रहण करता है वह अपराधी है, इसलिए बन्धमें पड़ता है। और जो स्व-द्रव्यमें ही संवृत है, ऐसा यति निरपराधी है, इसलिए बन्धता नहीं है
(समयसार / आत्मख्याति गाथा संख्या ३०१)।