प्रतिष्ठा विधान
From जैनकोष
- प्रतिष्ठाविधान 16 क्रम
- प्रमाण-(क) वसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ परिशिष्ट ।4। (ख) वसुनन्दिश्रावकाचार; (ग) वसुनन्दिप्रतिष्ठापाठ ।1। आठ दस हाथ प्रमाणप्रतिमानिर्माण (ख./369-401)
- प्रतिष्ठाचार्य में इन्द्र का संकल्प (ख./402-404)
- मण्डप में सिंहासन की स्थापना (ख./405-406)
- मण्डप की ईशान दिशा में पृथक् वेदीपर प्रतिमा का धूलिकलशाभिषेक (ख./407-408);
- प्रतिमा की प्रोक्षण विधि (ख./409);
- आकार की प्रोक्षण विधि (ख./109);
- गुणारोपण, चन्दनतिलक, मुखावर्ण, मन्त्र न्यास व मुखपट (ख./411-421)
- प्रतिमा के कंकण बन्धन, काण्डक स्थापन, यव (जौ) स्थापन, वर्ण पूरक, और इक्षु स्थापन, विशेष मन्त्रोच्चारण पूर्वक मुखोद्धाटन (ग./112/119);
- रात्रि जागरण, चार दिन तक पूजन (ख./422-423);
- नेत्रोन्मीलन ।
- उपरोक्त अंगों के लक्षण
- प्रतिमा सर्वांग सुन्दर और शुद्ध होनी चाहिए । अन्यथा प्रतिष्ठाकारक के धन-जन-हानि की सूचक होती है । (क./1-81)
- जलपूर्ण घट में डालकर हुई शुद्ध मिट्टी से कारीगर द्वारा प्रतिमा पर लेप कराना धूलिकलशाभिषेक कहलाता है । (ग./70-71)
- सधवा स्त्रियों द्वारा माँजा जाना प्रोक्षण कहलाता है ।(गं/72);
- सर्वोषध जल से प्रतिमा को शुद्ध करना आकरशुद्धि है ।(ग.73-86);
- अरहंतादि की प्रतिमा में उन-उनके गुणों का संकल्प करना गुणारोपण है । (ग./95-100);
- प्रतिमा के विभिन्न अंगों पर बीजाक्षरों का लिखना मंत्र संन्यास है । (ग./101-103)
- प्रतिमा के मुख को वस्त्र से ढाँकना मुखपट विधान है । (ग./107);
- प्रतिमा की आँख में काजल डालना नेत्रोन्मीलन कहलाता है । नोट - यह सभी क्रियाएँ यथायोग्य मन्त्रोच्चारण द्वारा निष्पन्न की जाती हैं ।
- अचलप्रतिमा प्रतिष्ठा विधि
स्थिर या अचल प्रतिमा की स्थापना भी इसी प्रकार की जाती है । केवल इतनी विशेषता है कि आकर शुद्धि स्वस्थान में ही करें । (भित्ति या विशाल पाषाण और पर्वत आदि पर) चित्रित अर्थात् उकेरी गयी, रंगादि से बनायी गयी या छापी गयी प्रतिमा का दर्पण में प्रतिबिम्ब दिखाकर और मस्तकपर तिलक देकर तत्पश्चात् प्रतिमा के मुख वस्त्र देवे । आकरशुद्धि दर्पण में करें अथवा अन्य प्रतिमामें करें । इतना मात्र ही भेद है, अन्य नहीं । (ख/443-445)