उपपाद
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या २/३१/१८७/५ उपेत्य पद्यतेऽस्मिन्निति उपपादः। देवनारकोत्पत्तिस्थानविशेषसंज्ञा।
= प्राप्त होकर जिसमें जीव हलन-चलन करता है उसे उपपाद कहते हैं। `उपपाद' यह देव नारकियोंके उत्पत्तिस्थान विशेषकी संज्ञा है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या २/३१/४/१४०/२९)
गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या ८३/२०५/१ उपपदनं संपुटशय्योष्ट्रमुखाकारादिषु लघुनान्तर्मुहुर्तेनैव जीवस्य जननम् उपपादः। उपपदन कहिए संपुटशय्या वा उष्ट्रादि मुखाकार योनि विषै लघु अन्तर्मुहूर्त कालकरि ही जीव का उपजना सो उपपाद कहिए।
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या २/८ विशेषार्थ "विवक्षित भवके प्रथम समयमें होनेवाली पर्यायकी प्राप्तिको उपपाद कहते हैं।"
२. उपपादके भेद
धवला पुस्तक संख्या ७/२,६,१/३००/३ उववादो दुविहो-उजुगदिपुव्वओ विग्गहगदिपुव्वओ चेदि। तत्थ एक्केक्को दुविहो-मारणांतियसमुग्घादपुव्वओ तव्विवरीदओ चेदि।
= उपपाद दो प्रकार है-ऋजुगतिपूर्वक और विग्रहगतिपूर्वक। इनमें प्रत्येक मारणान्तिकसमुद्घातपूर्वक और तद्विपरीतके भेदसे दो-दो प्रकार है।
• उपपादज जन्म सम्बन्धी अन्य विषय - देखे जन्म २।