रूपातीत
From जैनकोष
- रूपातीत ध्यान का लक्षण व विधि
वसुनन्दी श्रावकाचार/476 वण्ण - रस-गंध-फासेहिं वज्जिओ णाण-दंसणसरूवो। जं झाइज्जइ एवं तं झाणं रूवरहियं त्ति।476। = वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित, केवलज्ञान-दर्शन स्वरूप जो सिद्ध परमेष्ठी का या शुद्ध आत्मा का ध्यान किया जाता है, वह रूपातीत ध्यान है।476। ( गुणभद्र श्रावकाचार/243 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/51 की पातनिका/216/1)।
ज्ञानार्णव/40/15-26 अथरूपे स्थिरीभूतचित्तः प्रक्षीणविभ्रमः। अमूर्तमजमव्यक्तं ध्यातुंप्रक्रमते ततः।15। चिदानन्दमयं शुद्धममूर्त्तं परमाक्षरम्। स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते।16। सर्वावयवसम्पूर्णं सर्वलक्षणलक्षितम्। विशुद्धादर्शसंक्रान्तप्रतिबिम्बसमप्रभम्।26। = रूपस्थध्यान में स्थिरीभूत है चित्त जिसका तथा नष्ट हो गये हैं विभ्रम जिसके ऐसा ध्यानी अमूर्त्त, अजन्मा, इन्द्रियों से अगोचर, ऐसे परमात्मा के ध्यान का प्रारम्भ करता है।15। जिस ध्यान में ध्यानी मुनि चिदानन्दमय, शुद्ध, अमूर्त, परमाक्षररूप, आत्मा को आत्मा करि ही स्मरणकरै सो रूपातीत ध्यान माना गया है।16। समस्त अवयवों से परिपूर्ण और समस्त लक्षणों से लक्षित ऐसे निर्मल दर्पण में पडते हुए प्रतिबिम्ब के समान प्रभाव वाले परमात्मा का चिन्तवन करैं।26।
द्र. स./टी./48/205 पर उद्धृत ‘रूपातीतं निरञ्जनम्’। = निरंजन का ध्यान रूपातीत ध्यान है। ( परमात्मप्रकाश/1/6/6 पर उद्धृत), ( भावपाहुड़ टीका/86/236 पर उद्धृत)।
- ध्येय के साथ तन्मयता
ज्ञानार्णव/40/28-30 सोऽहं सकलवित्सार्वः सिद्धः साध्यो भवच्युतः। परमात्मा परंज्योतिर्विश्वदर्शी निरंजनः।28। तदासौ निश्चलोऽमूर्त्तो निष्कलङ्को जगद्गुरुः । चिन्मात्रो विस्फुरत्युच्चैर्ध्यानध्यातृविवर्जितः।29। पृथग्भावमतिक्रम्य तथैक्यं परमात्मनि। प्राप्नोति स मुनिः साक्षाद्यथान्यत्वं न बुध्यते।30। = जब परमात्मा का प्रत्यक्ष होने लगता है तब ऐसा ध्यान करै कि ऐसा परमात्मा मैं हूँ, मैं ही सर्वज्ञ हूँ, सर्व व्यापक हूँ, सिद्ध हूँ तथा मैं ही साध्य था। संसार से रहित, परमात्मा, परमज्योति स्वरूप, समस्त विश्व को देखने वाला मैं ही हूँ। मैं ही निरंजन हूँ, ऐसा परमात्मा का ध्यान करै। उस समय अपना स्वरूप निश्चल, अमूर्त, निष्कलंक, जगत् का गुरु, चैतन्य मात्र और ध्यान तथा ध्याता के भेद रहित ऐसा अतिशय स्फुरायमान होता है।28-29। उस समय परमात्मा में पृथक् भाव अर्थात् अलगपने का उल्लंघन करके साक्षात् एकता को इस तरह प्राप्त हो जाता है कि जिससे पृथक्पने का बिलकुल भान नहीं होता।30।
- शुक्ल ध्यान व रूपातीत ध्यान में एकता−देखें पद्धति ।
- शून्य ध्यान का स्वरूप−देखें शुक्लध्यान - 1।