व्याख्याप्रज्ञप्ति
From जैनकोष
(1) द्वादशांग श्रुत का पांचवाँ अंग । इसमें दो लाख अट्ठाईस हजार पदों में मुनियों के द्वारा विनयपूर्वक पूछे गये प्रश्न और केवली द्वारा दिये गए उनके उत्तरों का विस्तृत वर्णन है । महापुराण 34.139, हरिवंशपुराण 10. 34-35
(2) दृष्टिवाद अंग के परिकर्म भेद के पाँच भेदों में यह पांचवां भेद है । इसमें चौरासी लाख उन्तीस हजार पद है जिनमें रूपी-अरूपी द्रव्य तथा भव्य-अभव्य जीवों का वर्णन किया गया है । हरिवंशपुराण 10.61-62, 67-68