समिति
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से == चलने-फिरने में, बोलने-चालने में, आहार ग्रहण करने में, वस्तुओं को उठाने-धरने में और मलमूत्र निक्षेपण करने में यत्नपूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना समिति है।
- समिति निर्देश
- समिति सामान्य का लक्षण।
- समिति के भेद।
- * समिति व सामायिक चारित्र में अंतर।–देखें सामायिक - 4।
- * समिति व सूक्ष्म सांपराय में अंतर।–देखें सूक्ष्मसांपराय
- * समिति, गुप्ति, व दशधर्म में अंतर।–देखें गुप्ति - 2।
- * संयम व समिति में अंतर।–देखें संयम - 2।
- * संयम और विरति में समिति संबंधी विशेषता।–देखें संयम - 2/1।
- ईर्या समिति निर्देश
- ईर्या समिति का लक्षण,
- ईर्यापथ शुद्धि का लक्षण,
- ईर्या समिति की विशेषताएँ,
- ईर्या समिति के अतिचार।
- भाषा समिति निर्देश
- भाषा समिति का लक्षण,
- वाक् शुद्धि का लक्षण,
- भाषा समिति के अतिचार।
- * भाषा समिति व सत्यधर्म में अंतर। - देखें सत्य - 2.8।
- * धर्म हानि के अवसर पर बिना बुलाये बोले। - देखें वाद ।
- एषणा समिति निर्देश
- एषणा समिति का लक्षण
- एषणासमिति के अतिचार।
- आदान निक्षेपण समिति निर्देश
- आदान निक्षेपण समिति का लक्षण,
- आदान निक्षेपण समिति के अतिचार।
- प्रतिष्ठापन समिति निर्देश
- प्रतिष्ठापन समिति का लक्षण,
- प्रतिष्ठापन शुद्धि का लक्षण,
- प्रतिष्ठापन समिति के अतिचार।
- निश्चय व्यवहार समिति समन्वय
- समिति में सम्यग् विशेषण की आवश्यकता।
- प्रमाद न होना ही सच्ची समिति है।
- समिति का उपदेश असमर्थ जनों के लिए है।
- समिति का प्रयोजन अहिंसा व्रत की रक्षा।
- * श्रावक को भी समिति के पालन संबंधी। - देखें व्रत - 2.4।
- समिति पालने का फल।
- * समिति में युगपत् आस्रव व संवरपना। - देखें संवर - 2।
1. समिति निर्देश
1. समिति सामान्य का लक्षण
1. निश्चय समिति
राजवार्तिक/9/5/2/593/34 सम्यगिति: समितिरिति। =सम्यग् प्रकार से प्रवृत्तिका नाम समिति है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/61 अभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परमधर्मिणमात्मानं सम्यग् इति परिणति: समिति:। अथवा निजपरमतत्त्वनिरतसहजपरमबोधादिपरमधर्माणां सहति: समिति:। =अभेद-अनुपचार रत्नत्रयरूपी मार्ग पर परमधर्मी ऐसे (अपने) आत्मा के प्रति सम्यग् 'इति' (गति) अर्थात् परिणति वह समिति है, अथवा निज परम तत्त्व में लीन सहज परम ज्ञानादिक परमधर्मों की संहति (मिलन, संगठन) वह समिति है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/240/332/21 निश्चयेन तु स्वस्वरूपे सम्यगितो गत: परिणत: समित:। =निश्चय से तो अपने स्वरूप में सम्यग् प्रकार से गमन अर्थात् परिणमन समिति है।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/101/3 निश्चयेनानंतज्ञानादिस्वभावे निजात्मनि समसम्यक् समस्तरागादिविभावपरित्यागेन तल्लीनतंचिंतनतंमयत्वेन अयनं गमनं परिणमनं समिति:। =निश्चय नय की अपेक्षा अनंतज्ञानादि स्वभावधारक निज आत्मा है, उसमें 'सम' भले प्रकार अर्थात् समस्त रागादि भावों के त्याग द्वारा आत्मा में लीन होना, आत्मा का चिंतन करना, तन्मय होना आदि रूप से जो अयन (गमन) अर्थात् परिणमन सो समिति है।
2. व्यवहार समिति
सर्वार्थसिद्धि/9/2/409/7 प्राणिपीडापरिहारार्थं सम्यगयनं समिति:। =प्राणि पीड़ा का परिहार के लिए सम्यग् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है। ( राजवार्तिक/9/2/2/591/31 )
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/16/61/19 समिदीसु य सम्यगयनादिषु अयनं समिति:। सम्यक्श्रुतज्ञाननिरूपितक्रमेण गमनादिषु वृत्ति: समिति:।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/115/267/1 प्राणिपीडापरिहारादरवत: सम्यगयनं समिति:। =गमनादि कार्यों में जैसी प्रवृत्ति आगम में कही है वैसी प्रवृत्ति करना समिति है। प्राणियों को पीड़ा न होवे ऐसा विचार कर दया भाव से अपनी सर्व प्रवृत्ति जो करना है, वह समिति है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/240/332/21 व्यवहारेण पंचसमितिभि: समित: संवृत्त: पंचसमित:। =व्यवहार से ईर्यासमिति आदि पाँच समितियों के द्वारा सम्यक् प्रकार'इत:' अर्थात् प्रवृत्ति करना सो पंचसमिति है।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/101/4 व्यवहारेण तद्बहिरंगसहकारिकारणभूताचारादिचरणग्रंथोक्ता ...समिति:। =व्यवहार से उस निश्चय समिति के बहिरंग सहकारि कारणभूत आचार चारित्र विषयक ग्रंथों में कही हुई समिति है।
2. समिति के भेद
चारित्तपाहुड़/ मू./37 इरिया भासा एसण जा सा आदाण चेव णिक्खेवो। संजमसोहिणिमित्ते खंति जिणा पंच समिदीओ। =ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापण ये पाँच समिति संयम शुद्धि के कारण कही गयी हैं। (मू.आ./10,301); ( तत्त्वार्थसूत्र/9/5 ); ( सर्वार्थसिद्धि/9/5/411/9 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/101/5 )
3. ईर्यासमिति निर्देश
1. ईर्यासमिति का लक्षण
मू.आ./11,302,303 फासुयमग्गेण दिवा जुवंतरप्पहेणा सकज्जेण। जंतूण परिहरति इरियासमिदी हवे गमणं।11। मग्गुज्जोवुपओगालंबणसुद्धीहिं इरियदो मुणिणो। सुत्ताणुवीचि भणिया इरियासमिदी पवयणम्मि।302। इरियावहपडिवण्णेणवलोगंतेण होदि गंतव्वं। पुरदो जुगप्पमाणं सयाप्पमत्तेण सत्तेण।303। =1. प्रासुक मार्ग से (देखें विहार - 1.7) दिन में चार हाथ प्रमाण देखकर अपने कार्य के लिए प्राणियों को पीड़ा नहीं देते हुए संयमी का जो गमन है वह ईर्यासमिति है। ( नियमसार/61 )। 2. मार्ग, नेत्र, सूर्य का प्रकाश, ज्ञानादि में यत्न, देवता आदि आलंबन - इनकी शुद्धता से तथा प्रायश्चित्तादि सूत्रों के अनुसार से गमन करते मुनि के ईर्यासमिति होती है ऐसा आगम में कहा है।302। ( भगवती आराधना/1191 ) 3. कैलास गिरनार आदि यात्रा के कारण गमन करना ही तो ईर्यापथ से आगे की चार हाथ प्रमाण भूमि को सूर्य के प्रकाश से देखता मुनि सावधानी से हमेशा गमन करे।303। ( तत्त्वसार/6/7 )
राजवार्तिक/9/5/3/594/1 विदितजीवस्थानादिविधेर्मुनेर्धर्मार्थं प्रयतमानस्य सवितर्युदिते चक्षुषो विषयग्रहणसामर्थ्ये उपजाते मनुष्यादिचरणपातोपहृतावश्याय-प्रायमार्गे अनन्यमनस: शनैर्न्यस्तपादस्य संकुचितावयवस्ययुगमात्रपूर्वनिरीक्षणाविहितदृष्टे: पृथिव्याद्यारंभाभावात् ईर्यासमितिरित्याख्यायते। =जीवस्थान आदि की विधि को जानने वाले, धर्मार्थ प्रयत्नशील साधु का सूर्योदय होने पर चक्षुरिंद्रिय के द्वारा दिखने योग्य मनुष्य आदि के आवागमन के द्वारा कुहरा क्षुद्र जंतु आदि से रहित मार्ग में सावधान चित्त हो शरीर संकोच करके धीरे-धीरे चार हाथ जमीन आगे देखकर पृथिवी आदि के आरंभ से रहित गमन करना ईर्यासमिति है। ( चारित्रसार/66/2 ); ( ज्ञानार्णव/18/6-7 ); ( अनगारधर्मामृत/4/164/492 )।
2. ईर्यापथ शुद्धि का लक्षण
राजवार्तिक/9/6/16/597/13 ईर्यापथशुद्धि: नानाविधजीवस्थानयोंयाश्रयावबोधजनितप्रयत्नपरिहृतजंतुपीड़ाज्ञानादित्यस्वेंद्रियप्रकाशनिरीक्षितदेशगामिनी द्रुतविलंबितसंभ्रांतविस्मितलीलाविकारदिगंतरावलोकनादिदोषविरहितगमना। तस्यां सत्यां संयम: प्रतिष्ठितो भवति विभव इव सुनीतौ। =अनेक प्रकार के जीवस्थान योनिस्थान जीवाश्रय आदि के विशिष्ट ज्ञानपूर्वक प्रयत्न के द्वारा जिसमें जंतु पीड़ा का बचाव किया जाता है, जिसमें ज्ञान, सूर्य प्रकाश, और इंद्रिय प्रकाश से अच्छी तरह देखकर गमन किया जाता है तथा जो शीघ्र, विलंबित, संभ्रांत, विस्मित, लीला विकार अन्य दिशाओं की ओर देखना आदि गमन के दोषों से रहित गतिवाली है वह ईर्यापथ शुद्धि है। ( चारित्रसार/76/7 )
3. ईर्यासमिति की विशेषताएँ
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/150/344/9 स्ववासदेशांनिर्गंतुमिच्छता शीतलादुष्णाद्वा देशाच्छरीरप्रमार्जनं कार्यं, तथा विशतापि। किमर्थं। शीतोष्णजंतूनामाबाधापरिहारार्थं अथवा श्वेतरक्तगुणासु भूमिषु अन्यस्या नि:क्रमेण अन्यस्याश्च प्रवेशने प्रमार्जनं कटिप्रदेशादध: कार्यं। अन्यथा विरुद्धयोनिसंक्रमेण पृथिवीकायिकानां तद्भूमिभागोत्पन्नानां त्रसानां चाबाधा स्यात् । तथा जलं प्रविशता सचित्ताचित्तरजसो: पदादिषु लग्नयोर्निरास:। यावच्च पादौ शुष्यतस्तावन्न गच्छेज्जलांतिक एव तिष्ठेत् । महतीनां नदीनां उत्तरणे आराद्भागे कृतसिद्धवंदन: यावत्परकूलप्राप्तिस्तावन्मया सर्वं शरीरभोजनमुपकरणं च परित्यक्तमिति गृहीतप्रत्याख्यान: समाहितचित्तो द्रोण्यादिकमारोहेत्, परकूले च कायोत्सर्गेण तिष्ठेत् । तदतिचारव्यपोहार्थं। एवमिव महत् कांतारस्य प्रवेशनि:क्रमणयो:। =शीत और उष्ण जंतुओं को बाधा न हो इसलिए शरीर प्रमार्जन करना चाहिए। तथा सफेद भूमि या लाल रंग की भूमि में प्रवेश करना हो अथवा एक भूमि से निकलकर दूसरी भूमि में प्रवेश करना हो तो कटिप्रदेश से नीचे तक सर्व अवयव पिच्छिका से प्रमार्जित करना चाहिए। ऐसी क्रिया न करने से विरुद्ध योनि संक्रम से पृथ्वीकायिक जीव और त्रस कायिक जीवों को बाधा होगी। जल में प्रवेश करने के पूर्व साधु हाथ-पाँव वगैरह अवयवों में लगे हुए सचित्त और अचित्त धूलि को पीछी से दूर करे। अनंतर जल में प्रवेश करे। जल से बाहर आने पर जब तक पाँव न सूख जावें, तब तक जल के समीप ही खड़ा रहे। पाँव सूखने पर विहार करे। बड़ी नदियों को उलांघने का कभी अवसर आवे तो नदी के प्रथम तट पर सिद्ध वंदना करे, समस्त वस्तुओं आदि का प्रत्याख्यान करे। मन में एकाग्रता धारणकर नौका वगैरह पर आरूढ़ होवे। दूसरे तट पर पहुँचने के अनंतर उसके अतिचार नाशार्थ कायोत्सर्ग करे। प्रवेश करने पर अथवा वहाँ से बाहर निकलने पर यही आचार करना चाहिए।
देखें भिक्षा - 2.6 जो गीली है, हरे तृण आदि से व्याप्त है, ऐसी पृथ्वी पर गमन नहीं करना चाहिए।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/4 खरान्, करभान्, बलीवर्द्दान्, गजांस्तुररगान्महिषान्सारमेयान्कलहकारिणो वा मनुष्यांदूरत: परिहरेत् । ...मृदुना प्रतिलेखनेन कृतप्रमार्जनो गच्छेद्यदि निरंतरसुसमाहितफलादिकं वाग्रतो भवेत् मार्गांतरमस्ति। भिण्णवर्णां वा भूमिं प्रविशंस्तद्वर्णभूभाग एव अंगप्रमार्जनं कुर्यात् । =मार्ग में गदहा, ऊँट, बैल, हाथी, घोड़ा, भैंसा, कुत्ता और कलह करने वाले लोगों को दूर से ही त्याग करे।...रास्ते में जमीन से समांतर फलक पत्थर वगैरह चीज होगी, अथवा दूसरे मार्ग में प्रवेश करना पड़े अथवा भिन्न वर्ण की जमीन हो तो जहाँ से भिन्नवर्ण प्रारंभ हुआ है वहाँ खड़े होकर प्रथम अपने सर्व अंग पर से पिच्छी फिरानी चाहिए। (और भी - देखें संयम - 1.7)
2. ईर्यासमिति के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/16/62/4 ईर्यासमितेरतिचार: मंदालोकगमनं, पदविन्यासदेशस्य सम्यगनालोचनम्, अन्यगतचित्तादिकम् । =सूर्य के मंद प्रकाश में गमन करना, जहाँ पाँव रखना हो वह जगह नेत्र से अच्छी तरह से न देखना, इतर कार्य में मन लगाना इत्यादि।
4. भाषासमिति निर्देश
1. भाषासमिति का लक्षण
मू.आ./12,307 पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदाप्पप्पसंसविकहादी। वज्जित्ता सपरहिदं भासासमिदी हवे कहणं।12। सच्चं असच्चमोसं अलियादीदोसवज्जमणवज्जं। वदमाणस्सणुवीची भासासमिदी हवे सुद्धा।307। =1. झूठ दोष लगाने रूप पैशुन्य, व्यर्थ हँसना, कठोर वचन, परनिंदा, अपनी प्रशंसा, और विकथा इत्यादि वचनों को छोड़कर स्व-पर हितकारक वचन बोलना भाषा समिति है। ( नियमसार 62 ) 2. द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा सत्य वचन (देखें सत्य ), सामान्य वचन, मृषावादादि दोष रहित, पापों से रहित आगम के अनुसार बोलने वाले के शुद्ध भाषासमिति है। ( भगवती आराधना/1192 ); ( समयसार/6/8 )
राजवार्तिक/9/5/5/594/17 मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम् । तद्द्विधम्स्वहितं परहितं चेति। मितमनर्थकप्रलपनरहितम् । स्फुटार्थं व्यक्ताक्षरं चासंदिग्धम् । एवंविधमभिधानं भाषासमिति:। तत्प्रपंच:मिथ्याभिधानासूयाप्रियसंभेदाल्पसारशंकितसंभ्रांतकषायपरिहासायुक्तासभ्यनिष्ठुरधर्मविरोध्यदेशकालालक्षणातिसंस्तवादिवाग्दोषविरहिताभिधानम् ।=स्व और पर को मोक्ष की ओर ले जाने वाले स्व-पर हितकारक, निरर्थक बकवाद रहित मित स्फुटार्थ व्यक्ताक्षर और असंधिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है। मिथ्याभिधान, असूया प्रियभेदक, अल्पसार, शंकित, संभ्रांत, कषाययुक्त, परिहास युक्त, अयुक्त, असभ्य, निष्ठुर, अधर्म विधायक, देशकाल विरोधी, और चापलूसी आदि वचन दोषों से रहित भाषण करना चाहिए।
ज्ञानार्णव/18/8-9 धूर्तकामुकक्रव्यादचौरचार्वाकसेविता। शंकासंकेतपापाढ्या त्याज्या भाषा मनीषिभि:।8। दशदोषविनिर्मुक्तां सूत्रोक्तां साधुसंमताम् । गदतोऽस्य मुनेर्भाषां स्याद्भाषासमिति: परा।9। =धूर्त (मायावी), कामी, मांसभक्षी, चौर, नास्तिकमति, - चार्वाक आदि से व्यवहार में लायी हुई भाषा तथा संदेह उपजाने वाली, व पापसंयुक्त हो ऐसी भाषा बुद्धिमानों की त्यागनी चाहिए।8। तथा वचनों के दश दोष (देखें भाषा ) रहित सूत्रानुसार साधुपुरुषों को मान्य हों ऐसी भाषा को कहने वाले मुनि के उत्कृष्ट भाषा समिति होती है।9।
2. वाक् शुद्धि का लक्षण
मू.आ./853-861 भासं विणयविहूणं घम्मविरोही विवज्जये वयणं। पुच्छिदमपुच्छिदं वा णवि ते भासंति सप्पुरिसा।853। अच्छीहिं य पेच्छंता कण्णेहिं य बहुविहा य सुणमाणा। अत्थंति भूयभूया ण ते करंति हु लोइयकहाओ।854। विकहाविसोत्तियाणं खणमवि हिदएण ते ण चिंतंति। धम्मे लद्धमदीया विकहा तिविहेण वज्जंति।857। कुक्कुयकंदप्पाइय हास उल्लावणं च खेडं च। मददप्पहत्थवट्टिं ण करेंति मुणी ण कारेंति।858। ते होंति णिव्वियारा थिमिदमदी पदिट्ठिदा जहा उदधी। णियमेसु दढव्वदिणो पारत्तविमग्गया समणा।859। जिणवयणभासिदत्थं पत्थं च हिदं च धम्मसंजुत्तं। समओवयारजुत्तं पारत्तहिदं कधं करेंति।860। सत्ताधिया सप्पुरिसा मग्गं मण्णंति वीदरागाणं। अणयारभावणाए भावेंति य णिच्चमप्पाणं।861। =सत्पुरुष वे मुनि विनय रहित कठोर भाषा को तथा धर्म से विरुद्ध वचनों को छोड़ देते हैं। और अन्य भी विरोध जनक वाक्यों को नहीं बोलते।853। वे नेत्रों से सब योग्य-अयोग्य देखते हैं और कानों से सब तरह के शब्द सुनते हैं परंतु वे गूंगे के समान तिष्ठते हैं, लौकिक कथा नहीं करते।854। स्त्रीकथा आदि विकथा (देखें कथा ) और मिथ्या शास्त्र, इनको वे मुनि मन से भी चिंतवन नहीं करते। धर्म में प्राप्त बुद्धि वाले मुनि विकथा को मन वचन काय से छोड़ देते हैं।857। हृदय कंठ से अप्रगट शब्द करना, कामोत्पादक हास्य मिले वचन, हास्य वचन, चतुराई युक्त मीठे वचन, पर को ठगने रूप वचन, मद के गर्व से हाथ का ताड़ना, इनको वे न स्वयं करते हैं, न कराते हैं।858। वे निर्विकार उद्धत चेष्टा रहित, विचार वाले, समुद्र के समान निश्चल, गंभीर छह आवश्यकादि नियमों में दृढ़ प्रतिज्ञावाले और परलोक के लिए उद्यमवाले होते हैं।859। वीतराग के आगम द्वारा कथित अर्थवाली पथ्यकारी धर्मकर सहित आगम के विनयकर सहित परलोक में हित करने वाली कथा को करते हैं।860। उपसर्ग सहने से अकंपपरिणामवाले ऐसे साधुजन वीतरागों के सम्यग्दर्शनादि रूप मार्ग को मानते हैं और अनगार भावना से सदा आत्मा का ही चिंतवन करते हैं।861।
राजवार्तिक/9/6/16/598/1 वाक्यशुद्धि: पृथिवीकायिकारंभादिप्रेरणरहिता: (ता) परुषनिष्ठुरादिपरपीडाकरप्रयोगनिरुत्सुका व्रतशीलदेशनादिप्रधानफला हितमितमधुरमनोहरा संयतस्य योग्या। तदधिष्ठाना हि सर्वसंपद:। =पृथिवीकायिक आदि संबंधी आरंभादि की प्रेरणा जिसमें न हो तथा जो परुष, निष्ठुर और पर पीड़ाकारी प्रयोगों से रहित हो व्रतशील आदि का उपदेश देने वाली हो, वह सर्वत: योग्य हित, मित, मधुर और मनोहर वाक्यशुद्धि है। वाक्यशुद्धि सभी संपदाओं का आश्रय है। ( चारित्रसार/81/4 ); ( वसुनंदी श्रावकाचार/230 )
2. भाषा समिति के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/16/62/4 इदं वचनं मम गदितुं युक्तं न वेति अनालोच्य भाषणं अज्ञात्वा वा। अत एवोक्तं 'अपुट्ठो दु ण भासेज्ज भासमाणस्स अंतरे' इति अपृष्टश्रुतधर्मतया मुनि: अपृष्टे इत्युच्यते। भाषासमितिक्रमानभिज्ञो मौनं गृह्णीयात् इत्यर्थ:। एवमादिको भासासमित्यतिचार;। = यह वचन बोलना योग्य है अथवा नहीं, इसका विचार न कर बोलना, वस्तु का स्वरूप ज्ञान न होने पर भी बोलना, ग्रंथांतर में भी 'अपुट्ठो दु ण भासेज्ज भासमाणस्स अंतरे' कोई पुरुष बोल रहा है और अपने प्रकरण को, विषय मालूम नहीं है तो बीच में बोलना अयोग्य है, जिसने धर्म का स्वरूप सुना नहीं अथवा धर्म के स्वरूप का ज्ञान नहीं ऐसे मुनि को अपृष्ट कहते हैं। भाषासमिति का क्रम जो जानता नहीं वह मौन धारण करे ऐसा अभिप्राय है, इस तरह भाषा समिति के अतिचार हैं।
5. एषणासमिति निर्देश
1. एषणासमिति का लक्षण
मू.आ./13,318 छादालदोससुद्धं कारणजुत्तं विसुद्धणवकोडी। सीदादी समभुत्ती परिसुद्धा एषणासमिदी।13। उग्गमउप्पादणएसणेहिं पिंडं च उवधि सज्जं च। सोधंतस्स य मुणिणो परिसुज्झइ एसणासमिदी।318। =1. उद्गमादि 46 दोषों (देखें आहार - II.4) कर रहित, भूख आदि मेंटना व धर्म साधन आदि कर युक्त, कृत-कारित आदि नौ विकल्पों कर विशुद्ध (रहित) ठंडा-गरम आदि भोजन में रागद्वेष रहित, समभाव कर भोजन करना, ऐसे आचरण करने वाले के एषणासमिति है।13। 2. उद्गम, उत्पाद, अशन दोषों से आहार, पुस्तक, उपधि, वसतिका को शोधने वाले मुनि के शुद्ध एषणासमिति है।318। ( भगवती आराधना/1197 ); ( तत्त्वसार/6/9 )
राजवार्तिक/9/5/6/594/21 अनगारस्य गुणरत्नसंचयसंवाहिशरीरशकटिसमाधिपत्तनं निनीषतोऽक्षम्रक्षणमिव शरीरधारणमौषधमिव जाठराग्निदाहोपशमनिमित्तमन्नाद्यनास्वादयो देशकालसामर्थ्यादिविशिष्टमगर्हितमभ्यवहरत: उद्गमोत्पादनैषणासंयोजनप्रमाणकारणांगारधूमप्रत्ययनवकोटिपरिवर्जनमेषणासमितिरिति समाख्यायते। =गुणरत्नों को ढोने वाली शरीररूपी गाड़ी को समाधि नगर की ओर ले जाने की इच्छा रखने वाले साधु का जठराग्नि के दाह को शमन करने के लिए औषधि की तरह या गाड़ी में ओंगन देने की तरह अन्नादि आहार को बिना स्वाद के ग्रहण करना एषणासमिति है। देश, काल और प्रत्यय इन नव कोटियों से रहित आहार ग्रहण किया जाता है। ( चारित्रसार/67/3 ); ( ज्ञानार्णव/18/10-11 ), ( अनगारधर्मामृत/4/167 )।
2. एषणासमिति के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/16/62/7 उद्गमादिदोषे गृहीतं भोजनमनुमननं वचसा, कायेन वा प्रशंसा, तै: सह वास:, क्रियासु प्रवर्तनं वा एषणासमितेरतीचार:। =उद्गमादि दोषों से सहित आहार लेना, मन से, वचन से, ऐसे आहार को सम्मति देना, उसकी प्रशंसा करना, ऐसे आहार की प्रशंसा करने वालों के साथ रहना, प्रशंसादि कार्य में दूसरों को प्रवृत्त करना। एषणासमिति के अतिचार हैं।
6. आदान निक्षेपण समिति निर्देश
1. आदान निक्षेपण समिति का लक्षण
मू.आ./14,319,320 णाणुवहिं संजमुवहिं सौचुवहिं अण्णमप्पमुवहिं वा। पयदं गहणणिक्खेवो समिदी आदाणणिक्खेवा।14। आदाणे णिक्खेवे पडिलेहिय चक्खुणा पमज्जेज्जो। दव्वं च दव्वठाणं संजमलद्धीए सो भिक्खू।319। सहसाणा भोइददुप्पमज्जिदअपच्चुवेक्खणा दोसा। परिहरमाणस्स हवे समिदी आदाणणिक्खेवा।320। =1. ज्ञान के उपकरण, संयम के उपकरण तथा शौच के उपकरण, व अन्य सांथरे आदि के निमित्त उपकरण, इनका यत्नपूर्वक उठाना, रखना वह आदान निक्षेपण समिति है। ( नियमसार/64 )। 2. ग्रहण और रखने में पीछी, कमंडलु आदि वस्तु को तथा वस्तु के स्थान को अच्छी तरह देखकर पीछी से जो शोधन करता है वह भिक्षु कहलाता है, यही आदान निक्षेपण समिति है।319। ( भगवती आराधना/1198 ), ( तत्त्वसार/6/10 ) शीघ्रता से बिना देखे, अनादर से, बहुत काल से रखे उपकरणों का उठाना-रखना स्वरूप दोषों का जो त्याग करता है उसके आदाननिक्षेपण समिति होती है।320।
राजवार्तिक/9/5/7/594/25 धर्माविरोधिनां परानुपरोधिनां द्रव्याणां ज्ञानादिसाधनानां ग्रहणे विसर्जने च निरीक्ष्य प्रमृज्य प्रवर्तनमादाननिक्षेपणा समिति:। =धर्मविरोधी और परानुपरोधी ज्ञान और संयम के साधक उपकरणों को देखकर और शोधकर रखना और उठाना आदाननिक्षेपण समिति है। ( चारित्रसार/74/2 ), ( ज्ञानार्णव/18/12-13 ), ( अनगारधर्मामृत/4/168/496 )।
2. आदान निक्षेपण समिति के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/16/62/8 आदातव्यस्य, स्थाप्यस्य वा अनालोचनं, किमत्र जंतव: संति न संति वेति दु:प्रमार्जनं च आदाननिक्षेपणसमित्यतिचार:। =जो वस्तु लेनी है, अथवा रखनी है वह लेते समय अथवा रखते समय, इसमें जीव हैं या नहीं इसका ध्यान नहीं करना तथा अच्छी तरह जमीन वा वस्तु स्वच्छ न करना आदान-निक्षेपण समिति के अतिचार हैं।
7. प्रतिष्ठापन समिति निर्देश
1. प्रतिष्ठापन समिति का लक्षण
मू.आ./15,321-325 एगंते अच्चित्ते दूरे गूढे विसालमविरोहे। उच्चारादिच्चओ पदिठावणिया हवे समिदी।15। वणदाहकिसिमसिकदे थंडिल्लेणुपरोधे वित्थिण्णे। अवगदजंतु विवित्ते उच्चारादी विसज्जेज्जो।321। उच्चारं पस्सवण्णं खेलं सिंघाणयादियं दव्वं। अच्चितभूमिदेसे पडिलेहित्ता विसज्जेज्जो।322। रादो दु पमज्जित्ता पण्णसमणपेक्खिदम्मि ओगासे। आसंकविसुद्धीए अपहत्थगफासणं कुज्जा।323। जदि तं हवे असुद्धं विदियं तदियं अणुण्णवे साहू। लघुए अणिछायारे ण देज्ज साधम्मिए गुरुयो।324। पदिठवणासमिदीवि य तेणेव कमेण वण्णिदा होदि। वोसरणिज्जं दव्वं कुथंडिले वोसरत्तस्स।325। =1. एकांतस्थान, अचित्तस्थान दूर, छिपा हुआ, बिल तथा छेदरहित चौड़ा, और जिसकी निंदा व विरोध न करे ऐसे स्थान में मूत्र, विष्ठा आदि देह के मल का क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति कही गयी है।15। ( नियमसार/65 ), ( ज्ञानार्णव/18/14 )। 2. दावाग्नि से दग्धप्रदेश, हलकर जुता हुआ प्रदेश, मसान भूमि का प्रदेश, खार सहित भूमि, लोग जहाँ रोकें नहीं, ऐसा स्थान, विशाल स्थान, त्रस जीवोंकर रहित स्थान, जनरहित स्थान - ऐसी जगह मूत्रादि का त्याग करे।321। ( भगवती आराधना/1199 ), ( तत्त्वसार/6/11 ) ( अनगारधर्मामृत/4/169/497 ) 3. विष्ठा, मूत्र, कफ, नाक का मैल, आदि को हरे तृण आदि से रहित प्रासुक भूमि में अच्छी तरह देखकर निक्षेपण करे।322। रात्रि में आचार्य के द्वारा देखे हुए स्थान को आप भी देखकर मूत्रादि का क्षेपण करे। यदि वहाँ सूक्ष्म जीवों की आशंका हो तो आशंका की विशुद्धि के लिए कोमल पीछी को लेकर हथेली से उस जगह को देखे।323। यदि पहला स्थान अशुद्ध हो तो दूसरा, तीसरा आदि स्थान देखे। किसी समय रोग पीड़ित होके अथवा शीघ्रता से अशुद्ध प्रदेश में मल छूट जाये तो उस धर्मात्मा साधु को प्रायश्चित्त न दे।324। ( अनगारधर्मामृत/4/169 ) उसी कहे हुए क्रम से प्रतिष्ठापना समिति भी वर्णन की गयी है उसी क्रम से त्यागने योग्य मल-मूत्रादि को उक्त स्थंडिल स्थान में निक्षेपण करें। उसी के प्रतिष्ठापना समिति शुद्ध है।325।
राजवार्तिक/9/5/8/594/28 स्थावराणां जंगमानां च जीवादीनाम् अविरोधेनांगमलनिर्हरणं शरीरस्य च स्थापनम् उत्सर्गसमितिरवगंतव्या। =जहाँ स्थावर या जंगम जीवों को विराधना न हो ऐसे निर्जंतु स्थान में मल-मूत्र आदिका विसर्जन करना और शरीर का रखना उत्सर्ग समिति है। ( चारित्रसार/74/3 )।
2. प्रतिष्ठापना शुद्धि का लक्षण
राजवार्तिक/9/6/16/597/32 प्रतिष्ठापनशुद्धिपर: संयत: नखरोमसिंघाणकनिष्ठीवनशुक्रोच्चारप्रस्रवणशोधने देहपरित्यागे च विदितदेशकालो जंतूपरोधमंतरेण प्रयतते। =प्रतिष्ठापन शुद्धि में तत्पर संयत देश और काल को जानकर नख, रोम, नाक, थूक, वीर्य, मल, मूत्र या देह परित्याग में जंतु बाधा का परिहार करके प्रवृत्ति करता है। ( चारित्रसार/80/1 )।
3. प्रतिष्ठापना समिति के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/16/62/9 कायभूम्यशोधनं, मलसंपातदेशानिरूपणादि, पवनसंनिवेशदिनकरादिषूत्क्रमेण वृत्तिश्च प्रतिष्ठापनसमित्यतिचार:। =शरीर व जमीन पिच्छिका से न पोंछना, मल-मूत्रादिक जहाँ क्षेपण करना है वह स्थान न देखना इत्यादि प्रतिष्ठापना समिति के अतिचार है।
2. निश्चय व्यवहार समिति समन्वय
1. समिति में सम्यग् विशेषण की आवश्यकता
सर्वार्थसिद्धि/9/5/411/9 सम्यग् इत्यनुवर्तते। तेनेर्यादयो विशेष्यंते। सम्यगीर्या सम्यग्भाषा...इति। =यहाँ 'सम्यक्' इस पद की अनुवृत्ति होती है। उससे ईर्यादिक विशेष्यपने को प्राप्त होते हैं - सम्यगीर्या सम्यग्भाषा...इत्यादि। ( राजवार्तिक/9/5/1/593/32 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/115/267/1 सम्यग्विशेषणाज्जीवनिकायस्वरूपज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा प्रवृत्तिर्गृहिता। =इस (समिति के) लक्षण में जो समिति का सम्यक् यह विशेषण है उसका भाव ऐसा है - जीवों के भेद और उनके स्वरूप के ज्ञान के साथ श्रद्धान गुण सहित जो पदार्थ उठाना, रखना, गमन करना, बोलना इत्यादि प्रवृत्ति की जाती है वही सम्यक् है।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/203 सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा तथैषणा सम्यक् । सम्यग्ग्रहणनिक्षेपो व्युत्सर्ग: सम्यगिति समिति:।203। =भले प्रकार गमन-आगमन, उत्तम हितमितरूप वचन, योग्य आहार का ग्रहण, पदार्थों का यत्नपूर्वक ग्रहण-विसर्जन, भूमि देखकर मूत्रादि का मोचन; नाम का सम्यग्व्युत्सर्ग, ये पाँच समिति हैं।
2. प्रमाद न होना ही सच्ची समिति है
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/335/10 बहुरि परजीवनि की रक्षाकै अर्थ यत्नाचार प्रवृत्ति ताकौं समिति मानैं हैं। सो हिंसा के परिणामनितैं तौ पाप हो है, अर रक्षा के परिणामनितें संवर कहोगे, तौ पुण्यबंध का कारण कौन ठहरैगा। बहुरि एषणासमिति विषैं दोष टालै है। तहाँ रक्षा का प्रयोजन है नाहीं। तातैं रक्षा ही कै अर्थ समिति नाहीं है। तौ समिति कैसैं हो है - मुनिनकैं किंचित् राग भए गमनादि क्रिया हो है। तहाँ तिन क्रियानिविषैं अति आसक्तता के अभावतैं प्रमादरूप प्रवृत्ति न हो है। बहुरि और जीवनिकौं दुखी करि अपना गमनादि प्रयोजन न साधै है। तातै स्वयमेव ही दया पलै है। ऐसै साँची समिति है।
3. समिति का उपदेश असमर्थजनों के लिए है
सर्वार्थसिद्धि/9/5/411/7 की उत्थानिका - तत्राशक्तस्य मुनेर्निरवद्यप्रवृत्तिख्यापनार्थमाह। =गुप्ति के पालन करने में अशक्त मुनि के निर्दोष प्रवृत्ति की प्रसिद्धि के लिए आगे का सूत्र कहते हैं। ( राजवार्तिक/9/6/1/594/19 ); ( तत्त्वसार/6/6 )।
4. समिति का प्रयोजन अहिंसाव्रत की रक्षा
सर्वार्थसिद्धि/9/5/411/10 ता एता: पंच समितयो विदितजीवस्थानादिविधेर्मुने: प्राणिपीड़ापरिहाराभ्युपाया वेदितव्या:। =इस प्रकार कही गयी ये पाँच समितियाँ जीव स्थानादि विधि को जानने वाले मुनि के प्राणियों की पीड़ा को दूर करने के उपाय जानने चाहिए।
लाटी संहिता/5/185 यथा समितय: पंच संति...। अहिंसाव्रतरक्षार्थं कर्तव्या देशतोऽपि तै:।185। =अहिंसा व्रत की रक्षा करने के लिए श्रावकों को पाँच समितियों का पालन अवश्य करना चाहिए।
5. समिति पालने का फल
भगवती आराधना/1201 पउमणिपत्तं व जहा उदयेण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं। तह समिदीहिं ण लिप्पइ साधू काएसु इरियंतो।1201। =स्नेहगुण से युक्त कमल का पत्र जल से लिप्त होता नहीं है तद्वत् प्राणियों के शरीर में विहार करने वाला यतिराज समितियों से युक्त होने से पाप से लिप्त होता नहीं।
सर्वार्थसिद्धि/9/5/411/11 प्रवर्तमानस्यासंयमपरिणामनिमित्तकर्मास्रवात्संवरो भवति। =इस प्रकार से (समितिपूर्वक) प्रवृत्ति करने वाले के असंयमरूप परिणामों के निमित्त से जो कर्मों का आस्रव होता है उसका संवर होता है।
पुराणकोष से
मुनि चर्या । यह पांच प्रकार की होती है― ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापना । हरिवंशपुराण 2.122-126