गणधर
From जैनकोष
== सिद्धांतकोष से ==
- गणधर देवों के गुण व ऋद्धियाँ
तिलोयपण्णत्ति/4/967 एदे गणधरदेवा सव्वे वि हु अट्ठरिद्धिसंपण्णा।=ये सब ही गणधर अष्ट ऋद्धियों से सहित होते हैं। ( धवला 9/4,1,44/ गा.42/128)
धवला 9/4,1,44/127/7 पंचमहव्वयधारओ तिगुत्तिगुत्तो पंचसमिदो णट्ठट्ठमदो मुक्कसत्तभओ बीजकोट्ठ-पदाणुसारि-संभिण्णसोदारत्तुवलक्खिओ उक्कट्ठोहिणाणेण...तत्ततवलद्धादो णीहारविवज्जिओ दित्ततवलद्धिगुणेण सव्वकालोववासो वि संतो सरीरतेजुज्जोइयदसदिसो सव्वोसहिलद्धिगुणेण सव्वोसहसरूवो अणंतबलादो करंगुलियाए तिहुवणचालणक्खमो अमियासवीलद्धिबलेण अंजलिपुडणिवदिदसयलाहारे अमियत्तेणेण परिणमणक्खमो महातवगुणेण कप्परुक्खोवमो महाणसक्खीणलद्धिबलेण सगहत्थणिवदिदाहाराणमक्खयभावुप्पायओ अघोरतवमाहप्पेण जीवाणं मण-वयण-कायगयासेसदुत्थियत्तणिवारओ सयलविज्जाहि सवियपादमूला आयासचारणगुणेण रक्खियासेसजीवणिवहो वायाए मणेण य सयलत्थसंपादणक्खमो अणिमादिअट्ठगुणेहि जियासेसदेवणिवहो वायाए मणेण य सयलत्थसंपादक्खमो अणिमादि अट्ठगुणेहि जियासेसदेवणिवहो तिहुवणजणजेट्ठओ परोवदेसेण विणा अक्खराणक्खरसरूवासेसभासंतरकुसलो समवसरणजणमेत्तरूवधारित्तणेण अम्हम्हाणं भासाहि अम्हम्हाणं चेव कहदि त्ति सव्वेसिं पच्चउप्पायओ समवसरणजणसोदिंदिएसु सगमुहविणिग्गयाणेयभासाणं संकरेण पवेसस्स विणिवारओ गणहरदेवो गंथकत्तारो, अण्णहा गंथस्स पमाणत्तविरोहादो धम्मरसायणेण समोसरणजणपोसणाणुववत्तीदो।=पाँच महाव्रतों के धारक, तीन गुप्तियों से रक्षित, पाँच समितियों से युक्त, आठ मदों से रहित, सात भयों से मुक्त, बीज, कोष्ठ पदानुसारी व संभिन्नश्रोतृत्व बुद्धियों से उपलक्षित, प्रत्यक्षभूत उत्कृष्ट अवधिज्ञान से युक्त...तप्त तप लब्धि के प्रभाव से मल, मूत्र रहित, दीप्त तपलब्धि के बल से सर्वकाल उपवास युक्त होकर भी शरीर के तेज से दशोंदिशाओं को प्रकाशित करने वाले, सर्वौषधि लब्धि के निमित्त से समस्त औषधियों स्वरूप, अनंत बलयुक्त होने से हाथ की कनिष्ठ अंगुलि द्वारा तीनों लोकों को चलायमान करने में समर्थ, अमृत-आस्रवादि ऋद्धियों के बल से हस्तपुट में गिरे हुए सर्व आहारों को अमृतस्वरूप से परिणमाने में समर्थ, महातप गुण से कल्पवृक्ष के समान, अक्षीणमहानस लब्धि के बल से अपने हाथ में गिरे आहार की अक्षयता के उत्पादक, अघोरतप ऋद्धि के माहात्म्य से जीवों के मन, वचन एवं कायगत समस्त कष्टों के दूर करने वाले, संपूर्ण विद्याओं के द्वारा सेवित चरणमूल से संयुक्त, आकाशचारण गुण से सब जीव समूह की रक्षा करने वाले, वचन और मन से समस्त पदार्थों के संपादन करने में समर्थ, अणिमादिक आठ गुणों के द्वारा सब देव समूह को जीतने वाले, तीनों लोकों के जनों में श्रेष्ठ, परोपदेश के बिना अक्षर व अनक्षर रूप सब भाषाओं में कुशल, समवसरण में स्थित जनमात्र के रूप के धारी होने से ‘हमारी हमारी भाषाओं से हम हमको ही कहते हैं’ इस प्रकार सबको विश्वास कराने वाले, तथा समवसरणस्थ जनों के कर्ण इंद्रियों में अपने मुँह से निकली हुई अनेक भाषाओं के सम्मिश्रित प्रवेश के निवारक ऐसे गणधरदेव ग्रंथकर्ता हैं, क्योंकि ऐसे स्वरूप के बिना ग्रंथ की प्रामाणिकता का विरोध होने से धर्म रसायन द्वारा समवसरण के जनों का पोषण बन नहीं सकता।
महापुराण/43/67 चतुर्भिरधिकाशीतिरिति स्रष्टुर्गणाधिपा: एते सप्तर्द्धिसंयुक्ता: सर्वे वेद्यनुवादिन:।67।=ऋषभदेव के सर्व (84) गणधर सातों ऋद्धियों से सहित थे और सर्वज्ञ देव के अनुरूप थे। ( हरिवंशपुराण/3/44 )
- गणधरों की ऋद्धियों का सद्भाव कैसे जाना जाता है
धवला 9/4,1,7/58/9 गणहरदेवेसु चत्तारि बुद्धिओ, अण्णहा दुवालसंगाणमणुप्पत्तिप्पसंगादो। तं कधं। ण ताव तत्थ कोट्ठबुद्धीएअभावो, उप्पण्णसुदणाणस्स अवट्ठाणेण विणा विणासप्पसंगादो।...ताए विणावगयतित्थय रवयणविणिग्गयअक्खराणवखरप्पयबहुलिंगलिगियबीजपदाणं गणहरदेवाणं दुवालसंगाभावप्पसंगादो।...ण च तत्थ पदाणुसारिसण्णिदणाणाभावो, बीजबुद्धीए अवगयसरूवेहिंतो कोट्टबुद्धिए पत्तावट्टाणेहिंतो बीजपदेहिंतो ईहावाएहिं विणा बीजपदुभयदिसाविसयसुदणाणक्खरपद-वक्क-तदट्ठविसयसुदणाणुप्पत्तीए अणुववत्तीदो। ण संंभिण्णसोदारत्तस्स अभावो, तेण विणा अक्खराणक्खप्पाए सत्तसदट्ठारसकुभास-भाससरूवाए णाणाभेदभिण्णबीजपदसरूवाए पडिक्खणमण्णण्णभावमुवगच्छंतीए दिव्वज्झुणीए गहणाभावादो दुवालसंगुप्पत्तीए अभावप्पसंगो त्ति।=गणधर देवों के चार बुद्धियाँ होती हैं, क्योंकि, उनके बिना बारह अंगों की उत्पत्ति न हो सकने का प्रसंग आवेगा। प्रश्न–बारह अंगों की उत्पत्ति न हो सकने का प्रसंग कैसे आवेगा? उत्तर—गणधरदेवों में कोष्ठ बुद्धि का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने पर अवस्थान के बिना उत्पन्न हुए श्रुतज्ञान के विनाश का प्रसंग आवेगा।...क्योंकि, उसके बिना गणधर देवों को तीर्थंकर के मुख से निकले हुए अक्षर और अनक्षर स्वरूप बहुत लिंगादिक बीज पदों का ज्ञान न हो सकने से द्वादशांग के अभाव का प्रसंग आवेगा।...बीजबुद्धि के बिना भी द्वादशांग की उत्पत्ति न हो सकती क्योंकि, ऐसा मानने में अतिप्रसंग दोष आवेगा। उनमें पादानुसारी नामक ज्ञान का अभाव नहीं है, क्योंकि बीजबुद्धि से जाना गया है स्वरूप जिनका तथा कोष्ठबुद्धि से प्राप्त किया है अवस्थान जिन्होंने ऐसे बीजपदों से ईहा और अवाय के बिना बीजपद की उभयदिशा विषयक श्रुतज्ञान तथा अक्षर, पद, वाक्य और उनके अर्थ विषयक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति बन नहीं सकती। उनमें संभिन्नश्रोतृत्व का अभाव नहीं है, क्योंकि उसके बिना अक्षरानक्षरात्मक, सात सौ कुभाषा और अठारह भाषा स्वरूप, नाना भेदों से भिन्न बीजपदरूप, व प्रत्येक क्षण में भिन्न-भिन्न स्वरूप को प्राप्त होने वाली ऐसी दिव्यध्वनि का ग्रहण न हो सकने से द्वादशांग की उत्पत्ति के अभाव का प्रसंग होगा। (अत: उनमें उपरोक्त बुद्धियाँ हैं।)
- भगवान् ऋषभदेव के चौरासी गणधरों के नाम
महापुराण/43/54-66 से उद्धृत–1.वृषभसेन; 2.कुंभ; 3. दृढरथ; 4.शतधनु; 5.देवशर्मा; 6.देवभाव; 7.नंदन; 8.सोमदत्त; 9.सूरदत्त; 10.वायुशर्मा; 11.यशोबाहु; 12.देवाग्नि; 13.अग्निदेव; 14.अग्निगुप्त; 15.मित्राग्नि; 16.हलभृत; 17.महीधर; 18.महेंद्र; 19.वसुदेव; 20.वसुंधर; 21.अचल; 22.मेरु; 23.मेरुधन; 24.मेरुभूति; 25.सर्वयश; 26.सर्वगुप्त; 27.सर्वप्रिय; 28.सर्वदेव; 29.सर्वयज्ञ; 30.सर्वविजय; 31.विजयगुप्त; 32.विजयमित्र; 33.विजयिल; 34.अपराजित; 35.वसुमित्र; 36.विश्वसेन; 37.साधुसेन; 38.सत्यदेव; 39.देवसत्य; 40.सत्यगुप्त; 41.सत्यमित्र; 42.निर्मल; 43.विनीत; 44.संवर; 45.मुनिगुप्त; 46.मुनिदत्त; 47.मुनियज्ञ; 48.मुनिदेव; 49.गुप्तयज्ञ; 50.मित्रयज्ञ; 51.स्वयंभू; 52.भगदेव; 53.भगदत्त; 54.भगफल्गु; 55.गुप्तफल्गु; 56.मित्रफल्गु; 57.प्रजापति; 58.सर्वसंघ; 59.वरुण; 60.धनपालक; 61.मघवान्; 62.तेजोराशि; 63.महावीर; 64.महारथ; 65.विशालाक्ष; 66.महाबाल; 67.शुचिशाल; 68.वज्र; 69.वज्रसार; 70.चंद्रचूल; 71.जय; 72.महारस; 73.कच्छ; 74.महाकच्छ; 75.नमि; 76.विनमि; 77.बल; 78.अतिबल; 79.भद्रबल; 80.नंदी; 81.महीभागी; 82.नंदिमित्र; 83.कामदेव; 84.अनुपम। इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव के चौरासी गणधर थे।
- भगवान् महावीर के 11 गणधरों के नाम
हरिवंशपुराण/3/41-43 इंद्रभूतिरिति प्रोक्त: प्रथमो गणधारिणाम् । अग्निभूतिर्द्वितीयश्च वायुभूतिस्तृतीयक:।41। शुचिदत्तस्तुरीयस्तु सुधर्म: पंचमस्तत:। षष्टो मांडब्य इत्युक्तो मौर्यपुत्रस्तु सप्तम:।42। अष्टमोऽकंपनाख्यातिरचलो नवमो मत:। मेदार्यो दशमोऽंत्यस्तु प्रभास: सर्व एव ते।43।=उन ग्यारह गणधरों में प्रथम इंद्रभूति थे। फिर 2. अग्निभूति; 3. वायुभूति 4. शुचिदत्त; 5.सुधर्म; 6.मांडव्य; 7.मौर्यपुत्र; 8.अकंपन; 9. अचल; 10.मेदार्य और अंतिम प्रभास थे। ( महापुराण/74/343-374 )
- उक्त 11 गणधरों की आयु
महापुराण/60/482-483 वीरस्य गणिनां वर्षाण्यायुर्द्वानवतिश्चतु:। विंशति: सप्ततिश्च स्यादशीति: शतमेव च।482। त्रयोऽशीतिश्च नवति: पंचभि: साष्टसप्तति:। द्वाभ्यां च सप्तति: षष्ठिश्चत्वारिंशच्च संयुता:।483।=महावीर भगवान् के गणधरों की आयु क्रम से 62 वर्ष, 24 वर्ष, 70 वर्ष, 80 वर्ष, 100 वर्ष, 83 वर्ष, 95 वर्ष, 78 वर्ष, 72 वर्ष, 60 वर्ष और 40 वर्ष है।482-483।
- 24 तीर्थंकरों के गणधरों की संख्या–देखें तीर्थंकर - 5।
- गणधर का दिव्यध्वनि में स्थान–देखें दिव्यध्वनि ।
पुराणकोष से
सर्वज्ञ देव के प्रमुख शिष्य । ये समस्त श्रुत के पारगामी, सातों ऋद्धियों के धारक, गणों के ईश और संघ के अधिप होते हैं । इंद्रभूति आदि ऐसे ही गणधर थे । महापुराण 2.51, 43. 67, 59. 108, 74.370-372, पद्मपुराण 3. 24, हरिवंशपुराण 3.40-41