ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 12-13
From जैनकोष
दंसणअणंतणाणं अणंतवीरिय अणंतसुक्खा य ।
सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मट्ठबंधेहिं ॥१२॥
णिरुवममचलमखोहा णिम्मिविया १जंगमेण रूवेण ।
सिद्धठ्ठाणम्मि ठिया वोसरपडिमा धुवा सिद्धा ॥१३॥
दर्शनानन्तज्ञानं अनन्तवीर्या: अनन्तसुखा: च ।
शाश्वतसुखा अदेहा मुक्ता: कर्माष्टकबन्धै: ॥१२॥
निरुपमा अचला अक्षोभा: निर्मापिता जङ्गमेन रूपेण ।
सिद्धस्थाने स्थिता: व्युत्सर्गप्रतिमा ध्रुवा: सिद्धा: ॥१३॥
आगे फिर कहते हैं -
हरिगीत
अनंतदर्शनज्ञानसुख अर वीर्य से संयुक्त हैं ।
हैं सदासुखमय देहबिन कर्माष्टकों से युक्त हैं ॥१२॥
अनुपम अचल अक्षोभ हैं लोकाग्र में थिर सिद्ध हैं ।
जिनवर कथित व्युत्सर्ग प्रतिमा तो यही ध्रुव सिद्ध है ॥१३॥
पहिले दो गाथाओं में तो जंगम प्रतिमा संयमी मुनियों की देहसहित कही । इन दो गाथाओं में ‘थिरप्रतिमा’ सिद्धों की कही, इसप्रकार जंगम थावर प्रतिमा का स्वरूप कहा । अन्य कई अन्यथा बहुत प्रकार से कल्पना करते हैं, वह प्रतिमा वंदन करने योग्य नहीं है ।
यहाँ प्रश्न यह तो परमार्थस्वरूप कहा और बाह्य व्यवहार में पाषाणादिक की प्रतिमा की वंदना करते हैं, वह कैसे ? इसका समाधान - जो बाह्य व्यवहार में मतान्तर के भेद से अनेक रीति प्रतिमा की प्रवृत्ति है, यहाँ परमार्थ को प्रधान कर कहा है और व्यवहार है वहाँ जैसा प्रतिमा का परमार्थरूप हो उसी को सूचित करता हो वह निर्बाध है । जैसा परमार्थरूप आकार कहा वैसा ही आकाररूप व्यवहार हो वह व्यवहार भी प्रशस्त है; व्यवहारी जीवों के यह भी वंदन करने योग्य है । स्याद्वाद न्याय से सिद्ध किये गये परमार्थ और व्यवहार में विरोध नहीं है ॥१२-१३ ॥
इसप्रकार जिनप्रतिमा का स्वरूप कहा ।