ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 27
From जैनकोष
जं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं तवं णाणं ।
तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि सतिभावेण ॥२७॥
यत् निर्मलं सुधर्मं, सम्यक्त्वं संयमं तप: ज्ञानम् ।
तत् तीर्थं जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन ॥२७॥
आगे फिर कहते हैं -
हरिगीत
यदि शान्त हों परिणाम निर्मलभाव हों जिनमार्ग में ।
तो जान लो सम्यक्त्व संयम ज्ञान तप ही तीर्थ है ॥२७॥
जिनमार्ग में तो इसप्रकार ‘तीर्थ’ कहा है । लोग सागर-नदियों को तीर्थ मानकर स्नान करके पवित्र होना चाहते हैं, वह शरीर का बाह्यमल इनसे कुछ उतरता है, परन्तु शरीर के भीतर का धातु-उपधातुरूप अन्तर्मल इनसे उतरता नहीं है तथा ज्ञानावरण आदि कर्मरूप मल और अज्ञान राग-द्वेष-मोह आदि भावकर्मरूप मल आत्मा के अन्तर्मल हैं, वह तो इनसे कुछ भी उतरते नहीं हैं, उल्टा हिंसादिक से पापकर्मरूप मल लगता है, इसलिए सागर-नदी आदि को तीर्थ मानना भ्रम है । जिससे तिरे सो ‘तीर्थ’ है इसप्रकार जिनमार्ग में कहा है, उसे ही संसारसमुद्र से तारनेवाला जानना ॥२७॥
इसप्रकार तीर्थ का स्वरूप कहा ।