ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 30
From जैनकोष
जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्णपावं च ।
हंतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो ॥३०॥
जराव्याधिजन्ममरणं चतुर्गतिगमनं पुण्यपावं च ।
हत्वा दोषकर्माणि भूत: ज्ञानमयश्चार्हन् ॥३०॥
आगे फिर कहते हैं -
हरिगीत
जन्ममरणजरा चतुर्गतिगमन पापरु पुण्य सब ।
दोषोत्पादक कर्म नाशक ज्ञानमय अरिहंत हैं ॥३०॥
पहिली गाथा में तो गुणों के सद्भाव से अरहंत नाम कहा और इस गाथा में दोषों के अभाव से अरहंत नाम कहा । राग, द्वेष, मद, मोह, अरति, चिंता, भय, निद्रा, विषाद, खेद और विस्मय ये ग्यारह दोष तो घातिकर्म के उदय से होते हैं और क्षुधा, तृषा, जन्म, जरा, मरण, रोग और स्वेद - ये सात दोष अघातिकर्म के उदय से होते हैं । इस गाथा में जरा, रोग, जन्म, मरण और चार गतियों में गमन का अभाव कहने से तो अघातिकर्म से हुए दोषों का अभाव जानना, क्योंकि अघातिकर्म में इन दोषों को उत्पन्न करनेवाली पापप्रकृतियों के उदय का अरहंत के अभाव है और रागद्वेषादिक दोषों का घातिकर्म के अभाव से अभाव है ।
यहाँ कोई पूछे - अर्हन्त को मरण का और पुण्य का अभाव कहा; मोक्षगमन होना यह ‘मरण’ अरहंत के है और पुण्यप्रकृतियों का उदय पाया जाता है, उनका अभाव कैसे ?
उसका समाधान - यहाँ मरण होकर फिर संसार में जन्म हो इसप्रकार के ‘मरण’ की अपेक्षा यह कथन है, इसप्रकार मरण अरहंत के नहीं है, उसीप्रकार जो पुण्यप्रकृति का उदय पापप्रकृति सापेक्ष करे इसप्रकार पुण्य के उदय का अभाव जानना अथवा बंध-अपेक्षा पुण्य का भी बंध नहीं है । सातावेदनीय बंधे वह स्थिति-अनुभाग बिना बंधतुल्य ही है ।
प्रश्न - केवली के असाता वेदनीय का उदय भी सिद्धान्त में कहा है, उसकी प्रवृत्ति कैसे है ?
उत्तर - इसप्रकार जो असाता का अत्यन्त मंद-बिल्कुल मंद अनुभाग उदय है और साता का अति तीव्र अनुभाग उदय है, उसके वश से असाता कुछ बाह्य कार्य करने में समर्थ नहीं है, सूक्ष्म उदय देकर खिर जाता है तथा संक्रमणरूप होकर सातारूप हो जाता है, इसप्रकार जानना ।इसप्रकार अनंत चतुष्टयसहित सर्वदोषरहित सर्वज्ञ वीतराग हो उसको नाम से ‘अरहंत’ कहते हैं ॥३०॥