ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 42-43-44
From जैनकोष
सुण्णहरे तरुहिट्ठे उज्जणे तह मसाणवासे वा ।
गिरिगुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा ॥४२॥
१सवसासत्तं तित्थं २वचचइदालत्तयं च वुत्तेहिं ।
जिणभवणं अह बेज्झं जिणमग्गे जिणवरा विंति ॥४३॥
पंचमहव्वयजुत्त पंचिंदियसंजया णिरावेक्खा ।
सज्झायझाणजुत्त मुणिवरवसहा णिइच्छन्ति ॥४४॥
शून्यगृहे तरुमूले उद्याने तथा श्मसानवासे वा ।
गिरिगुहायां गिरिशिखरे वा भीमवने अथवा वसतौ वा ॥४२॥
स्ववशासक्तं तीर्थं वचश्चैत्यालयत्रिकं च उक्तै: ।
जिनभवनं अथ वेध्यं जिनमार्गे जिनवरा विदन्ति ॥४३॥
पञ्चमहाव्रतयुक्ता: पञ्चेन्द्रियसंयता: निरपेक्षा: ।
स्वाध्यायध्यानयुक्ता: मुनिवरवृषभा: नीच्छन्ति ॥४४॥
आगे (११) प्रव्रज्या का निरूपण करते हैं, उसको दीक्षा कहते हैं । प्रथम ही दीक्षा के योग्य स्थानविशेष को तथा दीक्षासहित मुनि जहाँ तिष्ठते हैं, उसका स्वरूप कहते हैं -
हरिगीत
शून्यघर तरुमूल वन उद्यान और मसान में ।
वसतिका में रहें या गिरिशिखर पर गिरिगुफा में ॥४२॥
चैत्य आलय तीर्थ वच स्ववशासक्तस्थान में ।
जिनभवन में मुनिवर रहें जिनवर कहें जिनमार्ग में ॥४३॥
इन्द्रियजयी महाव्रतधनी निरपेक्ष सारे लोक से ।
निजध्यानरत स्वाध्यायरत मुनिश्रेष्ठ ना इच्छा करें ॥४४॥
यहाँ दीक्षायोग्य स्थान तथा दीक्षासहित दीक्षा देनेवाले मुनि का तथा उनके चिंतन योग्य व्यवहार का स्वरूप कहा है ॥४२-४३-४४ ॥