ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 8
From जैनकोष
बुद्धं जं बोहंतो अप्पाणं चेदयाइं अण्णं च ।
पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं ॥८॥
बुद्धं यत् बोधयन् आत्मानं चैत्यानि अन्यत् च ।
पञ्चमहाव्रतशुद्धं ज्ञानमयं ज्ञानीहि चैत्यगृहम् ॥८॥
आगे चैत्यगृह का निरूपण करते हैं -
हरिगीत
जानते मैं ज्ञानमय परजीव भी चैतन्यमय ।
सद्ज्ञानमय वे महाव्रतधारी मुनी ही चैत्यगृह ॥८॥
जो मुनि ‘बुद्ध’ अर्थात् ज्ञानमयी आत्मा को जानता हो, अन्य जीवों को ‘चैत्य’ अर्थात् चेतनास्वरूप जानता हो, आप ज्ञानमयी हो और पाँच महाव्रतों से शुद्ध हो, निर्मल हो, उस मुनि को हे भव्य ! तू ‘चैत्यगृह’ जान ।
जिसमें अपने को और दूसरे को जाननेवाला ज्ञानी निष्पाप-निर्मल इसप्रकार ‘चैत्य’ अर्थात् चेतनास्वरूप आत्मा रहता है, वह ‘चैत्यगृह’ है । इसप्रकार का चैत्यगृह संयमी मुनि है, अन्य पाषाण आदि के मंदिर को ‘चैत्यगृह’ कहना व्यवहार है ॥८॥