ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 15
From जैनकोष
जह फुल्लं गंधमयं भवति हु खीरं स घियमयं चावि ।
तह दंसणं हि सम्मं णाणमयं होइ रूवत्थं ॥१५॥
यथा पुष्पं गन्धमयं भवति स्फुटं क्षीरं तत् घृतमयं चापि ।
तथा दर्शनं हि सम्यक् ज्ञानमयं भवति रूपस्थम् ॥१५॥
आगे फिर कहते हैं -
हरिगीत
दूध घृतमय लोक में अर पुष्प हैं ज्यों गंधमय ।
मुनिलिंगमय यह जैनदर्शन त्योंहि सम्यक् ज्ञानमय ॥१५॥
जैसे फूल गंधमयी है, दूध घृतमयी है वैसे ही दर्शन अर्थात् मत में सम्यक्त्व है । कैसा है दर्शन ? अंतरंग तो ज्ञानमयी है और बाह्य रूपस्थ है-मुनि का रूप है तथा उत्कृष्ट श्रावक, अर्जिका का रूप है ।
‘दर्शन’ नाम मत का प्रसिद्ध है । यहाँ जिनदर्शन में मुनि, श्रावक और आर्यिका का जैसा बाह्य भेष कहा सो ‘दर्शन’ जानना और इसकी श्रद्धा सो ‘अंतरंग दर्शन’ जानना । ये दोनों ही ज्ञानमयी हैं, यथार्थ तत्त्वार्थ का जाननेरूप सम्यक्त्व जिसमें पाया जाता है इसीलिए फूल में गंध का और दूध में घृत का दृष्टांत युक्त है, इसप्रकार दर्शन का रूप कहा । अन्यमत में तथा कालदोष से जिनमत में जैनाभास भेषी अनेकप्रकार अन्यथा कहते हैं जो कल्याणरूप नहीं है, संसार का कारण है ॥१५॥