ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 17
From जैनकोष
तस्स य करह पणामं सव्वं पुज्जं च विणय वच्छल्लं ।
जस्स य दंसण णाणं अत्थि धुवं चेयणाभावो ॥१७॥
तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वां पूजां च विनयं वात्सल्यम् ।
यस्य च दर्शनं ज्ञानं अस्ति ध्रुवं चेतनाभाव: ॥१७॥
आगे फिर कहते हैं -
हरिगीत
सद्ज्ञानदर्शन चेतनामय भावमय आचार्य को ।
अतिविनय वत्सलभाव से वंदन करो पूजन करो ॥१७॥
इसप्रकार पूर्वोक्त जिनबिंब को प्रणाम करो और सर्वप्रकार पूजा करो, विनय करो, वात्सल्य करो, क्योंकि उसके ध्रुव अर्थात् निश्चय से दर्शन-ज्ञान पाया जाता है और चेतनाभावहै ।
दर्शन-ज्ञानमयी चेतनाभावसहित जिनबिंब आचार्य हैं, उनको प्रणामादिक करना । यहाँ परमार्थ प्रधान कहा है, जड़ प्रतिबिंब की गौणता है ॥१७॥