अहिंसा
From जैनकोष
जैन धर्म अहिंसा प्रधान है, पर अहिंसाका क्षेत्र इतना संकुचित नहीं है जितना कि लोकमें समझा जाता है : इसका व्यापार बारह व भीतर दोनों और होता है। बाहरमें तो किसी भी छोटे या बड़े जीवको अपने मनसे या वचनसे या कायसे, किसी प्रकारकी भी हीन या अधिक पीड़ा न पहुँचाना तथा उसका दिल न दुखाना अहिंसा है, और अंतरंगमें राग द्वेष परिणामोंसे निवृत्त होकर साम्यभावमें स्थित होना अहिंसा है। बाह्य अहिँसाको व्यवहार और अंतरंगको निश्चय कहते हैं। वासत्वमें अंतरंगमें आंशिक सभ्यता आये बिना अहिंसा संभव नहीं, और इस प्रकार इसके अतिव्यापक रूपमें सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य आदि सभी सद्गुण समा जाते हैं। इसीलिए अहिंसाको परम धर्म कहा जाता है। जल थल आदिमें सर्वत्र ही क्षुद्र जीवोंका सद्भाव होनेके कारण यद्यपि बाह्य में पूर्ण अहिंसा पलनी असंभव है, पर यदि अंतरंगमें साम्यता और बाहरमें पूरा-पूरा यत्नाचार रखनेमें प्रमाद न किया जाय तो बाह्य जीवोंके मरने पर भी साधक अहिंसक ही रहता है।
- अहिंसा निर्देश
- अहिंसा अणुव्रतका लक्षण
- अहिंसा महाव्रतका लक्षण
- अहिंसाणुव्रतके पाँच अतिचार
- अहिंसा महाव्रतकी भावनाएँ
- अहिंसा अणुव्रतकी भावनाएँ
- निश्चय अहिंसाकी कथंचित् प्रधानता
- प्रमाद व रागादिका अभावही अहिंसा है
- निश्चय अहिंसाके बिना अहिंसा संभव नहीं
- परकी रक्षा आदि करनेका अहंकार अज्ञान है
- अहिंसा सिद्धांत स्वरक्षार्थ है न कि पररक्षार्थ
- अहिंसा व्रतकी कथंचित् प्रधानता
- निश्चित व्यवहार अहिंसा समन्वय?
1. अहिंसा निर्देश
• निश्चिय अहिंसाका लक्षण - देखें अहिंसा - 2.1।
1. अहिंसा अणुव्रतका लक्षण
रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 53 संकल्पात् कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्वाम्। न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलवधाद्विरमणं निपुणः ॥53॥
= मन, वचन, कायके संकल्पसे और कृत, कारित, अनुमोदनासे त्रस जीवोंको जो नहीं हनता, गणधरादिक निपुण पुरुष स्थूल हिंसामें विरक्त होना अर्थात् अहिंसाणुव्रत कहते हैं।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/20/358/7); (राजवार्तिक अध्याय 7/20/1/547/6); ( सागार धर्मामृत अधिकार 4/7)।
वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 209 जे तसकाया जीवा पुव्वुद्दिट्ठा ण हिंसियव्वा ते। एइंदिया वि णिक्कारणेण पढमं वयं थूलं ॥209॥
= जो त्रस जीव पहिले बताये गये हैं, उन्हें नहीं मारना चाहिए और निष्कारण अर्थात् बिना प्रयोजन एकेंद्रिय जीवोंको भी नहीं मारना चाहिए। यह पहिला स्थूल अहिंसा व्रत है।
( सागार धर्मामृत अधिकार 4/10)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 331-332 जो वावरेइ सदओ अप्पाणसमं परं पि मण्णंतो। णिंगण गहरण-जुत्तो परिहरमाणो महारंभे ॥331॥ तसघादं जो ण करदि मणवयकाएहि णेव कारयदि। कुव्वंतं पि ण इच्छदि पढमवयं जायदे तस्स ॥332॥
= जो श्रावक दयापूर्ण व्यापार करता है, अपने ही समान दूसरोंको मानता है, अपनी निंदा और गर्हा करता हुआ महा आरंभको नहीं करता ॥331॥ तथा जो मन, वचन व कायसे त्रस जीवोंका घात न स्वयं करता है, न दूसरोंसे कराता है और न दूसरा करता हो उसे अच्छा उसे अच्छा मानता है, उस श्रावकके प्रथम अहिंसाणुव्रत होता है।
2. अहिंसा महाव्रतका लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 5,289 कायेंदियगुणमग्गण कुलाउजोणीसु सव्वजीवाणं। णाऊण य ठाणादिसु हिंसादिविवज्जणमहिंसा ॥5॥ एइंदियादिपाणा पंचविधावज्जभीरुणा सम्मं। ते खलु ण हिंसितव्वा मणवचिकायेण सव्वत्थ ॥289॥
= काय, इंद्रिय, गुणस्थान, मार्गणास्थान, कुल, आयु, योनि-इनमें सब जीवोंको जानकर कायोत्सर्गादि क्रियाओमें हिंसा आदिका त्याग करना अहिंसा महाव्रत है ॥5॥ सब देश और सब कालमें मन वचन कायसे एकेंद्रियसे लेकर पंचेंद्रिय प्राणियोंके प्राण पाँच प्रकारके पापोंसे डरनेवालेको घातने चाहिए, अर्थात् जीवोंकी रक्षा करना अहिंसाव्रत है ॥289॥
( नियमसार / मूल या टीका गाथा .56)
3. अहिंसाणुव्रतके पाँच अतिचार
ता.सू.7/25 बंधवधच्छेदातिभारारोपणांनपाननिरोधाः।
= बंध, वध, छेद, अतिभाररोपण, अन्नपानका निरोध, ये अहिंसाणुव्रतके पाँच अतिचार हैं।
सागार धर्मामृत अधिकार 4/19 मत्रादिनापि बंधादिः कृतो रज्ज्वादिवन्मलः। तत्तथा यत्नीयं स्यान्न यथा मलिनं व्रतं ॥19॥
= मंत्रादिके द्वारा भी किया गया बंधनादिक रस्सी वगैरहसे किये गये बंधकी तरह अतिचार होता है। इसलिए उस प्रकारसे यत्न पूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए, जिस प्रकारसे कि व्रत मलिन न होवे।
4. अहिंसा महाव्रतकी भावनाएँ
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/4 वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्थालोकितपानभोजनानिपञ?्च ॥4॥
= वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकित पान भोजन (अर्थात् देख शोधकर भोजन पान ग्रहण करना) ये अहिंसाव्रतकी पाँच भावनाएँ हैं।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 337); ( चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 31)
5. अहिंसा अणुव्रतकी भावनाएँ
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/9,347/3 हिंसायां तावत्, हिंस्री हि नित्योद्वेजनीयः सततानुबद्धवैरश्च इह च वधबंधपरिक्लेशादीं प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति हिंसाया व्युपरमः श्रेयान्।..एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम्।
= हिंसामें यथा-हिंसक निरंतर उद्वेजनीय हैं' वह सदा वैरको बाँधे रहता है, इस लोकमें वध, बंध और क्लेश आदिको प्राप्त होता है, तथा परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है, और गर्हित भी होता है, इसलिए हिंसाका त्याग श्रेयस्कर है।..इस प्रकार हिंसादि दोषोंमें अपाय और अवद्यके दर्शनकी भावना करनी चाहिए।
• व्रतोंकी भावना व अतिचार - देखें व्रत - 2।
• साधुजन पशु पक्षियोंका मार्ग छोड़कर गमन करते हैं - देखें समिति - 1.3
2. निश्चय अहिंसाकी कथंचित् प्रधानता
1. प्रमाद व रागादिका अभावही अहिंसा है
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 803,806 अत्ता चेव अहिंसा अत्ता हिंसत्ति णिच्छओ समये। जो होदि अप्पमत्तो अहिंसगो हिंसगो इदरो ॥803॥ जदि सुद्धस्स य बंधो होहिदि बाहिरंगवत्थुजोगेण। णत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायवादिबधहेदु ॥806॥
= आत्मा की हिंसा है और वह ही अहिंसा है, ऐसा जिनागममें निश्चय किया है। अप्रमत्तको अहिंसक और प्रमत्तको हिंसक कहते हैं ॥803॥ यदि रागद्वेष रहित आत्माको भी बाह्य वस्तुमात्रके संबंधसे बंध होगा, तो `जगतमें कोई भी अहिंसक नहीं है', ऐसा मानना पड़ेगा, क्योंकि, मुनि जन भी वायुकायिकादि जीवोंके वधके हेतु हैं ॥806॥
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/22/363/10 पर उद्धृत-रागादोपमणुप्पा अहिंसगत्तं त्ति देसिदं समये। तेसिं चे अप्पत्ती हिंसेत्ति जिणेहि णिद्दिट्ठा।
= शास्त्रमें यह उपदेश है कि रागादिकका नहीं उत्पन्न होना अहिंसा है। तथा जिनदेवने उनकी उत्पत्तिको हिंसा कहा है।
( कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1/42/102) ( पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक उ.44) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 4/26)
धवला पुस्तक 14/5,6,93/5/90 स्वयं ह्यहिंसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत्। प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसाकः ॥5॥
= अहिंसा स्वयं होती है और हिंसा भी स्वयं ही होती है। यहाँ ये दोनों पराधीन नहीं है। जो प्रमाद रहित है वह अहिंसक है और जो प्रमाद युक्त है वह सदा हिंसक है।
प्र.सा/त.प्र.217-218 अशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिंसाभावप्रसिद्धेस्तथा तद्विनाभाविना प्रयताचरेण प्रसिद्ध्यदशुद्धोपयोगासद्भावपरस्य परप्राणव्यपरोपसद्भावेऽपि बंधाप्रसिद्ध्या सुनिश्चितहिंसाऽभावप्रसिद्धेश्चांतरंग एव छेदो बलीयान् न पुनर्बहिरंगः ॥217॥ ...यदशुद्धोपयोगासद्भावः ...निरुपलेपत्वप्रसिद्धेरहिंसक एव स्यात् ॥218॥
= अशुद्धोपयोगका सद्भाव जिसके पाया जाता है उसके हिंसाके सद्भावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है; और इस प्रकार जो अशुद्धोपयोगके बिना होता है ऐसे प्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोगका असद्भाव जिसके पाया जाता है उसके परप्राणोंके व्यपरोपके सद्भावमें भी बंधकी अप्रसिद्धि होनेसे हिंसाके अभावकी प्रसिद्ध सुनिश्चित है अतः अंतरंग छेद ही विशेष बलवान है बहिरंग नहीं ॥217॥ अशुद्धोपयोगका असद्भाव अहिंसक ही है, क्योंकि उसे निर्लेपत्वकी प्रसिद्धि है ॥218॥
( नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 56) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 4/23)
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक उ.51 अविधायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्येकः। कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात्।
= निश्चय कर कोई जीव हिंसाको न करके भी हिंसा फलके भोगनेका पात्र होता है और दूसरा हिंसा करके भी हिंसाके फलको भोगनेका पात्र नहीं होता है, अर्थात् फलप्राप्ति परिणामोके आधीन है, बाह्य हिंसाके आधीन नहीं।
2. निश्चय अहिंसाके बिना अहिंसा संभव नहीं
नि.सा/ता.वृ.56 तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणामंतरेण सावद्यपरिहारो न भवति।
= उन (बाह्य प्राणियों) का मरण हो या न हो, प्रयत्नरूप परिणामके बिना सावद्यपरिहार नहीं होता।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/68 अहिंसालक्षणो धर्मः, सोऽपि जीवशुद्धभावं बिना न संभवति।
= धर्म अहिंसा लक्षणवाला है, और वह अहिंसा जीवके शुद्ध भावोंके बिना संभव नहीं।
3. परकी रक्षा आदि करनेका अहंकार अज्ञान है
समयसार / 253 जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते ति। सो मूढी अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो।
= जो यह मानता है कि अपने द्वारा मैं (पर) जीवोंको दुखी सुखी करता हूँ, वह मूढ (मोही) है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है वह ज्ञानी है।
( योगसार अमितगति| योगसार अधिकार 4/12)
4. अहिंसा सिद्धांत स्वरक्षार्थ है न कि पररक्षार्थ
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 756 आत्मेतरांगिणामंगरक्षणं यन्मतं स्मृतौ। तत्परं स्वात्मरक्षायाः कृतेनातः परत्र तत् ॥156॥
= इसलिए जो आगममें स्व और अन्य प्राणियोंकी अहिंसाका सिद्धांत माना गया है, वह केवल स्वात्म रक्षाके लिए ही है, परके लिए नहीं।
3. अहिंसा व्रतकी कथंचित् प्रधानता
1. अहिंसा व्रतका माहात्म्य
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 822 पाणो वि पाडिहेरं पत्तो छूडो वि संसुमारहदे। एगेण एक्कदिवसक्कदेण हिंसावदगुणेण।
= स्वरूप काल तक पाला जानेपर भी यह अहिंसा व्रत प्राणीपर महान् उपकार करता है। जैसे कि शिंशुमार हृदमें फेंके चांडालने अल्पकालतक ही अहिंसाव्रत पालन किया था। वह इस व्रतके महात्म्यसे देवोंके द्वारा पूजा गया।
ज्ञानार्णव अधिकार 8/32 अहिंसैव जगंमाताऽहिंसैवानंदपद्धतिः। अहिंसैव गतिः साध्वी श्रीरहिंसैव शाश्वती ॥32॥
= अहिंसा ही तो जगत्की माता है क्योंकि समस्त जीवोंका परिपालन करनेवाली है; अहिंसा ही आनंदकी संतति है; अहिंसा ही उत्तम गति और शाश्वती लक्ष्मी है। जगत्में जितने उत्तमोत्तम गुण हैं वे सब इस अहिंसा ही में हैं।
अमितगति श्रावकाचार अधिकार 11/5 चामीकरमयीमूर्वीददानः पर्वतैः सह। एकजीवाभयंनून ददानस्य समः कृतः ॥5॥
= पर्वतोंसहित स्वर्णमयी पृथिवीका दान करनेवाला भी पुरुष एक जीवकी रक्षा करनेवाले पुरुषके समान कहाँसे हो सकता है।
भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 134/283 पर उद्धृत “एका जीवदयैकत्र परत्र सकलाः क्रियाः। परं फलं तु सर्वत्र कृषेश्चिंतामणेरिव ॥1॥ आयुष्यमान् सुभगः श्रीमान् सुरूपः कीर्तिमान्नरः। अहिंसाव्रतमाहात्म्यादेकस्मादेव जायते ॥2॥
= एक जीवदयाके द्वाराही चिंतामणिकी भाँति अन्य सकल धार्मिक क्रियाओंके फलकी प्राप्ति हो जाती है ॥1॥ अयुष्मान् होना, सुभगपना, धनवानपना, सुंदर रूप, कीर्ति आदि ये सब कुछ मनुष्यको एक अहिंसा व्रतके माहात्म्यसे ही प्राप्त हो जाते हैं ॥2॥
2. सर्व व्रतोमें अहिंसाव्रत ही प्रधान है
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 784-790 णत्थि अणुदो अप्पं आयासादो अणूणयं णत्थि। जह तह जाण महल्लं ण वयमहिंसासमं अत्थि ॥784॥ सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं। लव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा हु ॥790॥
= इस जगत्में अणुसे छोटी दूसरी वस्तु नहीं है और आकाशसे भी बड़ी कोई चीज नहीं है। इस प्रकार अहिंसा व्रतसे दूसरा कोई बड़ा व्रत नहीं है ॥784॥ यह अहिंसा सर्व आश्रमोंका हृदय है, सर्व शास्त्रोंका गर्भ है और सर्व व्रतोंका निचोड़ा हुआ सार है ॥790॥
कुरल काव्य परिच्छेद 33/3 अहिंसा प्रथमो धर्मः सर्वेषामिति सन्मतिः। ऋषिभिर्बहुधा गीतं सूनृतं तदनंतरम् ॥3॥
= अहिंसा सब धर्मोंमें श्रेष्ठ है। ऋषियोंने प्रायः उसकी महिमाके गीत गाये हैं। सच्चाईकी श्रेणी उसके पश्चात् आती है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/1/343/4 तत्र अहिंसा व्रतमादौ क्रियते प्रधानत्वात्। सत्वादीनि हि तत्परिपालनार्थादीनि सस्यस्य वृत्तिपरिक्षेपवत्।
= इन पाँचो व्रतोंमें अहिंसा व्रतको (सूत्रकारने) प्रारंभमें रखा है, क्योंकि वह सबमें मुख्य है। धान्यके खेतके लिए जैसे उसके चारों और काँटोंका घेरा होता है उसी प्रकार सत्यादिक सभी व्रत उसकी रक्षा के लिए हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 7/1/6/534/1)
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक उ.42 आत्मपरिणामहिंसनं हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत्। अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥42॥
= आत्म परिणामोंका हनन करनेसे असत्यादि सब हिंसा ही हैं। असत्य वचन आदि ग्रहण तो केवल शिष्य जनोंको उस हिंसाका बोध कराने मात्रके लिए है।
ज्ञानार्णव अधिकार 8/7,30,31,42 सत्याद्युत्तरनिःशेषयमजातनिबंधनम्। शीलैश्चर्याद्यधिष्ठानमहिंसाख्य महाव्रतम् ॥7॥ एतत्समयसर्वस्वमेतत्सिद्धिंतजीवितम्। यज्जंतुजातरक्षार्थं भावशुद्ध्या दृढं व्रतम् ॥30॥ श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च। अहिंसालक्षणो धर्मः तद्विपक्षश्च पातकम् ॥31॥ तपःश्रुतमयज्ञानध्यानदानादिकर्मणां। सत्यशीलव्रतादीनामहिंसा जननी मता ॥42॥
= अहिंसा महाव्रत सत्यादिक अगले 4 महाव्रतोंका तो कारण है, क्योंकि वे बिना अहिंसाके नहीं हो सकते। और शीलादि उत्तर गुणोंकी चर्याका स्थान भी अहिंसा ही है ॥7॥ वही तो समय अर्थात् उपदेशका सर्वस्व है, और वही सिद्धांतका रहस्य है, जो जीवोंके समूहकी रक्षाके लिए हो। एव वही भाव शुद्धिपूर्वक दृढ़व्रत है ॥30॥ समस्त मतोंके शास्त्रोमें यही सुना जाता है, कि अहिंसा लक्षण तो धर्म है और इसका प्रतिपक्षी हिंसा करना ही पाप है ॥31॥ तप, श्रुत, यम, ज्ञान, ध्यान और दान करना तथा सत्य, शील व्रतादिक जितने भी उत्तम कार्य हैं उन सबकी माता एक अहिंसा हो है ॥42॥
( ज्ञानार्णव अधिकार 9/2)
3. व्रतके बिना अहिंसक भी हिंसक है
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक उ.48 हिंसायमाविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा। तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥48॥
= हिंसामें विरक्त न होना हिंसा है और हिंसारूप परिणमना भी हिंसा होती है। इसलिए प्रमादके योगमें निरंतर प्राण घातका सद्भाव है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 217 प्राणव्यपरोपसद्भावे तदसद्भावे वा तदविनाभाविनाप्रयताचारेण प्रसिद्व्यदशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिंसाभाव प्रसिद्धेः।
= प्राणके व्यपरोपका सद्भाव हो या असद्भाव, जो अशुद्धोपयोगके बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोग जिसके पाया जाता है उसके हिंसाके सद्भावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है।
4. निश्चित व्यवहार अहिंसा समन्वय?
1. सर्वत्र जीवोंके सद्भावमें अहिंसा कैसे पले
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1012-1013 कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये। कधं भुंजज्ज भासिज्ज कधं पावं ण वज्झदि ॥1012॥ जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये। जदं भुंजज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झई ॥1013॥
= प्रश्न - इस प्रकार कहे गये क्रमकर जीवोंसे भरे इस जगत् में साधु किस तरह गमन करे, कैसे तिष्ठै, कैसे बैठे, कैसे सोये, कैसे भोजन करे, कैसे बोले, कैसे पापसे न बंधे? उत्तर - यंताचारसे गमन करे, यत्नसे तिष्ठे, पीछीसे शोधकर यंतसे बैठे, शोधकर रात्रिमें यंतसे सोवे, यंतसे दोष रहित आहार करे, भाषा समितिपूर्वक यत्नसे बोले। इस प्रकार पापसे नहीं बंध सकता।
राजवार्तिक अध्याय 7/13/12/541/5 में उद्धृत-जले जंतुः स्थले जंतुराकाशे जंतुरेव च। जंतुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसकः। सोऽत्रावकाशे न लभते। भिक्षोर्ज्ञानध्यानपरायणस्य प्रमत्तयोगाभावात्। किंच सूक्ष्मस्थूलजीवाभ्युपगमात्। सूक्ष्मा न प्रतिपीड्यंते प्राणिनः स्थूलमूर्तयः। ये शक्यास्ते विवर्ज्यंते का हिंसा संयतात्मनः।
= प्रश्न - जलमें, स्थलमें और आकाशमें सब जगह जंतु ही जंतु हैं। इस जंतुमय जगतमें भिक्षु अहिंसक कैसे रह सकता है” उत्तर - इस शंकाको यहाँ अवकाश नहीं है, क्योंकि, ज्ञानध्यानपरायण अप्रमत्त भिक्षुको मात्र प्राणवियोगसे हिंसा नहीं होती। दूसरी बात यह है कि जीव भी सूक्ष्म व स्थूल दो प्रकारके हैं। उनमें जो सूक्ष्म हैं वे तो न किसीसे रूकते हैं, और न किसीको रोकते हैं, अतः उनकी तो हिंसा होता नहीं है। जो स्थूल जीव हैं उनकी यथा शक्ति रक्षा की जाती है। जिनकी हिंसाका रोकना शक्य है उसे प्रयत्न पूर्वक रोकनेवाले संयतके हिंसा कैसे हो सकती है?
सागार धर्मामृत अधिकार 4/22-23 कषायविकथानिद्राप्रणयाक्षविनिग्रहात्। नित्योदयां दयां कृर्यात्पापध्वांतरविप्रभां ॥22॥ विष्वग्जीवचिते लोके क्व चरन्कोऽप्यभोक्ष्यत। भावैकसाधनौ बंधमोक्षौ चेन्नाभविष्यतां ॥23॥
= अहिंसाणुव्रतको निर्मल करनेकी इच्छा रखनेवाला श्रावक कषाय, विकथा, निद्रा, मोह, और इंद्रयोंके विधिपूर्वक निग्रह करनेसे पापरूपी अंधकारकी नष्ट करनेके लिए सूर्यकी प्रभाके समान, तथा नित्य है उदय जिसका, ऐसी दयाको करो ॥22॥ यदि परिणाम ही है एक प्रधान कारण जिनका ऐसे बंध और मोक्ष न होते, अर्थात् यदि बंध और मोक्षके प्रधान कारण परिणाम या भाव न होते तो चारों तरफसे जीवोंके द्वारा भरे हुए संसारमें कहींपर भी चेष्टा करनेवाला कोई भी मुमुक्षु पुरुष मोक्षको प्राप्त न कर सकता।
2. निश्चत अहिंसाको अहिंसा करनेका कारण
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/125 रागाद्यभावो निश्चयेनाहिंसा भण्यते। कस्मात्। निश्चयशुद्धचैतन्यप्राणस्य रक्षाकारणात्।
= रागादिके अभावको निश्चयसे अहिंसा कहते हैं; क्योंकि, यह निश्चय शुद्ध चैतन्यप्राणकी रक्षाका कारण है।
• अंतरंग व बाह्य हिंसाका समन्वय - दे हिंसा