वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 20
From जैनकोष
संखिज्मसंखिज्जगुणं च संसारिमेंरुमत्ताणं ।
सम्मत्तमणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा ।।20।।
(64) सम्यक्त्वाचरण का प्रताप―यह चारित्रपाहुड नाम का ग्रंथ है, इसमें चारित्र का वर्णन किया, तो सर्वप्रथम चारित्र दो प्रकार कहे―(1) सम्यक्त्वाचरण और (2) संयमाचरण । सम्यक्त्वाचरण तो अविरत सम्यग्दृष्टि के भी होता । सम्यग्ज्ञान के होने पर जिस आत्म प्रीति वाला आचरण होता है, धर्मपोषक आचरण होता है वह सम्यक्त्वाचरण हें । तो सम्यक्त्वाचरण में ही यह सम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुनी और असंख्यातगुनी कर्मों की निर्जरा करता है । तो यह कब तक कर्मों का क्षय है जब तक कि मुक्ति नहीं होती, और सम्यक्त्वाचरण के रहते हुए भी कर्मों का क्षय है तो संख्यातगुनी और असंख्यातगुनी कर्मों की निर्जरा है । जिस काल में सम्यक्त्व उत्पन्न हो रहा है उस प्रथम अंतर्मुहूर्त में तो असंख्यातगुणी श्रेणी निर्जरा चलती है, अभी जितने कर्म क्षय हुए हें दूसरे समय में असंख्यातगुने कर्म, तीसरे समय में असंख्यातगुने कर्म दूर हो गए, पर सम्यक्त्व हो चुकने के बाद फिर असंख्यातगुनी निर्जरा नहीं चलती, फिर चलती रहती है संख्यातगुनी, ऐसा समझियेगा, ऐसा ही अणुव्रत महाव्रत होते समय भी होता है, जब कोई मुनि हो रहा है, प्रथम ही प्रथम सप्तम गुणस्थान हुआ, मुनिव्रत ले रहा तो उस समय उसके असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा चलती है । फिर महाव्रत हुए बाद असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती । होती है निर्जरा, मगर असंख्यात गुणश्रेणी नहीं होती । और इसका अनुमान यों कर लीजिए कि जिस समय कोई व्रत लेता है उस समय के भाव कितने ऊंचे होते हैं और व्रत ले चुकने के बाद फिर इतने ऊंचे भाव नहीं रहते । व्रत निभाता हे, चलता है, मगर वह विशुद्धि का वेग बाद में नहीं रहता, व्रत लेते समय रहता है । सम्यक्त्व उदित होते समय विशुद्धि का बड़ा वेग चलता है । सम्यक्त्व हुए बाद जब कार्य ही सिद्ध हो गया तो वेग की आवश्यकता भी क्या? और वहाँ फिर साधारणतया कर्मनिर्जरा चलती है । तो सम्यक्त्वाचरण करने वाले पुरुषों के संख्यातगुणी असंख्यातगुणी निर्जरा है और फिर कर्मज दुःख दूर हो जाते हैं । जितने भो संसार में दुःख हैं उन सबका कारण मोहकर्म है । मोह दो प्रकार का है―(1) दर्शनमोह और (2) चारित्रमोह । जिसके दर्शनमोह नहीं रहा वह अंतरंग में व्यग्र नहीं होता । चारित्रमोह के उदय से क्षोभ तो आता है सम्यग्दृष्टि के भी, मगर अंदर में वह किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं होता कि अब क्या करूं? मेरा नाश ही हो रहा । तो दर्शनमोह में तो है बेहोशी, अपने आपकी सुध नहीं, इसलिए वह व्यग्र है ।
(65) ज्ञानी की निर्व्यग्रता का कारण―यदि दर्शनमोह न रहे, चारित्रमोह का विपाक चले तो समय-समय पर अंतस्तत्त्व का ध्यान बना रहेगा, पर चारित्रमोह के उदय से प्रवृत्ति ऐसी ही रहेगी जैसी कि बाहर में अज्ञानियों की भी दिखती, लेकिन भीतर में उसका (ज्ञानी का) आशय निर्मल है इसलिए वह निर्व्यग्र रहता है । इस ज्ञानी ने अपने आपको अकेला निरखा, यह मैं अपनी गुगापर्यायोंमय स्वयं केवल एक अकेला हूँ, इसका किसी भी अन्य पदार्थ से अणुमात्र भी संबंध नहीं है । यह मैं अकेला हूँ, यहाँ अकेला हूँ जहाँ जाऊंगा वहाँ अकेला हूँ इस अकेले में विपत्ति ही क्या है? तो अपने आपके इस अकेलेपन को जो निरखता रहे उसके व्यग्रता नहीं होती । और जहाँ उसने बाह्य पदार्थों से संबंध निरखा वहाँ ही उसको क्षोभ हो जाता । तो दर्शनमोह और चारित्रमोह इनका उदय होने पर जीवों को कष्ट होता है । सो इस ही मोहनीय प्रकृतियों की निर्जरा ही एक खास निर्जरा है । तो सम्यक्त्वाचरण होते संते तो इसको अंतरंग में आकुलता नहीं है और संयमाचरण कर लेने पर तो उसके मारे दुःखों का क्षय होता ही है । जिसके सम्यक्त्वाचरण हुआ है उसके संयमाचरण भी शीघ्र होगा । इसी कारण से मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व की प्रधानता है, और जो जैसा पदार्थ है उसे दृढ़ता से जान लेना इसमें क्या कष्ट और क्या बाधा? ज्ञानी जानता ही है । प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, अपने स्वरूप से हटकर बाहर कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव नहीं जाता निमित्त नैमित्तिक दशा में भी ।
(66) निमित्तनैमित्तिकभाव होने पर भी वस्तुस्वातंत्र्य की अमिटता―वस्तुत: सोचो तो सही कि जो नैमित्तिक कार्य हुआ है उसमें प्रभाव उपादान का ही है । निमित्त का प्रभाव उपचार से कहा जाता कि निमित्त के होने पर ही हुआ, निमित्त के न होने पर न हुआ, इस कारण यह प्रभाव निमित्त का बोला जाता । अगर निमित्त का ही प्रभाव है, निमित्त का ही वह कार्य है तो अग्नि तृण को जल्दी भस्म कर देती है, पत्थर को भस्म करने में देर लगती है । तो बताओ उसके प्रभाव में कमी बढ़ी क्यों हुई? तो इससे मालूम होता कि अग्नि में तो अपने आपको दहन उष्ण रूप रखने भर की बात है, अब उसके सान्निध्य में, उसके निकट में जो पदार्थ पहुंचा उस अनुरूप उसकी दशा बन जाती है । सूर्य का प्रकाश फैला तो लोग बोलते यह सूर्य का प्रकाश है मगर वस्तुस्वरूप की दृष्टि से देखो तो सूर्य का प्रकाश, सूर्य का प्रभाव जितना सूर्य हे उतने में रह सकता, उससे बाहर नहीं, जो कुछ कम दो हजार कोश का सूर्य । उसमें ही उसका प्रकाश है, प्रभाव है, पर ऐसा निमित्तनैमित्तिक योग है कि सन्निधान मिलने पर यह जमीन, ये भींत, पत्थर, कांच वगैरह सब प्रकाशित हो जाते हैं । आखिर पुद्गल सूर्य विमान भी है और यहॉ के ये कांच पत्थर आदिक भी पुद्गल है । जाति तो एक है, पर ऐसी योग्यता है कि सूर्य तो स्वयं प्रकाशमान है और ये पदार्थ सूर्य का सामना पाकर प्रकाशमान बनते हैं, पर प्रकाशमय ये पदार्थ ही बनते हैं । सूर्य का प्रकाश यहाँ नहीं फैला किंतु सूर्य के सान्निध्य में ये ही पदार्थ इस-इस रूप से प्रकाशित हो गए । यदि सूर्य का प्रकाश ही यहाँ आता तो वह प्रकाशभेद क्यों बन जाता कि दर्पण में प्रकाश तेज बड़े और पालिस वाली चीज पर प्रकाश उससे कम रहे और ऐसी सूखी चीजों पर प्रकाश बहुत कम रहे । यदि सूर्य का प्रकाश होता तो वह सब जगह एकरूप होता, न कही अधिक न कम, पर यह ज्यादा कम प्रकाश इस बात को पुष्ट करता है कि जिस पदार्थ में जितना प्रकाशरूप होने को योग्यता है वह अपने उस माफिक उतने प्रकाशरूप बन ज्ञाता है । यह तो निमित्तनैमित्तिक भाव की बात है ।
(67) आश्रयभूत कारण बना लेने की मोटी विडंबना―अहो, यह जोव तो आश्रयभूत से ही परेशान है । निमित्तनैमित्तिक भाव तो बहुत अंतरंग बात है । जैसे मकान कुटुंब ये इस जीव के रागद्वेष के निमित्त नहीं हैं, क्योंकि इनके होने पर ही रागद्वेष बने और इनके न होने पर रागद्वेष न बने ऐसा नियम नहीं है । तो यह कहलाता है प्राभव-मृत । हम इन पदार्थों में ध्यान लगाकर कषाय जगाते हैं तो ये विषयभूत बनकर उपयोग में आये, यह नैमित्तिक कारण नहीं है । कारण तीन प्रकार के है―(1) उपादान, (2) निमित्त और (3) आश्रयभूत । उपादान और निमित्त तो सब जगह कारण होते हैं । अजीव अजीव के प्रसंग में उपादान और निमित्त ये दो ही कारण होते हैं, क्योंकि वे दोनों अजीव हैं, उनके ज्ञान नहीं है । वे किसी पदार्थ को उपयोग में ले नहीं सकते । उपयोग ही नहीं तो अजीव पदार्थों का आश्रयभूत कारण नहीं बनता । अजीव और अजीव परस्पर में निमित्त उपादान है तो वहाँ आश्रयभूत कारण नहीं बनता । तीसरा आश्रयभूत कारण जीव ने ही बनाया, यह जीव जब उनमें उपयोग देता है तो वे भी कारण बन गए । निमित्तनैमित्तिक भाव नहीं है उनमें । और वे निमित्त कारण नहीं है, किंतु क्रोधादिक भावों को जगाने में कुछ तो पर विषय चाहिए याने कौन सी बात सोच करके क्रोध जगे वह कुछ वस्तु तो चाहिए, सो जो आश्रयभूत कारण बना, जिसमें हमारा दिल गया उसको विषय करके क्रोध व्यक्त होता है, दोष प्रकट हो जाता हे । अगर आश्रयभूत कारण का मेल न बनाया जाये तो क्रोधप्रकृति उदय में आयेगी और उसका अव्यक्त फल मिल जायेगा । कषायों को व्यक्त होने में आश्रयभूत कारण होना पड़ता है ।
(68) अन्य पदार्थों से वेदना न होने के तथ्य का दर्शन―भैया, आश्रयभूत के तथ्य के ज्ञान में यह सोचना चाहिए कि दुनियाभर के ये पदार्थ मुझको कष्ट नहीं देते, किंतु मैं ही इन पदार्थों के बारे में कल्पनायें बनाकर खुद कष्ट पाता हूँ । और इसी तरह अंतरंग निमित्त पर भी दृष्टि दें तो वहाँ भी यह ही बात हें कि उस निमित्त ने मेरे को वेदना नहीं पहुंचायी, किंतु कर्मोदय के होने पर प्रतिफलन तो होगा अनिवारित । अब उस प्रतिफलन में, उस कर्मोदय के जानने में एक अपना लगाव बना लिया कि मैं यह हूँ, तो उसको कष्ट होने लगता है । तो बाह्य पदार्थ कोई भी मेरे को कष्टदायक नहीं है । मैं ही कल्पनायें करके अपने में कष्ट का निर्माण किया करता हूँ । यह मोहभाव बड़ा दुर्निवार है । सारा संसार जन्ममरण के सारे संकट, चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण, यह सब मोह का फल है, और मोह विकार है, परभाव है, अनर्थरूप है, इस मोह संसर्ग से मेरे आत्मा की भलाई नहीं है । तो उस मोह के दो भेद हैं―(1) दर्शनमोह, (2) चारित्रमोह । दर्शनमोह के दूर होनेपर सम्यक्त्वाचरण होता है और चारित्रमोह के दूर होनेपर संयमाचरण होता है । यहाँ इतना और समझिये कि चारित्रमोह में जो अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ है, उसके दो स्वभाव हैं―चारित्र को विकृत करना ओर सम्यक्त्वाचरण न होने देना, यह अनंतानुबंधी का परिणाम है, शेष कषायों का फल चारित्र से दिखता है । तो अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति इन 7 प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है ।