वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 31
From जैनकोष
साहंति जं महल्ला आयरिमं जं महल्लपुव्वेहिं ।
जं च महल्लाणि तदो महव्वया इत्तहे याइं ।।31।।
(76) महान् पुरुषों द्वारा साधित होने से महाव्रतों में महापन―निरागार संयमाचरण में जो महाव्रत बताये हैं उनका नाम महा क्यों पड़ा है ? इसके उत्तर में यह गाथा आयी है । चूंकि महान् पुरुष इन व्रतों को साधते हैं, इन व्रतों का आचरण करते हैं । इस कारण इनका नाम महाव्रत है । जो संसार, शरीरभोगों से विरक्त हैं, जिनके निरंतर शुद्ध अविकार शुद्ध आत्मस्वरूप की रुचि रहती है, जिनका उपयोग अपने आत्मस्वरूप के लिए ही उत्सुक रहता है ऐसे महान् पुरुष ही 5 पापों का सर्वथा त्यागरूप आचरण कर पाते हैं । इस कारण इन 5 व्रतों का नाम महाव्रत है तथा महान् पुरुषों ने ही इनका आचरण किया है, और जो भी पुरुष सिद्ध हुए हैं उन सबने महाव्रत के आचरण पूर्वक ही सिद्धि पायी है । तो महान् पुरुषों के द्वारा ही ये व्रत पाले गए है, इस कारण ये महाव्रत कहलाते हैं अथवा ये व्रत ही स्वयं महान् हैं । 5 पापों का सर्वथा त्याग करना बहुत ऊँचा व्रत है । यह जीव अनादि संस्कार से पाप की ओर ही तो रहता है । यद्यपि पापपरिणाम जीव के स्वभाव नहीं हैं, इस कारण से पाप किया जाना कठिन होना चाहिए, किंतु इन जीवों की ऐसी वासना बन गई है कि इन्हें स्वभाव की बात तो कठिन लगती है और विकार की बात सुगम लगती है । तो ऐसे ये विकार जो इतना निर्लज्ज हो गए कि सुगम बन गए हैं किंतु जिनका परिणाम दुःख है । स्वयं ये दु:खरूप हैं, जिससे आत्मा अत्यंत अपवित्र हो जाता है ऐसे इन विकारों की जो कठिन विडंबना है और सुगमसी बन गई है उनका परित्याग होना एक बडा कठिन व्रत है । तो 5 पापों का सर्वथा त्याग करना स्वयं ही महान व्रत है, इस कारण इन 5 महाव्रतों को महान् व्रत कहते हैं ।
(77) स्वयं महत्ता होने से महाव्रतों में महापन-―ये व्रत महान क्यों हैं कि इनमें पाप का, अपवित्र भाव का लेश भी प्रवेश नहीं है । अहिंसा महाव्रत में संकल्पी, उद्यमी, आरंभी और विरोधी सर्व प्रकार की हिंसाओं का त्याग है । अहिंसा महाव्रत में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिक इन समस्त एकेंद्रिय जीवों के भी घात का परित्याग है । तो 6 काय के जीवों की जहाँ रक्षा है और अविकार ज्ञानस्वरूप की जहाँ निरंतर भावना है, जिनको सिवाय एक ज्ञानस्वभाव की आराधना के दूसरा कोई काम रहा नहीं, ऐसे महंत पुरुषों का यह व्रत महान है इस कारण ये महाव्रत कहलाते हैं, जिनका वचनों पर बड़ा नियंत्रण है, बोलना पसंद नहीं करते, मौन ही जिनको रुचिकर है, पर परिस्थितिवश बोलना पड़े तो परिमित शब्दों में बोलते हैं और जिनमें जीवो का हित हो वे ही वचन बोले जाते हैं । तो ऐसे वचनों पर नियंत्रण रखना एक महान् व्रत है । जल तक भी जो बिना दिए ग्रहण नहीं करते । किसी भी वस्तु के चुराने की मन में कभी कामना ही नहीं बनती वह संस्कार ही नहीं है, ऐसे अशुभ भाव से जो बिल्कुल हट ही गया है, जिसको केवल अविकार आत्मस्वभाव को ही ग्रहण करने का भाव रहता है ऐसा महान् पुरुष इस चौर्य नामक पाप का सर्वथा त्याग कर देता है । तो यह व्रत ही स्वयं महान् है । ब्रह्मचर्य व्रत―मन से, वचन से, काय से तिर्यंचस्त्री, मनुष्यस्त्री, देवस्त्री या चित्रपट पर अंकित स्त्री या प्रतिमा की स्त्री ! सर्व प्रकार के इन विषयों को निरखकर जिनके मन में लेश भी कोई दुर्भावना नहीं जगती ऐसे महंत पुरुषों का ही यह व्रत महान् पालन है ब्रह्मचर्य महाव्रत । परिग्रह त्याग महाव्रत, प्राय लौकिक जनों को यह संदेह होता कि कुछ भी परिग्रह न रखें तो गुजारा हो ही नहीं सकता । कुछ तो रखना ही पड़ता और संसार शरीर भोगों से विरक्त एक अविकार चित्प्रकाश का अनुभव प्राप्त करने में ये रुचि वाले महंत संत निष्परिग्रहता में ही आत्मसर्वस्व समझते हैं । उन्होंने सब कुछ पाया जिनको किसी भी परिग्रह की भावना नहीं रहती, सर्व परिग्रहों से विरक्ति है, निष्परिग्रहता की स्थिति है, जिसमें कि ज्ञानानंदघन आत्मस्वरूप का अनुभव बना करता है, ऐसी निष्परिग्रहता को वे सर्वस्व समझते हैं । उनका परिग्रह त्याग नाम का व्रत निर्दोष पलता है । तो ये व्रत स्वयं महान हैं, इस कारण इनको महाव्रत कहते हैं । अब इन 5 महाव्रतों का भले प्रकार पालन हो उनके लिए क्या भावनायें हुआ करती हैं उन भावनाओं का वर्णन करेंगे, जिनमें सर्वप्रथम अहिंसा महाव्रत की भावना कहते हैं ।