वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 45
From जैनकोष
भावेह भावसुद्धं फुडु रइयं चरणपाहुडं चेव ।
लहु चउगइ चइऊणं अइरेणऽपुणब्भवा होइ ।।45।।
(124) चारित्र का आधारभूत भाव―यह चारित्रपाहुड की अंतिम गाथा है । यहाँ आचार्यदेव कह रहे हैं कि हे भव्य जीव, यह चारित्रपाहुड जो स्फुट रूप से रचा गया सरलता से सीधे शब्दों में अपने आत्मा की ही आत्मा में ही रचना जो कुछ बताया गया है सो उसको तुम शुद्ध भावों से भावो । याने अपने ज्ञानस्वरूप में ही अपनी भावना बनाओ । स्वप्न में भी यह बात चित्त में न आये कि मैं और कुछ हूँ । मैं मनुष्य हूँ, ऐसी भी श्रद्धा न आ सके, किंतु मैं ज्ञान ज्योतिर्मात्र एक अमूर्त पदार्थ हूँ । इस श्रद्धा में शरीर का भान नहीं रहता । इस ओर दृष्टि रखने में देह कर्म और उसके प्रतिफलन विकार ये भी ध्यान में नहीं रहते, ऐसी लगन के साथ यह कैवल्य ज्ञानज्योति मेरे ज्ञान में बनी रहे, यह भावना रखना चाहिए । जैसे प्रत्येक जीव के मन में इच्छा रहती है कि मेरे को ऐसी बात बने, ऐसा वैभव मिले । तो निकट भव्य जीव के चित्त में केवल एक ही बात रहती है कि मेरा जो वीतराग सहज निरपेक्ष केवल अपनी सत्ता से जो मेरा चित्प्रतिभास मात्र स्वरूप है उस ही में आत्मा का अनुभव रहे, मैं यह हूँ । जब ऐसा अनुभव रहेगा तो जैसा अनुभव होता है वैसी परिणति बनती है । मैं ज्ञानमात्र हूँ, सहज ज्ञानस्वरूप हूँ । जिसकी यह श्रद्धा रहेगी उसकी परिणति केवल ज्ञातादृष्टा रहने की रहेगी, किसी बाह्य पदार्थ को अपनाने की रह ही नहीं सकती । जैसे मोही जीव केवल जाननहार की वृत्ति कर नहीं सकते, ऐसे ही ज्ञानी जीव किसी भी परपदार्थ में लगाव की वृत्ति कर ही नहीं सकता ।
(125) ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व के अनुभव से परम सहज आनंद का लाभ―जिसने अपने इस सहज ज्ञानस्वभाव को अपनाया है, यह मैं हूँ, इस तरह का जिसका अनुभव दृढ़ बना है अब उसे जगत में अन्य क्या चाहिए? जो उत्तम से उत्तम तत्त्व है, वैभव है वह उसने पा लिया । अब उसे कुछ पाने की आवश्यकता नहीं । कोई इच्छा होती ही नहीं । भले ही चारित्रमोह का उदय है, शरीर साथ लगा है, सो इसके जीवन के नाते से कुछ वृत्ति करनी पड़े, मगर उसका लक्ष्य केवल यह ही है कि मेरे को मेरा जो सहज ज्ञानस्वरूप है उस रूप में ही अनुभव बने । मैं यह हूँ । दुनिया में सब जगह खूब घूम आओ, पर मिलेगा कुछ नहीं । मिलेगा सर्वस्व तो अपने आप में ही मिलेगा । तो जो मनुष्य अपने इस सहज ज्ञानस्वभाव की आराधना करता है वह शीघ्र ही चारों गतियों के भ्रमण को तजकर मोक्ष को प्राप्त करता है । मोक्ष मायने जन्म मरण से छुटकारा पाना । सो जो इस चारित्रपाहुड ग्रंथ को बांचता है, पढ़ता है, मन में अवधारण करता है । बार-बार आत्मस्वरूप का अभ्यास करता है वह चतुर्गति के दुःखों से रहित होकर निर्वाण को प्राप्त करता है ।
।। समाप्त ।।