वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 29
From जैनकोष
पोग्गलदव्वं उच्चइ परमाणू णिच्छएण इदरेण।
पोग्गलदव्वोत्ति पुणो ववदेसो होदि खंधस्स।।29।।
परमाणु में पुद्गलद्रव्यपना—इस अधिकार में पुद्गल द्रव्य का व्याख्यान चला आ रहा है, उस ही प्रकरण में यह अंतिम गाथा है। पुद्गलद्रव्य वास्तव में अर्थात् निश्चय नय से परमाणुओं को ही कहा जाता है, फिर व्यवहार से स्कंध में भी यह पुद्गल द्रव्य है ऐसा व्यपदेश किया जाता है। स्कंध द्रव्य नहीं है किन्तु पर्याय है और वह है समानजातीय द्रव्य पर्याय। जो स्वभावपर्यायात्मक है, शुद्धपर्यायवान् है ऐसे परमाणु में ही शुद्धनय से पुद्गल द्रव्य का व्यपदेश किया जाता है। और व्यवहारनय से विभावपर्यायात्मक स्कंध पुद्गल का पुद्गलपना उपचार से सिद्ध किया गया है। वैसे सबकी समझ में ये पुद्गल स्कंध ही पूरी तौर से पदार्थ जंच रहे हैं और परमाणु की तो खबर ही नहीं है। परमाणु का वर्णन आए तो ऐसा लगता है कि ऐसा कहने की विधि है, किन्तु परमार्थ से परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है।
पुद्गलद्रव्य में अस्तिकायत्व की औपचारिकता—जहा अस्तिकाय के भेद कहे गए है वहाँ अस्तिकाय 5 बताये गए—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश। इसमें जीव तो सभी अस्तिकाय हैं, असंख्यातप्रदेशी हैं। जिसके प्रदेश अनेक हों उसे अस्तिकाय कहते हैं। धर्म, अधर्म और आकाश भी एक-एक द्रव्य हैं और बराबर अस्तिकाय हैं, किन्तु पुद्गल द्रव्य में परमार्थ द्रव्य तो परमाणु है, वह है एकप्रदेशी। एकप्रदेशी को अस्तिकाय नहीं कहा जाता है और स्कंध वास्तव में द्रव्य नहीं है। इस कारण पुद्गल परमार्थ से ऐसे एक बंधन रूप स्कंध हो जाते हैं कि फिर उसकी ढाल चाल सब न्यारी हो जाती है। क्या परमाणु चलाया जा सकता है? नहीं किन्तु परमाणु का पुज स्कंध बन जाय तो स्कंध जलता भी है, गलता भी है, उठाया भी जाता है। जो बातें परमाणु में नहीं ली जा सकती हैं वे सब बातें स्कंध में स्पष्ट दिखती हैं। इस कारण पुद्गल द्रव्य को उपचार से अस्तिकाय कहते हैं।
पुद्गलशब्द का व्युत्पत्त्यर्थ और अन्वर्थत्व—पुद्गल का अर्थ है जो पूरे और गले, मिले और बिछुड़े। मिलना, बिछुड़ना अन्य द्रव्य में सम्भव नहीं है। जैसे पुद्गल परमाणु बहुत से मिलकर स्कंध बन जाते हैं ऐसे ही क्या कभी दो जीव मिलकर एक जीव हुए? बहुत ही घनिष्ट प्रीति हो पर वस्तुस्वरूप का उल्लंघन कैसे किया जा सकता है? दो जीव मिलकर एक कभी नहीं हो सकते हैं। मोही जीव चाहता है कि हम और ये दो न्यारे-न्यारे क्यों रहें, मिलकर एक पिण्ड बन जाए, पर क्या दो जीव कभी एक बन सकते हैं? नहीं बन सकते। केवल पुद्गल ही ऐसे हैं जो बन्धनबद्ध होकर स्कन्ध होते हैं। सत्व की दृष्टि से तो वे भी एक नहीं बनते किन्तु ऐसा विशिष्ट बंधन हो जाता है कि वह एक हो जाता है और व्यवहार में भी देख लो कई चीजें हैं तो सबका एक व्यवहार होता है, ऐसे पुद्गल को उपचार से अस्तिकाय कहा है। उसका यह कारण है कि निश्चय से तो परमाणु पुद्गलद्रव्य है और व्यवहार से स्कंध को भी पुद्गल द्रव्य का व्यपदेश किया जाता है।
पुद्गलद्रव्य के विवरण का प्रयोजन—इस अजीवाधिकार के प्रकरण में पुद्गल द्रव्य को न संक्षेप से, न विस्तार से किन्तु मध्यम पद्धति से आचार्य से आचार्यदेव ने वर्णन किया है। पुद्गल का भी रंग ढंग जानना कल्याणार्थी जीवों को आवश्यक है और वह इस रूप में आवश्यक है कि हमें जिससे निवृत्त होना है, हटना है उसका भी परिज्ञान चाहिए। सो समस्त तत्त्वार्थ समूह को जानकर कर्तव्य यह हो जाता है कि समस्त परद्रव्यों को चाहे वे चेतन हों अथवा अचेतन हों उनको छोड़ना चाहिए, और परमतत्त्व जो चैतन्य चमत्कार मात्र है, समस्त परद्रव्यों से विविक्त है उसे निर्विकल्प समाधि में रहकर धारण करना चाहिए। जिनदेव के शासन में यह बात प्रमुख बतायी गयी है कि देखो भाई जीव अन्य हैं, पुद्गल अन्य हैं, इन समस्त पुद्गलों से उपयोग हटाकर जिस शरीर के बन्धन में बँध रहा है उस शरीर को भी न सोचें और केवल ज्ञानज्योति का चिंतन करें तो क्या ऐसा किया नहीं जा सकता है?
शुद्धोपयोगी के शुद्धात्मत्व—भैया ! इस ज्ञानमय तत्त्व में बड़ी विलक्षण कला है, बन्धन की अवस्था में भी यह उपयोग बंधन को नहीं समझ रहा है, बंधन में नहीं पड़ रहा है किन्तु शुद्ध आत्मा का जो ज्ञायकस्वरूप है, अपने ही सत्त्व के कारण जो सहजस्वभाव है उस स्वभाव को ही जान रहा है तो ऐसे उपयोग में रहने वाले आत्मा को शुद्ध बताया जाता है। वह शुद्ध आत्मा है। जैसे कोई साधु महाराज मिर्च ज्यादा खाते हैं तो उनका नाम कोई मिर्च महाराज रख ले, या जिसकी जिसमें रुचि होती है वह नाम रख लेता है तो जिसमें उपयोग बना हुआ है वह नाम व्यवहार में भी लोग कह डालते हैं। यहाँ तो जिस ओर उपयोग बना है बस आत्मा उस रूप है। आत्मा का लक्षण भी उपयोग है और उपयोग में बस रहे हुए स्वभाव बाह्य विभाव भी विभावरूप बन रहे हैं, और उपयोग में बस रहा हुआ शुद्धज्ञायक स्वरूप हो तो वह शुद्ध आत्मा है।
शुद्धात्मत्व की पद्धति—भैया ! परद्रव्य का निरूपण करने वाले व्यवहारनय का विरोध नहीं करके और स्व द्रव्य का निरूपण करने वाले निश्चय का आलम्बन करके मोह को दूर करने वाला ज्ञानी संत अब पर को अपनाने की सामर्थ्य रख नहीं रहा क्योंकि पर को पर जान लिया। कोई भावत: पर को पर व निज को निज मान सके तो परद्रव्य से हो जाती है उपेक्षा और स्वद्रव्य में ही लग जाता है उपयोग। ऐसी स्थिति में शुद्ध आत्मा का जो उपयोग कर रहा है वह तो शुद्ध आत्मा है, यह सब उपयोग की ओर से देखा जा रहा है। आत्मद्रव्य के अगल-बगल का यहाँ वर्णन नहीं है। उपयोग जिसको ग्रहण किए हुए हैं तो उपयोगात्मक आत्मा वही है जो कुछ उसके घर में आए।
निष्पन्नयोगी का साम्यभाव—बहुत दृढ़तर जिसे शुद्ध अंतस्तत्त्व का अभ्यास हो जाता है उसको तो यह भी कल्पना मात्र जंचती है कि पुद्गल अचेतन है और जीव चेतन है। जैसे जीव जीव को जीवों में साधारणतया पाये जाने वाले चैतन्यगुण की दृष्टि में देखता है तो क्या नजर आता है कि चाहे संसारी जीव हो, और चाहे मुक्त जीव हो सब वह एक समान हैं। ऐसा ज्ञान किया जाता है कि नहीं? और, जब जीव पुद्गल धर्मादिक सभी द्रव्य उन सबको एक नजर में लें और उस दृष्टि से देखा जाय सब द्रव्यों में सामान्य गुण पाया जाता है तो उस दृष्टि से देखने पर क्या सब द्रव्य एक समान नजर न आयेंगे? क्या वहाँ यह चेतन है यह अचेतन है, यह भेद विदित होगा। तो चेतन और अचेतन भी एक कल्पना है। अब इस आशय को पकड़ें, बहुत मर्म की बात यहाँ कही जा रही है।
निष्पन्नयोगी की दृष्टि का प्रकृष्ट व प्रकृष्टतर विकास—जैसे सब जीवों को एक चैतन्यस्वभाव के नाते से जब निरखा जा रहा है तो क्या उस दृष्टि से यह संसारी है यह मुक्त है, यह भेद आता है? नहीं आता। इसी प्रकार सब द्रव्यों से सब द्रव्यों में पाया जाने वाला जो सत्त्वगुण है केवल उस सत्त्वगुण की दृष्टि से निरखा जाय तो क्या वहाँ जीव चेतन है पुद्गल अचेतन है, यह भेद निरखा जा सकता है? तो जैसे सब जीवों में चैतन्य गुण की निगाह से देखना एक व्यापक और उदार दृष्टि है ऐसे ही सब द्रव्यों को सब द्रव्यों में साधारणतया पाये जाने वाले साधारण गुण की दृष्टि से देखा जाय तो वह दृष्टिव्यापक है और उदार है। इस ही दृष्टि से मूल में एकांत नियम बनाकर जिसने पूर्ण वस्तुस्वरूप कायम किया है उसके मत में यह सारा विश्व ब्रह्म रूप है। किसी का किसी से कोई अन्तर नहीं है। सभी ब्रह्मस्वरूप हैं। इस ब्रह्म का अर्थ सर्व पदार्थों में साधारणतया पाये जाने वाला सत्त्व गुणरूप है। तो इस दृष्टि को कायम रखकर सब कुछ एक सद् ब्रह्म है, यह बात रंच गलत नहीं है, पर व्यवस्था और व्यवहार पुरुषार्थ आगे का काम यह सब केवल इस दृष्टि पर नहीं बन सकता है।
पदार्थ की साधारणासाधारणात्मकता—भैया ! सर्व प्रकार जान लें फिर जिस चाही दृष्टि को मुख्य करके विलास करें उसमें कोई हानि नहीं है, पर प्रत्येक वस्तु का स्वरूप तो समझ में आना चाहिए। यद्यपि सब पदार्थ जाति अपेक्षा एक हैं, सत् रूप हैं फिर भी वस्तु उसे कहते हैं जिसमें अर्थक्रिया होती हो अर्थात् परिणमन होता हो। तो अब इस लक्षण को घटित कर लो। निज-निज स्वरूपास्तित्त्व में रहने वाले वस्तु को मना करके एक सद्ब्रह्म का ही एकांत हो तो भूखों मरना पड़ेगा। न दूध मिलेगा और न अन्न मिलेगा। कहां से दूध लावोगे? सब सद् ब्रह्म ही हैं क्यों एक गाय से ही दूध निकालते हो सब सद् एक ब्रह्म हैं, तो व्यक्ति में अर्थक्रिया होती है और जो अर्थक्रिया जितने में हो जिससे बाहर न हो वह एक द्रव्य कहलाता है। इस दृष्टि से यह बात सर्वप्रथम मालूम पड़ेगी कि अनन्त जीव हैं, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्मद्रव्य व असंख्यात काल द्रव्य हैं, फिर अब व्यापक दृष्टि बनायें, उदार दृष्टि बनाए, यह सब आपकी प्रगति है। मूलतत्त्व को यदि मना कर दिया तो तत्त्व की खोज में वन-वन में भटकने जैसा श्रम होगा। चीज एक न मिलेगी।
अभ्यस्त और निष्पन्न साधना—जैसे प्राथमिक जनों में यह भेद रहता है कि वह मुक्त जीव है, यह संसारी जीव है, यह पशु-पक्षी है, यह मनुष्य है, पर निजतत्त्व का दृढ़तर अभ्यास करने के लिए उस व्यक्ति को अर्थात् निष्पन्न योग में फिर यह भेद नजर नहीं आता प्रत्युत सब जीव चिदानन्द स्वरूप दृष्ट होते हैं। अब इससे और आगे बढ़ो। अब जीव और पुद्गल इन दोनों में जो एक साधारण गुण है अस्तित्त्वगुण, उस दृष्टि से जब निहारा जाता है तब वहाँ चेतन और अचेतन की कल्पना नहीं ठहरती। उसकी अपेक्षा यह प्राथमिक अवस्था है। जहा यह जंच रहा हो कि पुद्गल तो अचेतन है और जीव चेतन है, पर इस प्राथमिक अवस्था से आगे बढ़कर जहा साधारण धर्मदर्शनविषयक निष्पन्नयोग होता है वहाँ सब कुछ एक सत् रूप उसको ज्ञात है। चेतन और अचेतन का भेद भी वहाँ नहीं रहता है। यह साधन के एक परमसीमा की बात कही जा रही है। अनिष्पन्न योगी को अर्थात् जो एक व्यापक उदार स्वभाव दृष्टि में दृढ़ उपयोगी नहीं होता है उसको तो ये सब बातें कर्तव्य में आती हैं पर वस्तुत्व के नाते से पुद्गल और जीव को देखा जाय तो वहाँ यह पक्ष नहीं होना चाहिए कि यह मेरी जाति का है और यह दूसरी जाति का है। जब केवल सत्त्व दृष्टि है तब वहाँ पुद्गल और जीव ये दोनों भिन्न जाति के ज्ञात नहीं होते। अब उनकी एक ही जाति है। वह क्या? पदार्थत्व, सत्त्व।
निष्पन्नयोगी की निर्विकल्पता—यह शरीर अचेतन है, पुद्गल कायरूप है और परमात्मतत्त्व सचेतन है, वह शुभ्र ज्ञायकस्वरूप है फिर भी अति निष्पन्न योगी को परमात्मतत्त्व में रागभाव नहीं होता और अचेतन पुद्गल में रोषभाव नहीं होता, ऐसे साधनाशील यतियों की उच्च शुद्ध दशा होती है। जैसे यहाँ से कोई अमेरिका, रूस कहीं जाय तो वह पुरुष जब भिण्ड से निकलकर ग्वालियर पहुँचा और उससे कोई पूछे कि आप कहां से आ रहे? तो वह कहेगा कि भिण्ड जिले से आ रहे हैं और यहाँ के बाद जब कानपुर पहुँचा और वहाँ कोई पूछे कि आप कहां से आ रहे हैं? तो वह कहेगा कि मध्यप्रदेश से आ रहे हैं, और मान लो यहाँ से चलकर विदेश पहुंचे और वहाँ कोई पूछे तो वह कहेगा कि हम भारत से आ रहे हैं। तो जैसे-जैसे उसका भ्रमण व्यापक बना तैसे-तैसे उसकी दृष्टि व्यापक हुई, इसी तरह यह पूछा जाय कि आप कौन हैं? तो कोई बतायेगा कि हम अमुक हैं, वैश्य हैं। कदाचित् और अधिक व्यापक दृष्टि बनायी तो कहेगा कि हम मनुष्य हैं, और अधिक व्यापक दृष्टि बनायी तो कहेगा कि हम जीव हैं। इससे भी और अधिक व्यापकता लायें जिसमें कि सब पदार्थ एक स्वरूप में आ जायें तो कहेगा कि हम एक सत् पदार्थ हैं।
विलक्षणता न देखने पर रोष तोष का अनवकाश—भैया ! जब कहा कि हम वैश्य हैं तो वैश्य वंश में इसकी समानता की बुद्धि रही अब उनमें किसी से रोष व तोष न करेंगे। जब यों कहा कि हम मनुष्य हैं तो मनुष्यों में व्यक्तिगत इष्ट अनिष्ट बुद्धि न होने से रोष व तोष नहीं करना और जब उसका यह भाव हुआ कि मैं जीव हू तो जीव में उपयोग लगाकर समझ रहा हो तो जीव में किसी एक से किसी दूसरे से रोष तोष न करेगा। और कभी इस विषय में आए कि हम तो सत्रूप एक पदार्थ हैं तो सत्भूत जितने पदार्थ है उन पदार्थों में किसी एक में रोष करना, किसी एक में तोष करना ये बातें उससे न बनेंगी। तो इतनी अधिक व्यापक दृष्टि से यह ज्ञानी सोच रहा है चूकि जीव और पुद्गल इन दोनों का यहाँ वर्णन है और दोनों द्रव्यों में समान रूप से पाये जाने वाले लक्षणों की दृष्टि लगायी सो भगवान में क्या तोष करना और पुद्गल में क्या रोष करना, ये है एक सत्त्व की दृष्टि रखने वाले निष्पन्न योग की बातें।
परविविक्त निजतत्त्व के अभिमुख होने का उद्यम—जीव और पुद्गल का गुण और पर्यायों से वर्णन करने के बाद ऐसी व्यापक दृष्टि में उतर कर जहा जीव और पुद्गल में भी कुछ कल्पना न की जा सके, उस दृष्टि में लाकर अब आचार्यदेव इस पुद्गलद्रव्य के वर्णन को यहाँ समाप्त कर रहे हैं। कल्याण की दृष्टि में व्यावहारिकता की ओर कुछ कदम बढ़ायें, इस दृष्टि में हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि जीव जुदा है और पुद्गल जुदा है, इतनी बात जानकर पुद्गल से हटकर एक शुद्ध ज्ञायकस्वरूप में हमें उपयोगी होना चाहिए। मुझे करने को काम यह है। जब इसमें निष्पन्न हो जायें तो फिर उस योगी के फिर और उत्कृष्ट दशा होती है कि उसकी दृष्टि में जीव और पुद्गल में भेद नहीं रहता। या तो मोही जीव को जीव और पुद्गल में भेद नहीं है या अति उच्च निष्पन्न योगी को जीव और पुद्गल में भेद नहीं है। इस प्रकार यहाँ इस पुद्गल द्रव्य का वर्णन समाप्त होता है।
आजीवाधिकार में पुद्गलद्रव्य का वर्णन करके अब धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य का एक गाथा में संक्षेप से वर्णन करते हैं।