वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 38
From जैनकोष
जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणे अप्पा।
कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो।।38।।
अन्तस्तत्त्व व बहिस्तत्त्व के परख की कसौटी—जीवादिक बाह्यतत्त्व अर्थात् जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष—ये 7 बाह्य तत्त्व हैं और हेय हैं। उपादेय तत्त्व आत्मा का आत्मा है। इस कथन में कुछ श्रद्धा को भंग करने जैसी बात लगती होगी कि भाई अजीव, आश्रय, बंध ये हेय तत्त्व हैं सो तो ठीक है पर संवर, निर्जरा अथवा जीव और मोक्ष ये तत्त्व भी बहिस्तत्त्व बताये गए यह तो चित्त को न जंचती होती। पर इस कसौटी से बाह्यतत्त्व और अंतस्तत्त्व का स्वरूप निर्धारित करें जिस पर हम निगाह लगायें और आत्मोपलब्धि का कार्य सिद्ध हो उसे तो कहेंगे अंतस्तत्त्व और जिस पर दृष्टि करने से कुछ भेद ही बने, स्वरूप मग्नता न हो, उसे कहेंगे बाह्यतत्त्व।
जीवतत्त्व की बहिस्तत्त्वरूपता—अब इस कसौटी से सब परख लीजिए। जीव के सम्बन्ध में और अन्तरङ्ग में प्रवेश करके जो कारण परमात्मत्व दृष्ट हुआ करता है वह कारणसमयसार तो अंतस्तत्त्व है, क्योंकि इस कारणसमयसार के आलम्बन से कार्यसमयसार बनता है। एक इस अंतस्तत्त्व के अतिरिक्त अन्य सब जो कि परिणमन और व्यवहार की बातों से अपना सम्बन्ध रखता है अथवा जो गुणपर्याय के रूप से जीवसमासों के रूप से अनेक प्रकार के भेदभावों को लेकर जीवतत्त्व का परिज्ञान होता है वे सब बाह्यतत्त्व हैं।
संवर निर्जरा व मोक्ष की बहिस्तत्त्वरूपता—इसी तरह संवर, निर्जरा तत्त्व किसी समय तक यद्यपि उपादेय है, फिर भी यह कुछ जीव का स्वरूप नहीं हैं। इस तत्त्व के लक्षण पर दृष्टि देने से कुछ अभेद समाधिभाव नहीं जगता है, भेद ही उत्पन्न होता है। इस कारण यह भी बाह्यतत्त्व बन जाता है। यही बात है मोक्षतत्त्व की मोक्षतत्त्व में द्वैत ही तो दिखता है। छूटना क्या किसी अद्वैत वस्तु का स्वरूप है? छूटना कैसा? एक छूटने वाला और एक जिससे छूटा जाय ऐसी-ऐसी बातों के आये बिना मोक्षतत्त्व नहीं बनता है और फिर मोक्ष में जो बात प्रकट होती है ऐसे शुद्धपरिणमन की बात ली जाय तो वह भी भव्य पुरुषों के मूलदृष्टि रूप उपाय की चीज नहीं है। जिसका आलम्बन करके यह जीव शुद्ध पर्याय परिणत होता है ऐसा वह तत्त्व नहीं है, अत: यह सप्ततत्त्व का समूह बाह्यतत्त्व कहा गया है और अंतस्तत्त्व आत्मा का आत्मा ही है।
सम्यग्दर्शन की विविक्त आत्मरूपता—इन 7 तत्त्वों में जिस प्रकार के जीव को बहिस्तत्त्व में शामिल किया गया है जिससे कि आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष बन सके, ऐसा भी जीवतत्त्व पर्यायरूप है, भेदरूप है और इसी कारण सब इन भेदों का आधारभूत अवस्थावान जीव बाह्यतत्त्वों में गिना जाता है। इसी कारण 7 तत्त्वों का श्रद्धान स्वयं सम्यग्दर्शन नहीं है किन्तु 7 तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन का कारण है। सम्यग्दर्शन तो स्वयं अंतस् तत्त्व की प्रतीतिरूप है। यह अधिकार शुद्धभाव का किया जा रहा है। इस कारण सर्वविशुद्ध तत्त्व जिसमें किसी भी अपेक्षा से अशुद्धता नहीं हो पर्यायगत अशुद्धता न हो, भेदगत अशुद्धता न हो, ज्ञाता के अनुरूप ज्ञेयपना न हो, कृत अशुद्धता नहीं हो, सर्व प्रकार की अशुद्धताएं जिसमें नहीं हैं ऐसे शुद्ध निज सहजस्वभाव का दर्शन सम्यग्दर्शन है।
प्रभुभक्ति और स्वरूपनिर्णय—मुक्त प्रभु की भक्ति का भी प्रयोजन है। यह स्वरूपनिर्णय है। प्रभु की भक्ति प्रभुभक्ति के स्थान में है और सहजस्वभाव का निर्णय सहजस्वभाव के स्थान में है। कहीं सहजस्वभाव के निर्णय के समय यह नहीं जानना कि प्रभु का कुछ अनादर किया जा रहा होगा। विवेकी जानता है कि स्वभाव की महिमा मानने का व्यवहार में यह अर्थ बनता है कि प्रभु की महिमा जाहिर की है। जैसा सहजस्वभाव है तैसा प्रकट हुआ है। ऐसी ही महिमा भगवान में होती है। ये जीवादिक तत्त्व बहिस्तत्त्व होने के कारण उपादेय नहीं हैं, पर चीज होने के कारण आलम्बने योगय नहीं हैं। आत्मा का आत्मा ही स्वद्रव्य है और वह उपादेय है।
आत्मा शब्द के वाच्य भाव की व्यापकता—आत्मा का अर्थ बहुत अंतरङ्ग मर्म को लिए हुए है। उसके समकक्ष जीव शब्द का वाच्य बहिस्तत्त्व है। आत्मा का अर्थ स्व होता है। अपन, स्वयं, यह जीव स्वयं अपने आप जैसा है उसे तो कहते हैं आत्मा और उस आत्मा की भी अन्य बातें निरखना जो आश्रय बंधरूप हो तथा संवर, निर्जरा रूप हो और अन्य द्रव्यों से छूट गया, अब यह केवल रह गया, ये सब बातें देखना यह सब अनात्मतत्त्व हुआ। आत्मा जब-जब जो अपने स्वरूप के प्रति विवक्षित होता है वह आत्मा कहलाता है। अपना आत्मा उपादेय है, अंतस् तत्त्व है।
अन्तस्तत्त्व की व्याख्या—अन्तस्तत्त्व के विषय में इस गाथा में कहा है कि कर्म उपाधि से उत्पन्न हुए गुणपर्याय से जो व्यतिरिक्त है, विविक्त है ऐसे अपने आपको आप उपादेय तत्त्व है। ऐसा वह आत्मतत्त्व किसके लिए उपादेय है? स्वद्रव्य में ही जिसने अपनी बुद्धि निश्चित की है, तीक्ष्ण की है, ऐसे परम योगीश्वर के लिए वह उपादेयभूत बनता है जैसे कोई हीरा रत्न मिल जाय तो मूढ़ भील और लकड़हारों को उपादेय नहीं हो पाता, किसी जौहरी के समीप पहुंचे तो उसके लिए वह उपादेय होता है। हाथ में रक्खा हुआ रत्न भी मूर्ख पुरुष को उपादेय नहीं हो रहा है। इसी प्रकार अपने आपमें शाश्वत विराजमान यह ज्ञायक स्वरूप मोही पुरुष को उपादेय नहीं हो रहा है।
परिज्ञान के अभाव में स्वयं स्वयं से अत्यन्त दूर—जैसे उस मूर्ख के, लकड़हारे के हाथ में ही रत्न है, केवल एक यथार्थ ज्ञान कर लेने से वह उपादेय बन जाता है। चीज नहीं कहीं से लेना है। चीज वहीं है पर सही ज्ञान बना लेने से लाभ मिल जायेगा। इसी प्रकार यह प्रभु जिसकी दृष्टि संसार के समस्त संकटों से नष्ट कर देती है उस प्रभु को कहीं खोजना नहीं है, कहीं दौड़कर जाकर मिलना नहीं है। यह है, स्वयं है, वह यथार्थज्ञान कर लेने से यह हमको हस्तगत होती है, पर यह कारणसमयसार, यह परम पारिणामिक भाव, आत्मा का आत्मतत्त्व उपादान हो रहा है उन परमयोगीश्वरों की जो पंचेन्द्रिय के प्रसार से रहित शरीर मात्र ही परिग्रह वाले हैं।
हार्दिक रुचि की प्रतिक्रिया—जैसे उपन्यासों में, कथानकों में, नाटकों में देखा होगा, जो पुरुष जिस किसी का भी मन से प्रेमी हो जाता है उसकी प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व खो देता है, त्याग देता है, केवल उसकी प्राप्ति का ही भाव रखता है। एक थियेटर में बताते है कि लैला मजनू एक जगह पढ़ते थे। उनका परस्पर में स्नेह हुआ। मजनू तो एक गरीबका लड़का था और लैला एक बादशाह की लड़की थी। अब जब बहुत दिनों के पश्चात् बादशाह के भी मन में आया कि ठीक है, यही सम्बन्ध हो और इसी लिए गांव में यह आर्डर दिया था कि मजनू जिस दूकान में जो चीज खाये प्रत्येक लोग उसे दे दें और बाद में खजाने से हिसाब लें। अब तो हजारों मजनू बन गये। जब दूकानों में मनमाना खाने को मिले तो फिर क्या था? अब बड़ी परेशानी आयी। किसको जाने कि यह मजनू है। तो उसने परीक्षा यह की कि आँगन के बीच में बड़ा पतला एक खम्भा बनाया और उस पर आसन बनाकर लैला को बैठाल दिया और मजनू को निमंत्रण दिया कि मजनू हमारे यहाँ आये। वहाँ हजारों मजनू आए। वहाँ आँगन में कुछ लकड़ी पत्ती बिछा दिया था। उसी में बादशाह ने आग लगवा दी। तो जितने भी बनावटी मजनू खड़े थे वे सब तमाशा देखते ही रहे और जो असली मजनू था वह आग में चला गया लैला को जलने से बचाने का यत्न करने लगा। तो बादशाह ने जान लिया कि वास्तविक मजनू कौन है?
अनुरज्यमान् तत्त्व के लिये सर्वस्व समर्पण—इस संसार में जो जिसका अनुरागी हो जाता है वह उसके प्रति अपना सब कुछ भी गंवा देता है। तो जब असार बातों में भी अनुराग जगाने का इतना प्रभाव बनता है तो भला जो सारभूत है, शरणरूप है, यथार्थ समझ की जाने की बात है ऐसा आत्मतत्त्व जिसे रुच गया हो वह इस आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए क्या-क्या समर्पण नहीं कर सकता? यही कारण है कि जिनको आत्मा की तीव्र रुचि बनती है उनका रूप निर्ग्रन्थ बन जाता है अब उनके वैभव का प्रयोजन नहीं रहा, वस्त्रादिक का प्रयोजन नहीं रहा, बालकवत् निर्विकार शुद्ध हो गए उनके तो ध्यान अपने आत्मा में ही खेलते रहने का है। विकार कहां से आए।
विषयलोलुपी और साधु संतों की अन्तर्वृत्ति—भैया ! एक शरीर मात्र परिग्रह साधु के रह जाता है। उसे कहां टाले वह? यदि शरीर भी सहज त्यागा जा सकता होता तो उसे भी त्याग देते, पर शरीर कहां त्यागा जाय? भोजनपान से तो उसे मोह नहीं रहा। विवेक ही उनको भोजन के लिए उठाता है। कितना अन्तर है कि विषयलोलुपी पुरुष को भोजनादिक में लगाने का आग्रह करता है अज्ञान, तो साधु संतों को विवेक समझाता है कि उठो, जावो, खा आवो। यदि यह विवेक न जगता होता साधु संतों को तो वे आहार को भी न उठते। जैसे कोई भोजन नहीं करना चाहता है तो उसका हाथ पकड़कर कुछ तानकर मित्र ले जाता है। चलो कुछ भी खा लो, दो ही रोटी खा लो, पानी ही पी लेना। इस तरह यह विवेक साधु संतों को समझाता है कि महाराज कुछ भी तो चर्या कर लो, अभी बड़ी साधना करना है। तो साधु संतों के आहार कराने में विवेक का हाथ है अन्यथा वह करता ही नहीं है।
अन्तस्तत्त्व के उपादाता—मोहरहित, पंचइन्द्रिय के प्रसार से रहित शरीर मात्र ही जिसका परिग्रह है ऐसे परमयोगीश्वर के ही यह आत्मतत्त्व उपादेय है। अच्छी चीज पर किसका मन न चलेगा? यह उपादेयभूत ज्ञानानन्दनिधान आत्मोपलब्धि की बात सुहा तो जायेगी साधारणतया सबको परन्तु किसे उपादेय होती है उस स्वामी का निर्णय कर लिया जाय। इस उपादेयभूत ज्ञानानन्द स्वभाव का अधिकारी विरक्त होता है, पर द्रव्य से अत्यन्त पराङ्मुख रहता है, सहज वैराग्य का ऐसा प्रसाद उसे प्राप्त है कि जिसके शिखर पर वह शिखामणि की तरह शोभित होता है, परद्रव्य से पराङ्मुख इन्द्रियविजयी अपने आपमें जिसने तीक्ष्णबुद्धि लगायी है ऐसे योगीश्वर संतों के यह आत्मतत्त्व उपादेयभूत होता है।
अन्तस्तत्त्व व बहिस्तत्त्व—यहाँ बहिस्तत्त्व और अंतस्तत्त्व की बात चल रही है। जिसका आश्रय करने पर निर्मल पर्याय की अभिव्यक्ति होती है वह तो है अंतस्तत्त्व और जो नाना प्रकार के परिज्ञान कराते हैं ऐसे जो ज्ञेय पदार्थ, ज्ञेय तत्त्व, ज्ञेय परिणतियां जो किसी रूप में सहायक तो हैं पर साक्षात् आलम्बने योग्य नहीं हैं वे सब बाह्यतत्त्व कहलाते हैं।
तत्वार्थसूत्र के प्रथमसूत्र में निश्चय व्यवहार का तथ्य—तत्वार्थसूत्र में कुछ पहिले सूत्रों का शब्दविन्यास देखो किस प्रकार रखा है? उन सूत्रों में निश्चय और व्यवहार स्वरूप का दर्शन हो रहा है। जैसे कहा गया है सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:। इसमें दो पद हैं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि व मोक्षमार्ग:। इसमें पहिला पद बहुवचनांत है और यह व्यवहार वाचकपद है और मोक्षमार्ग: एक वचन है, एकत्वद्योतक है, वह निश्चयवाचक वचन है। इस ही प्रकार ‘‘तत्त्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम् तत्वार्थश्रद्धानं’’यह व्यवहार वचन है और ‘‘सम्यग्दर्शनं’’यह निश्चयपरकवचन है। इस ही बात को इस गाथा में ध्वनित किया गया है।
तत्वार्थसूत्र के द्वितीय व तृतीय सूत्र में निश्चय व्यवहार का तथ्य—अब आगे के सूत्र में देखो—तन्निसर्गादधिगमाद्वा, सम्यग्दर्शन निसर्ग से और अधिगम से होता है। निसर्ग से होने की बात निश्चय को सूचित करती है और अधिगत से होने वाली बात व्यवहार को सूचित करती है। जरा और चलकर देखो तो जैसे कहा है ‘‘जीवाजीवाश्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वं’’ये जीवादिक सात हैं बहु वचनांत है, यह व्यवहारपरक है और तत्त्वं एक वचन है, भाववाचक है, यह शब्द निश्चय वाचक है। तत्त्वं इस निगाह में कुछ परख लेना, सो निश्चय का विषय है और 7 पदों के रूप में परखते जाना, सो व्यवहार का कथन है। यह आत्मा के सहज आत्मस्वरूप जो कि कर्मोपाधिजन्य सर्वकर्मों से भिन्न है वह तो है अंतस्तत्त्व और उपादेय है तथा ये जीवादिक जो 7 तत्त्व बताये गये हैं वे हैं बहिस्तत्त्व और हेय। अब इसी सम्बन्ध में आगे वर्णन होगा।
शुद्ध भाव—इस अधिकार में शुद्ध भाव का वर्णन चल रहा है। जीव के भाव 5 होते हैं—औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक। इन भावों में पूर्ण शुद्ध भाव अर्थात् निरपेक्ष भाव, जिसमें उपाधि के सद्भाव अथवा अभाव की भी उपेक्षा नहीं है, ऐसा भाव है पारिणामिक भाव।
औपशमिकादि भावों की अशुद्धता—औपशमिक भाव कर्मप्रकृतियों के उपशम से होता है। यद्यपि उपशम के काल में पर्यायदृष्टि से वह भाव निर्मल है तथापि उसके अन्तर में मलिनता होने की योग्यता पड़ी है तथा कर्मोपाधि का दबा हुआ निमित्त पड़ा है और उपशम के निमित्त से यह भाव हुआ है। अत: उसे शुद्ध भाव नहीं कहा गया है। क्षायिक भाव यद्यपि कर्मप्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न होता है और वह पूर्ण निर्मल भाव है, किन्तु अध्यात्म पद्धति में निरपेक्ष भाव को शुद्ध कहा गया है। प्रकृतिक्षय के निमित्त से होने वाले भाव को इस दृष्टि में शुद्ध नहीं कहा। क्षायोपशमिक भाव, इसमें तो पर्यायगत अशुद्धता चल रही है। क्षायोपशमिक भाव कर्मप्रकृति के क्षय से और उपशम से ही नहीं होता किन्तु क्षय और उपशम के साथ किसी प्रकृति का उदय भी चाहिए, तब क्षायोपशमिक भाव बनता है और उसमें मिश्ररूप से मलिनता पायी जाती है। वह शुद्धभाव नहीं है। औदयिक भाव तो प्रकट अशुद्ध है। कर्मप्रकृति के उदय के निमित्त से उत्पन्न होता है।
शुद्धभाव की औपशमिकादिचतुष्कागोचरता—औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और औदयिक इन चार भावों से परे, इनका अगोचर और भी किसी भी प्रकार का विभाव गुण पर्याय जहां नहीं है, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म की उपाधि से उत्पन्न होने वाले विभाव भाव से जो रहित है, ऐसा परमपारिणामिक भाव स्वरूप आत्मा है, यह अन्तस्तत्त्वरूप अपना भावस्वरूप आत्मा है, यह अन्तस्तत्त्वरूप अपना आत्मा कहा जा रहा है। ‘अपना आत्मा’इस शब्द के कहने से आत्मद्रव्य लिया जाए—ऐसी धुनि नहीं है, किन्तु अपना आत्मा अपना स्वरूप सहजस्वभाव उसे कहा गया है अपना आत्मा। जो अति अभीष्ट होता है, उसे भी लोक में अपना आत्मा कहते हैं। सो ऐसा अपना अन्तस्तत्त्व अथवा आत्मा क्या है? इसके प्रकरण में बताया जा रहा है कि जो अनादि है, अनन्त है, अमूर्त है, अतीन्द्रिय स्वभावी है—ऐसा जो शुद्ध निरपेक्ष सहजपारिणामिक भाव है, वही हैं एक स्वभाव, जिसका ऐसा यह कारणपरमात्मा अपना आत्मा है।
ज्ञानी के आकुलता का अभाव—जब किसी चीज में ममता नहीं रहती है और वह चीज बिगड़ रही हो तो थोड़ी कुछ पूर्व सम्बन्ध के कारण बिगड़ते हुए देखकर जरा तो मन में क्षोभ होता है और फिर चूंकि मोह कतई नहीं है तो झट चद्दर उठायी और तानकर सो जाता है। सो जहां जो होता है, होने दो। जिस वस्तु में मोह नहीं होता है, उस वस्तु के प्रति इस जीव को अन्तर में वेदना नहीं होती। इसी तरह जब विश्व के समस्त पदार्थों के प्रति जिसे मोह नहीं है, अज्ञान नहीं है—ऐसा जीव किसी भी पदार्थ को लक्ष्य में लेकर अन्तर में आकुलता न मचायेगा।
प्रतिकूल घटनाओं की हिताहितसूचकता—भैया ! व्यवहार में से जितनी घटनाए घटती हैं, जिन्हें लौकिक जन सम्मान और अपमान की निगाह से देखते हैं—ये घटनाए तो हमारी साधक हैं, परीक्षा के लिए आती हैं और उनमें हम यों खुशी हों कि हम यह समझ जाएं कि हम मोक्षमार्ग में ठीक प्रगति कर रहे है या नहीं, इतना ज्ञान तो हुआ, कुछ अच्छा है। किसी ने कुछ प्रतिकूल बात की तो अपने आपका पता तो पड़ जाता है कि हम अपने कर्तव्य में सफल हुए हैं और उस कर्तव्य से दूर है—यह ज्ञान तो कराया।
सामायिक, स्वप्न और प्रतिकूल घटना की परीक्षकता—सामायिक और स्वप्न तथा प्रतिकूल घटनाएं हमारे बड़े हितकारी परीक्षण के साधन हैं। सामायिक करते समय जो बात दुकानादि अन्य किसी कार्य के करते समय ख्याल में भी नहीं आती है। सामायिक में देख लो कि कितने विकल्प उठते हैं? दूकान करते हुए इतने विचित्र ख्यालात नहीं बनते और सामायिक में दसों जगह चित्त जाता है। वह सामायिक सावधान कराने वाली दशा है और बता देती है कि तुम इतने मलिन हो, तुम घर पर, दूकान पर या किसी काम में लगे रहते थे। सो इसका भान नहीं हो पाता था कि तुम्हारे चित्त में कितनी योग्यता भरी है? कहां-कहां तुम्हारी वासना पड़ी है? इसको बता दिया है सामायिक ने। ‘स्वप्न’नींद में जो ख्याल बनता है और स्वप्न आता है, वह भी संस्कार की सही बात बता देता हैकि अभी हमारे में ऐसी वासना और संस्कार बने हैं। स्वप्न में चीज चुरा ली, किसी को पीट दिया, धन लूट लिया या और भी खोटा स्वप्न आए तो वह सब संस्कार की सूचना देता है। इसी कारण यदि कोई खोटा स्वप्न आ जाय तो उसका प्रायश्चित किया जाता है। उस स्वप्न का प्रायश्चित नहीं है, किंतु जिस वासना के आधार पर वह स्वप्न होता है उस वासना के अपराध का भी दण्ड है। इसी प्रतिकूल घटना भी हमारा परीक्षा केन्द्र है।
उत्तीर्णता—भैया ! हम चाहे मट्ठा दें और आप दें दूध तो हमें फिर क्रोध का कहां मौका मिले? कैसे हम परीक्षा करें कि अब शान्ति है और क्रोध पर विजय किया है। जब हम दूध चाहे और मिले छाछ, तब उस समय फुंकारे ना तो जानो कि हां हमने क्रोध पर विजय की है। प्रतिकूल घटना तो कसौटी का काम करती है। बढ़ते चलो अपनी साधना में और ये प्रतिकूल बातें यह उत्साह देती हैं कि हां, हमने सीखा तो है कुछ। अपने परिणामों को सँभाला तो है कुछ। अब और संभालो कि ये परपदार्थ किसी भी रूप परिणमें, हमको किसी परिणमन से कोई सम्बन्ध नहीं है। क्यों उन पर लक्ष्य देकर अपने आपमें हानि वृद्धि की बात सोचते हो और दु:खी होते हो?
अमृतपान—आत्मन् ! तू शुद्ध भावस्वरूप है। औदयिक भाव तो क्षणिक है। वह तो मेरा साथी नहीं है। आया, गया, ऊधम मचवाकर गया और आगामी काल में कर्मबंध हो—ऐसी स्थिति बनाकर गया। उससे तो तेरा लाभ नहीं। उस भाव को तू क्यों अपनाता है? ये रागद्वेष मोह परिणाम सब औदयिक भाव ही तो हैं। इनको तू अपना मत मान, इन्हें पर मान। सबसे बड़ा त्याग, तपस्या सब कुछ इस मूल भाव में भरा हुआ है कि वर्तमान में उदित हो रहे विभावों को हम अपने से विविक्त समझें। इस रूप मैं नहीं हू, मैं तो एक शुद्ध ज्ञानस्वभावमात्र हू। बस भैया ! इतनी ही खबर रहे तो यह ही अमृतपान है और भैया ! यह ही मूलत: मोक्षमार्ग है।
अज्ञानी के क्रोध में क्रोधविजय की सूझ का अभाव—किसी को क्रोध बहुत आता हो तो उसे लोग बहुत-बहुत सलाह देते हैं। कोई यों सलाह देता है कि जब क्रोध आये तो मौन धारण कर लेना चाहिये। कोई यों सलाह देता है कि क्रोध आए तो पानी की घूँट गले में फंसाए रहना, मगर जब क्रोध आता है तब मौन की खबर रहे, पानी पीने की खबर रहे तब तो अच्छी बात है, मगर क्रोध आते समय कोई पानी से भरा गिलास दूढ़ता है क्या कि अब क्रोध आ रहा है, लावो पानी पी लें? ऐसी तो किसी को खबर ही नहीं रहती है और किसी-किसी के खबर रह भी जाती है। जब क्रोध आता है तब मौन रख लो ऐसा कहते हैं। तो क्या किसी को ऐसी खबर भी रहती है? ऐसी खबर ज्ञानी को ही रहती हैं। अविवेकी को, क्रोधी को इतना होश कहां रहता है कि वह मौन कर सके?
विभाव की पृथकता में सबकी पृथकता का निश्चय—यह औदायिक भाव तो विरोधी भाव है, आत्मा के अहित रूप है, इसको तू मानता है कि यह मैं हू, यह कितना बड़ा अज्ञान है? झगड़ा पूछो तो सब कुछ इसी अज्ञानभाव पर निर्भर है। जैसे शरीर का चमड़ा छिल जाय तो रोग न ठहरेगा। इसी तरह यदि अपने उपयोग में इस औदयिक भाव को न अपनाया जाय, उपयोग से निकल जा यतो फिर आकुलता और झगड़े कहां पर विराजेंगे? जो यह मानता हो कि मैं रागद्वेष विभावरूप नहीं हू वह क्या कुटुम्ब परिवार को अपना मानेगा? सबसे अधिक निकट सम्बन्ध तो इन रागद्वेष विभावों से है। जब इन्हें ही धुतकार दिया, इनकी ममता का परिहार कर दिया तब फिर अन्य पदार्थों की ममता कहां पर विराजेगी? ये रागद्वेष, रागद्वेष की अपनायत पर जिन्दा हैं, रागद्वेष की अपनायत का नाम मोह है और सुहा जाय न सुहा जाय इस वृत्ति का नाम रागद्वेष है। ज्ञान होने पर यह सावधानी तो नियम से रहती है कि वह ज्ञाता पुरुष राग में राग नहीं करता है, पर राग हटे इसमें तो ज्ञानी को भी पुरुषार्थ करना होता है।
दृष्टान्तपूर्वक औदयिक भाव पर विजय का उपाय—औदयिक भाव के हटाने का उपाय उसकी उपेक्षा करना है। जैसे एक मोटे रूप में कोई गाली दें और हम सुनें नहीं यह बात तो कठिन है। वे शब्द तो कान में आते ही हैं। और सुनाई भी देते हैं पर उन गालियों से हम रूठें नहीं, ‘उसने अपने को दी’माने नहीं, अथवा गाली देने वाले को अज्ञानी जानकर रोष करें नहीं, इस बात पर तो वश है, पर कान में ये शब्द न आयें इस पर वश नहीं है। एक मोटी बात कही जा रही है। कोई यों कहे कि हम कान में अंगुलि लगाये लेते हैं तो फिर शब्द सुनाई न देंगे। ऐसी कोई विरुद्ध उद्यम वाली बात नहीं कह रहे हैं। एक सहज बात कही जा रही है कि सुनी हुई बात में विवेक बनाए रहें, रागद्वेष न करें यह तो बात निभ सकती है पर शब्द न सुनाई दें इस पर अपना वश नहीं चलता है। कभी तो शब्द सुनाई न दे ऐसी भी स्थिति हो जाती है जैसे कि हो गए दत्तचित्त निर्विकल्प ज्ञायकस्वरूप के अनुभव में तो वहाँ शब्द भी नहीं सुनाई देता। सामने से कोई निकल जाय, वह भी नहीं दिखाई देता। इसी तरह ज्ञानभाव की उत्कृष्ट स्थिति में राग और द्वेष नहीं होते, ऐसी स्थिति बन जाती है पर ज्ञान होने पर कुछ समय तक राग द्वेष होते रहते हैं तो भी यह ज्ञानी पुरुष उन रागादिकों को अपनाता नहीं है।
रागादिक भाव को अपनाये बिना निकल जाने देने की भावना—जैसे फोड़ा हो जाता है ना, और पक जाय, पीप निकल जायेगी तो वहाँ पीप को अपने हाथों से भी निकालते हैं। पीप निकल रही है, देख रहे हैं और भीतर से यह सोच रहे हैं कि निकल जाय और निकल जाय और उसे ज्यादा मसकते हैं और जानकार चाहता है कि निकल जाने दो। यों ही पीप की तरह समझ लो विषयकषाय का रोग होता है इन अध्यवसान के फोड़ों में। तो ज्ञानी तो कहता है कि निकल जावो। क्या कोई उस फोड़े के पीप को अपनाता भी है कि अभी रहने दो? ऐसा तो कोई नहीं करता। यों ही ज्ञानी जीव को विषयवासना क्रोधादिक कषाय, परद्रव्य की इच्छा ये बातें उत्पन्न होती हैं तो इन रागादिक भावों पर उसकी यों ही दृष्टि रहती है कि निकल जाने दो, अपन तो अपने में सुरक्षित हैं।
अन्तर्बल और विभाव का निकलना—कभी स्वप्न आया हो किसी को ऐसा कि कहीं में पड़ा हुआ हू और ऊपर से कोई हाथी निकल रहा है या मोटर निकल रही हो या रेलगाड़ी जा रही हो, तो उस समय अपने में ऐसा उत्साह बनाया है कि निकल जाने दो। थोड़ा देखते भी है कि अभी कितनी रह गई रेल? इतनी और निकल जाने दो। बड़े अन्तर में एक साहस बना है और गुजरती हुई बात को गुजर जाने दो, इस दृष्टि से निरखते हैं। इसी तरह ज्ञानी जीव उदय में आए हुए रागद्वेष परिणामों को इस दृष्टि से निरखता है कि इन्हें यों ही निकल जाने दो, ये निकलने को ही आए हैं, और अधिक क्या कहें? निकलने का नाम ही उदय या आना है।
विभाव का अटिकाव—भैया ! कोई रागभाव महिमान की तरह एक दिन ठहर जायें ऐसा नहीं है। रागादिक भावों के निकलने का नाम ही उनका आना कहलाता है। जैसे कोई बाहर से दौड़कर भीतर आए दरवाजे से निकलकर या दरवाजे से दौड़कर बाहर गया तो दरवाजे पर उसकी कितनी स्थिति रही? क्या दरवाजे पर ठहरा? अरे दरवाजे से निकला इसका नाम ही आना है। ऐसे ही आत्मा में रागादिक भाव होते हैं, वे ठहरते हैं और वे निकल रहे हैं, निकलने का नाम ही आना कहलाता है। जैसे सूर्य का आना, सूर्य का उदय होना—इसका अर्थ सूर्य का निकलना है। निकलने को ही आना कहा जाएगा। कहीं एक सेकण्ड को भी तो सूर्य खड़ा हो जाए, कहीं खड़ा नहीं होता है। यों ही रागादिक भाव भी निकलते हैं—ये निकलकर कहीं पर कुछ समय बैठ जायें, रह जायें—ऐसा इनका स्वरूप ही नहीं है। फिर परिणमन किसका नाम है? फिर तो कोई ध्रुव भाव बन जाएगा। परिणमन तो कभी भी दूसरे समय नहीं टिकता। निकलने का नाम परिणमन है और जो हमें बाहर से दिखता है कि ये अनेक परिणमन टीके हुए हैं। जैसा कल था, वैसा ही आज है, सो ऐसी बात नहीं है। कोई भी एक परिणमन दूसरे समय में नहीं रहता, किन्तु कोई परिणमन मोटे रूप से सदृश ही सदृश हो जाये तो उसमें यह ख्याल जम जाता है कि यह तो जो कल था, वही आज है। यह सब कुछ बदला ही कहां है? परिणमन तो चलता रहता है और वस्तु वहीं बनी रहती है। ये सब तो औदयिक भाव प्रकट मलिन परिणाम हैं, ये आत्मस्वरूप नहीं हैं।
पारिणामिक भाव—अब रहा पंचम भाव—पारिणामिक भाव। सो जीव के पारिणामिक भाव तीन बताए गए हैं—जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व। उनमें से भव्यत्व और अभव्यत्व अशुद्ध पारिणामिक भाव हैं अर्थात् कर्मों के उदय उपशम,क्षायिक व क्षयोपशम से नहीं होते हैं। इस कारण भव्यत्व व अभव्यत्व पारिणामिक हैं, फिर भी उनमें यह दृष्टि बनी है कि जो रत्नत्रयरूप होने की योग्यता रखे, उसे भव्य कहते हैं और जो रत्नत्रयरूप होने की योग्यता न रखे उसे अभव्य कहते हैं। ऐसी भवितव्यता पर, सम्भावना पर ये भाव आधारित हैं। इसलिए ये पूर्ण निरपेक्ष नहीं हैं, इन्हें अशुद्ध पारिणामिक भाव कहते हैं। जीवत्व भाव दो प्रकार का है—दस प्राणों करि के जीना और चैतन्यस्वभाव करके जीना। इसमें दस प्राणोंकरिजीनारूप जीवत्व भाव अशुद्धभाव है। वर्तमान में दस प्राणों कर जी रहा है—ऐसी बात अशुद्धता का कथन है। भावीकाल में जीवेगा—यह भी अशुद्धता का कथन है और जब जीव शब्द का अर्थ सिद्धों में सिद्ध करने जाते हैं तो वहाँ अर्थ लगाना पड़ता है कि दस प्राणों करके जिया था, उसे जीव कहते हैं। लो मर मिटे, सिद्ध है, भगवान् है और अब भी थोपा जा रहा है अथवा ये दस प्राणों से जीते थे, इसलिए इसका नाम जीव है। ऐसे जीवत्व का आशय अशुद्ध आशय है, निरपेक्ष आशय नहीं है। केवल चैतन्य स्वरसकर वृत्ति होना यह ही शुद्ध पारिणामिक भाव है।
शरणभूत अन्तस्तत्त्व—शुद्ध पारिणामिक भावस्वरूप कारणपरमात्मा ही अपना आत्मा है और इसे अंतस्तत्त्व कहते हैं तथा जीवादिक 7 पदार्थ अथवा 9 पदार्थ—ये सब बहिस्तत्त्व कहलाते हैं। जो अत्यासत्य भव्य जीव है, उसको ऐसे निज परमात्मा को छोड़कर ऐसे कारणसमयसाररूप तत्त्व को छोड़कर अन्य कुछ भी उपादेय नहीं है। जीव क्या कर सकता है? केवल दृष्टि कर सकता है? हाथ-पैर तो इसके हैं नहीं कि कोई क्रिया करे। यह तो दृष्टि भर करता है। जिस पर दृष्टि डाले, वही इसका उपादेय कहलाता है। निकटभव्य जीव इस कारणसमयसार में ही अपनी दृष्टि रखते हैं। उनको यह कारणपरमात्मतत्त्व ही उपादेय है। अन्य बहिस्तत्त्व, जीवादिक भाव, कल्पना—ये सब बाह्यतत्त्व ज्ञानी की प्रतीति में दृष्टि रखने योग्य नहीं है, वे सब हेय हैं। इसकी सूचना इस निम्नलिखित गाथा में आयी है और शुद्ध भावों का स्पष्ट स्वरूप भी इस गाथा में बता दिया गया है।
नियमसार ग्रन्थ में वक्तव्य तत्त्व—इस नियमसार ग्रन्थ में किसके बारे में चर्चा की जा रही है? यह जब तक सामने न आए तो चर्चा समझ में आ नहीं सकती। जैसे किसी पुरुष के बाबत में कुछ कहा जा रहा हो और उस पुरुष का नाम या परिचय न मालूम हुआ हो तो सारे दास्तान सुनकर भी श्रोता कुछ ग्रहण नहीं कर पाता है। जब कोई चर्चा चलती है, किसी आदमी के बारे में और उसका पता न हो सुनने वाले को तो वह पूछता है कि किस आदमी की यह बात है? जब वह बता देगा कि फलाने चन्द की यह बात है, तब उसे रस आने लगेगा उस गप्प में, निन्दा में और जब तक न मालूम हो, तब तक रस नहीं आता है। ऐसी ही प्रशंसा की बात है। जैसे प्रशंसा की जा रही है और न मालूम हो कि किसके बाबत में की जा रही है? सारे दास्तान सुनकर भी उसको रस नहीं आता, क्योंकि उस व्यक्ति को पता नहीं है और जहा नाम ले लिया, तब सुनने वाला भी हाँ में हाँ मिलाकर अपनी तरफ से कुछ और चर्चा उठाकर उसमें रस लेने लगता है। इसी तरह यह बात जो कुछ कही जा रही है, यह किसके बाबत कही जा रही है? उसका पता न हो तो यह सब कुछ निरर्थकसा ही मालूम पड़ेगा।
लोक के व धर्म के बालकों का श्रवण—जैसे किसी कहानी की गोष्ठी में छोटे बालक केवल कहानी का नाम सुनकर घुटने टेककर सुनने को बैठ जाते हैं, पर उन बालकों को केवल इतनी ही चाह है कि हम सुन रहे हैं, पर उन्हें यह बात विदित नहीं हो पाती है। इसी तरह ज्ञान की गोष्ठी में जहां लक्ष्य का परिचय करने वाले कहते या सुनते हों, वहाँ कोई अपरिचित बालक भले ही अपनी मुद्रा से कुछ सुनने को बैठे, परन्तु केवल इतना ही उसको आनन्द है कि हाँ हम सुनते है, पर उसे कुछ भी रस नहीं आ पाता है। कष्ट इतना ही किया जा रहा है—आना, सुनना, बैठना, उठना, समय लगाना और काम का भी छोड़ना। थोड़ा मनोयोग संभाल कर कुछ लक्ष्य की पहिचान करते तो यह बड़ी बात ऐसी मालूम पड़ेगी कि हाँ एक-एक वचन सत्य है—यह ठीक तो कहा जा रहा है।
कारणसमयसार का लक्ष्य—भैया ! इस नियमसार में आद्योपांग एक ही लक्ष्य रखा गया है और वह लक्ष्य है उस नियम की दृष्टि करना, जिस नियम की दृष्टि से नियमसार प्रकट होता है अथवा उस नियमसार की दृष्टि करना जिसकी दृष्टि से नियम चलता है अर्थात् कारणसमयसार की दृष्टि करना जिससे कार्यसमयसार प्रकट होता है। अपने आपके आत्मा में जो बात गुजर रही है, चाहे वह भली गुजर रही हो, चाहे बुरी गुजर रही हो, उस समस्त गुजरने वाले तत्त्व को ओझल करके जिस ज्ञानस्वभाव पर ये तरंगे चलती हैं उस ज्ञान स्वभाव को लक्ष्य में लेना। जो कुछ यहाँ प्रशंसा गायी जा रही है, वह तो अनादि अनन्त अहेतुक चित् स्वभाव की प्रशंसा गायी जा रही है ऐसे भव्य जीवों को यह अपना अंतस्तत्त्व उपादेय होता है।
समयसार के प्रति कल्याणवाद—अहो यह समयसार जयवंत हो। अपनी विजयपताका फहराता हुआ निरर्गल विहार करो, ऐसे भव्य जीव उस सरल तत्त्व की महिमा जानकर अपने हृदय के उद्गार प्रकट करते हैं। जैसे कोई भिखारी किसी दातार को आशीर्वाद देता है अथवा कोई भक्त भगवान को जयवंत हो तुम्हारा जय हो, ऐसे आशीर्वाद वचन कहता है इसी प्रकार इस कारणसमयसार के उपासक भव्यजीव को इतना आल्हाद हुआ है कि इसका जयवाद आशीर्वाद देता है। आशीर्वाद देना बड़े का ही काम नहीं हैं। यह तो अपने-अपने भाव प्रसंग की बात है। कहीं बड़ा छोटे को आशीर्वाद देता है तो कहीं छोटा बड़े को आशीर्वाद देता है। आशीर्वाद का अर्थ है कल्याणवाद। पर भाव जुदा-जुदा है। न किसी की महिमा हृदय में पूरी नहीं समा पाती है। हृदय से बाहर भी महिमा आती है तो उस छोटे उपासक की ऐसी आवाज निकलती है कि यह जयवंत हो। कभी कोई सरल अपने ज्ञान ध्यान की धुनि में रहने वाला कोई त्यागी मिलता है तो गृहस्थ भी तो उस त्यागी को चाहे मुख से आशीर्वाद न दे, पर हृदय से आशीर्वाद के वचन निकल ही पड़ते हैं। बहुत सरल है बेचारा, खूब प्रगति करे। तो छोटे बड़ों के प्रति आशीर्वाद देते हैं और बड़े छोटों के प्रति आशीर्वाद वचन बोलते हैं।
कारणसमयसार की भक्ति, सेवा—यहाँ भव्य आत्मा इस महान् विराट पंचमभाव, पारिणामिकभाव, कारणसमयसार के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करता है कि हे समयसार तुम जयवंत हो। तुम समस्त तत्त्वों में एक सारभूत हो। असार-असार सब निकल भागते हैं, ठहर नहीं पाते हैं पर हे कारणसमयसार ! तुम तो वही के वहीं अनादि अनन्त ज्यों के त्यों स्वभाव रूप से विराजमान् रहते हो। सार बात डोलती नहीं फिरती है। सार तो अपना ज्ञानमात्र स्वभाव ही है। उसी का महान् चमत्कार दिख रहा है। जो असार हो, नकल हो, औपाधिक हो वही डोला करता है। यह कारणसमयसार सर्वतत्त्वों में एक सारभूत है। जो समस्त विपदावों से दूर हैं, निरापद है। उसकी ही दृष्टि करके तो आपत्ति मिटाई जा सकती है।
प्रभुता—प्रभुता अरहंत देव में है और प्रभुता प्रत्येक जीव में है। प्रभु की प्रभुता का ध्यान अपनी प्रभुता को समझाने के लिये है। और अपनी प्रभुता का आश्रय अभेद रत्नत्रय प्रकट करने के लिए है। यह प्रभुतानिरापद है। अरहंत सिद्ध की प्रभुता प्रकट व्यक्त है और हम आप सबमें वह प्रभुता स्वभाव से है। उसके ही दृढ़ रुचियां बनें, उसके ही दीवाना बनें, पागल बनें, दूसरी बात ही न सुहाये, वही अन्तर में प्रकट दिखे, सर्व बातें अहित हैं, असार हैं, नष्ट होने वाली है। इन भिन्न पदार्थों में अपने उपयोग में गड़ने से अपने आत्मीय ढंग से तत्त्व कुछ न मिलेगा। ये सब अन्य समस्त जीवों के भेद भिन्न है। निरापद तो मेरे आत्मा का यह अंतस्तत्त्व है। जो चित् स्वभावमय है, अचल है, आनन्दनिधन है। अपने आपके ज्ञान के द्वारा ही अपने ज्ञान में आ सकने योग्य है। ऐसा यह चैतन्य चमत्कार जो चकचकायमान है, ऐसा यह कारणसमयसार जयवंत हो।
सर्वत्र समयसार के जयवाद की भावना—किसी से द्वेष हो तो उससे बदला लेने के दो तरीके हैं। एक तो लट्ठमार तरीका, जैसा चाहे बोल दिया मारने लगा, आक्रमण कर दिया। इससे तो विवाद बढ़ता है, विजय हासिल नहीं होती हैं और एक ऐसा बर्ताव या प्रक्टिकल व्यवहार करना जिससे कि उसके चित्त में बैरभाव ही न रहे, मित्र बन जाय, यह भी बदला लेने का तरीका है। तो परिवारजन हों, अन्य जन हों, मित्र जन हों, विद्वेषी जन हों, सर्वजीवों में एक कारणसमयसार जयवंत हो। तब हमारे लिए सब एक समान है। जगत में कोई जीव न तो विद्वेषी है, न विरोधी है, न बैरी है और न मित्र है, किन्तु उनकी चाल-चलन व्यवहार ही कुछ स्वभाव विरुद्ध है और इसकी कल्पना के प्रतिकूल है तो यह विरोध का व्यवहार माना जाता है। यदि ज्ञान यह जयवंत प्रवर्ते तो सब जीव एक समान हैं, फिर वहाँ द्वैतभाव नहीं रह सकता। यह कारणसमयसार सर्व विपदावों से दूर है सर्वदोषों से मुक्त है, किन्तु इसका सर्वत्र जयवंत होकर प्रवर्तना विश्व के लिए लाभदायक है। इस समयसार की दृष्टि से भव्य लोग काम, क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों से दूर हो जाते हैं।
काल्पनिक बन्धन का कष्ट—जीवों को दु:ख है केवल कषाय का और कोई दूसरा कष्ट नहीं है। पशु, पक्षी, यत्र, तत्र सर्वत्र विचरते हैं। पशु पक्षी यहाँ से वहाँ उड़ जाते हैं। कहां के उड़े कहां गये, क्या कष्ट है? थोड़ा कभी पास के बैठे हुए समानजातीय पक्षी से झगड़ा हो गया तो थोड़ी चोंचें मिलाकर एक सेकेण्ड में भिड़कर भाग जाते हैं। वे पक्षी बिल्कुल स्वतंत्र हैं, पर ये मनुष्य पक्षी कितने विचित्र हैं कि ये लड़ भिड़कर अलग नहीं हो पाते हैं, अथवा ये कहीं से कहीं उड़ नहीं पाते। न खूटे का बन्धन है, न साँकर का बन्धन है, फिर भी इतना तेज बंधा हुआ है कि यह इस बन्धन से मुक्त नहीं हो पाता। देखने में अचरज होता है, स्वतंत्र है, अपनी हद में रहता है, शरीर में है, स्वरूप में है, कहीं तो बंधे नहीं। न पैरों की ओर से कुछ बंधन दिखे, न सिर की ओर से कुछ बंधन दिखे किन्तु अन्तर में कल्पनाओं का ऐसा दृढ़ बन्धन है कि न खूँटा होते हुए भी बंधा हुआ है। न गिरमा होते हुए भी गिरमा बना हुआ है। ये कहीं उड़ नहीं पाते, कहीं भाग नहीं पाते।
अन्तर्भावना की अनुसारिणी शुद्धि—भीतर में जैसी जिसने ज्ञानभावना की है उसके उतनी शुद्धता बढ़ी है। बाह्य भेष रख लेने से या बाह्य अपनी कुछ करनी दिखा देने मात्र से अन्तर में अन्तर नहीं पड़ता है। जैसे श्वान को सज़ा देने से उसमें शूरता तो न आ जायेगी या शेर पर कोई शृङ्गार न हो तो उसकी वीरता में अन्तर तो न आ जायेगा। यों ही जिसके ज्ञानभावना नहीं है, कारणसमयसार की दृष्टि नहीं है, रात दिन के जीवन में किसी भी क्षण इस सरल क्रोधरहित ज्ञायकस्वभावमय आत्मा के अंतरतत्त्व की दृष्टि नहीं जगती हैं वह बाहर में शरीर की क्रियावों का शृङ्गार सज़ा ले अथवा शरीर के वेषभूषा का शृङ्गार सज़ा ले तो अन्तर में अन्तर तो न आ जायेगा, और एक गृहस्थ जो फंसा है अनेक कार्यों में, परिजन का कार्य है, दुकान का कार्य है, समाज देश धर्म के अनेक कार्य हैं उनमें पड़ा है फिर भी उसे वे कार्य सुहाते नहीं हैं। कुछ थोड़ी ऐसी प्राकृतिकता भी है, नियम तो नहीं है पर पास चीज न हो तो ललचाहट आ ही जाती है और पास चीज हो तो ललचाहट नहीं आती है। इस कुछ प्राकृतिकता के कारण इस ज्ञानी गृहस्थ को उस समागम में ललचाहट नहीं है, रुचि नहीं है और उसके ज्ञानभावना चलती हो, अपने फंसाव पर और गृहस्थी पर पछतावा बना हुआ हो तो उसका कोई शृङ्गार ऊपर से नहीं है, वेषभूषा नहीं है, लेकिन धन्य है ज्ञानप्रभावना, भगवती प्रज्ञा, जिसके प्रसाद से वह मोक्षमार्ग में स्थित है।
दृष्टि के अनुसार स्वाद—एक छोटा सा कथानक है कि राजा व मन्त्री दरबार में बैठे थे। बड़ा दरबार तो न था, पर प्रथम श्रेणी का दरबार था, जिसमें कुछ ही मित्रजन थे। उस गोष्ठी में राजा ने मन्त्री से मजाक किया—मन्त्री ! आज रात को मुझे एक स्वप्न हुआ कि हम और तुम दोनों घूमने चले जा रहे थे तो रास्ते में पास-पास खुदे दो गड्ढे मिले। एक में तो गोबर मैल आदि भरा था और एक में शक्कर भरी थी। मन्त्री जी ! तुम तो गिर गए गोबर मैल के गड्ढे में और हम गिर गए शक्कर के गड्ढे में। अब मन्त्री बोला कि महाराज ! ऐसा ही स्वप्न मुझे आया। न जाने हमारा और तुम्हारा दिल एक ही है कि जो कुछ तुमने स्वप्न में देखा, वही मैने देखा। हमने भी यही देखा कि हम तो गिर गए गोबर मैल के गड्ढे में और आप गिर गए शक्कर के गड्ढे में, पर इससे आगे थोड़ासा और देखा कि आप हमें चाट रहे थे और हम आपको चाट रहे थे। बताओ भैया ! वहाँ क्या बात हुई? राजा को तो चटाया गोबर मैल, क्योंकि मन्त्री मैल गोबर के गड्ढे में पड़ा हुआ था और मन्त्री ने चाटा शक्कर, क्योंकि राजा शक्कर के गड्ढे में पड़ा हुआ था। तो ऐसा ही हाल हो जाता है कि गोबर मैल के स्थानीय जो गृहस्थी का फंदा है, उसमें पड़ा हुआ ज्ञानी गृहस्थ कहो ज्ञानरस को चाट रहा हो और कहो बड़े-बड़े क्रियाकाण्ड करने वाला शरीर की चेष्टाएं करके धर्मवेश धारण करने वाला कहो अज्ञानविष चाट रहा हो, ऐसा भी तो सम्भव है।
ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि की प्रधान कर्तव्यता—भैया ! कोई किसी भी अवस्था में हो, प्रधानता देनी चाहिए अपनी सुदृष्टि को कि मैं अपने आपमें बसे हुए इस गुप्त कारणसमयसार को देखूं और इसकी उपासना में बर्तू, इसके समक्ष अन्य सब बातें असार हैं। यह कारणसमयसार पाप वृक्ष को उखाड़ देने में कुल्हाड़े की तरह है। जहां निजज्ञायकस्वभाव की दृष्टि होती है, वहाँ कर्म ठहर नहीं पाते। इसमें ही शुद्धबोध का अवतार होता है, ज्ञान कहां प्रकट होता है? एक इस निजअन्तस्तत्त्व में। आनन्दामृत भी भरा हुआ है इसी अन्तस्तत्त्व में। कार्य सरल भी है और कठिन भी है अथवा यों कहो कि कार्य सुगम है या असंभव है, कठिन नाम की बात नहीं है। जब दशा अज्ञान की है, तब ऐसा आनन्दामृत पा सकना उस दशा में असम्भव है और जब ज्ञानावस्था है तो ऐसे आनन्दामृत का पान कर लेना वहाँ सुगम ही है। यहाँ जबरदस्ती का सवाल नहीं है।
विद्या की शरीरबल पर अनिर्भरता—बचपन की बात है कि एक बार हमसे एक पहलवान विद्यार्थी का झगड़ा हो गया। था वह सहपाठी। हम कक्षा में सबसे छोटे थे, कोई तो 4 वर्ष बड़ा, कोई 5 वर्ष बड़ा। वह हमसे 5 वर्ष बड़ा था। उस झगड़े में बलप्रयोग तो हम कर नहीं सकते थे, शरीर में बल न था, किन्तु उस समय हम तो बातों से मुकाबला किए करते थे। तो जब बहुत ही झगड़ा हो गया। था वह लड़का कुछ मूर्ख सा, अच्छे नम्बर न आते थे। तो एक किताब खोलकर उस पर मैं हाथ मारने लगा। जैसे कि पहलवान लोग कुश्ती में पहलवान पर हाथ लगाते हैं—ऐसे ही हमने उस पुस्तक पर हाथ मारकर कहा कि हमें विद्या आएगी क्यों नहीं। वह समझ गया कि यह हमको लक्ष्य करके कह रहा है। वह शरम करके झगड़ा छोड़कर उधेड़ बुन में लग गया। तो विद्या कोई जबरदस्ती की चीज नहीं है और इस सहजस्वभाव की दृष्टि जबरदस्ती की बात नहीं है कि जबरदस्ती करके बना लो। यह तो जब बनता है तो झट बनता है और जब नहीं बनता है तो वहाँ उसका आसार ही नहीं रहता। उद्यम जरूर किया जाता है, पर यह प्रकट कठिनाई से नहीं होता, यह सुगमता से होता है, सहज क्रिया से होता है।
अमोघ औषधि—यह कारणसमयसार समस्त क्लेषविषों से दूर है, यह समस्त कष्टों के मिटाने की अचूक दवा है। बाकी सब दवाएं कहो कि कभी काम दे जायें, कभी न काम करें, पर यह बड़ी अचूक दवा है उन समस्त क्लेशों के दूर करने की। आयें संकट, कितने आयेंगे, किन किनके नाम संकट हैं। एक भजन है—प्यारी विपदाओं आवो। रति निद्रा में सोये जन को बारम्बार जगावो। आवो कष्ट ! कितने आवेंगे? राग की निद्रा में सोये हुए को बारम्बार जगाओ अर्थात् खूब आवो। कौन-कौनसा नाम लें कष्टों का? टोटा पड़ गया, स्त्री गुजर गयी, इकलौटा बेटा बहुत ही अधिक बीमार है, पैसा नहीं रहा, समाज के लोग पूछते नहीं है, और भी जितने कष्ट हो सकते हों, उन सबको संभावना करके अपने पास रख लो और अपने उपयोग को भीतर स्वरूप में लगाकर ऐसा दर्शन करो कि यह तो केवल चैतन्यस्वरूपमात्र है। इतनी दृष्टि करते ही वे सारे क्लेश उड़ जाते हैं, एक भी क्लेश वहाँ नहीं ठहरते हैं। यह सूचक दवा की बात कही जा रही है, जिससे करते बने, वह करके स्वस्थ हो जाता है और जिससे न करते बने, वह इसके चाहने की कोशिश करे।
अन्तस्तत्त्व की अनुपलब्धि पर पठित मूढ़ों की छल भरी चतुराई—न कुछ पा सकें तो सब बातें ही बातें हैं। कोई करके तो दिखावे—ये सब तो पुस्तकों की बातें है—ऐसी बात कहकर स्वच्छन्दतापूर्वक लगे रहना और विषयपोषने की वृत्ति बनाना, इससे कुछ लाभ नहीं होता है। भले ही लोग जानें कि हम बड़ी चतुराई का काम कर रहे हैं। सो यह ऐसी बात है कि जैसे लोमड़ी अंगूरों को पकड़ नहीं सकी, कितना ही प्रयत्न करने पर जब अंगूर न पा सकी तो ये अंगूर खट्टे हैं—ऐसा कहकर अपना मन तुष्ट कर लिया उस लोमड़ी ने, क्योंकि चतुराई करने से उस लोमड़ी को कुछ भी न मिला।
औषधि और पथ्य—भैया ! संकटमुक्ति की एक ही दवा है—सनातन अहेतुक कारणसमयसार की दृष्टि करना। इस उपाय को कुछ तो महत्त्व दीजिए। इसकी उपासना से पापों का क्षय हो जाता है, पुण्य उदीर्ण होकर सामने आता है और जो चाहे, वही उपलब्ध हो जाता है। इसके साथ निर्वाच्छकता का पथ्य होना चाहिए। भगवान् की सेवा करने से धन व वैभव कुटुम्ब सब जैसा चाहो, मिल जाता है—यह बात सच है, गलत नहीं है, मगर कोई इस ही भाव से भगवान् की सेवा करे, पूजा करे कि मुझे धन व परिजन अच्छे मिलें तो उससे कुछ लाभ न मिलेगा, यह तो गोरखधंधा है। तो ऐसा यह कारणसमयसार है, जिसकी उपासना से सर्व क्लेश दूर हो जाते हैं।
इस कारणसमयसार की कैसी स्थिति है? इस सम्बन्ध में कुन्दकुन्दाचार्य देव निषेधपरक पद्धति से यह बतलावेंगे कि इस कारणसमयसार में ये परतत्त्व नहीं हैं।