वर्णीजी-प्रवचन:चितसंस्तवन - श्लोक 1
From जैनकोष
चित्स्वरूप की शिवमयता-मैं इस चैतन्यस्वरूप को सेवता हूं जो कि शिवस्वरूप है । शिव का अर्थ है कल्याण, मंगल, सुख, शान्ति । जो भी परम अभीष्ट का अर्थ है वह शिव का अर्थ है । यह चैतन्यस्वरूप स्वयं शिवस्वरूप है । प्रयोगविधि से अपने आप की सम्हाल करके भेद विज्ञान से, तत्वज्ञान से इस चित्स्वरूप का निश्चय करके इस ओर जो ठहरता है वही जान पाता है कि यह आत्मा शिवस्वरूप है । जैसे- कहावत में कहते हैं कि अन्धे को क्या चाहिए? दो नयन । और, कहते हैं कि आम खाने से काम, या पेड़ गिनने से । इसी तरह अपने आपसे भी बात करिये । हे आत्मन् । तुम्हें क्या चाहिये तथा तुम्हें शान्त रहने से काम है या दुनिया के बखेड़ों से काम ? बखेड़ों से कुछ नफा मिलता हो तो चलो बखेड़ा करो । तुम्हें शान्ति से रहना है तो शान्ति का जो अन्त: उपाय है उसे सच्चाई के साथ जान तो लो । हम आप सबका एक ज्ञान ही सहारा है । हम शान्ति के पथ में बढ़ें इसके लिए आवश्यक है कि हम यथार्थ ज्ञान करें । सही बात जानने के अनन्तर इसे आकुलता नही रहती। व्यापारिक जीवन में भी आप जानते होंगे कि यदि सच्चाई की बात में, न्याय नीती की बात में कुछ हानी भी अपने को उठानी पड़ रही हो तो लोग उसकी भी परवाह न करके अपनी बात को महत्व देते हैं व उस होने वाली हानि को प्रसन्नता से सह लेते हैं । फिर तो जिसको निश्चय से आत्मकल्याण की भावना हुई है वह पुरूष तो सत्य का आग्रह करने ही वाला है । वस्तुस्वरूप यथार्थ ज्ञान में आये फिर वहां आकुलता नहीं जगती ।
चित्स्वरूप की सहजता- यह आत्मस्वरूप, यह सहज सत्य स्वभावत: निराकुल है, सर्व विपदाओं से अतीत है । स्वयं है एक प्रतिभासमात्र । जो लदान लगा है, जो विकार आया है, जो बाह्य तत्त्व है वह तो मेरा स्वरूप ही नहीं । आया है, मेरा सहज स्वभाव नहीं । मैं तो केवल अपने स्वरूप की वार्ता में लग रहा हूं । मैं शिवस्वरूप हूं तथा सहज हूं । जब से मैं हूं तभी से जो साथ है वह सहज कहलाता है और इसी कारण सहज सुगम होता है । दुर्गम तो यह विकारभाव है जो कि मुश्किल से, बड़ी अधीनताओं से आया याने बड़े प्रोग्राम रचे तब आया । दुर्गम तो विकार है, स्वभाव तो सहज है । है वह सहज, पर जैसे कोई कह उठे उल्टी गंगा बह रही है याने हो तो रहा है नीचान किसी ओर और बह जाय ऊपर की ओर तो यों ही समझिये कि मोही पुरुषों को विकार तो सुगम लग रहे हैं और स्वभावदर्शन दुर्गम लग रहा है । अकेला पर से अशरण यह आत्मा आज मनुष्यभव में आया है, इसको जो समागम जन्म से ही मिला है तथा मध्य में या कभी मिला है उन समागमों को सत्य मानना,अपना वास्तविक संग मानना, वैभव मानना यह तो बड़ी भूल है । भूल-भूल में ही तो अनन्तकाल बिताया और भूल में ही यह दुर्लभ मनुष्यभव भी बीत जायगा। तब क्या हाल होगा? अपने सहजस्वरूप की सेवा कर लो। सेवा करना अर्थात् सहज स्वरूप को अधिकाधिक तकते रहना, यही मैं हूं ऐसी प्रतीती रखना, अन्य मैं नहीं हूं, मेरा यह स्वरूप ही मेरा है, अन्य कुछ मेरा नहीं । इस प्रतीती से नहीं चिगना।
चित्स्वरूप के परिचय की अवश्यकर्तव्यता- भैया ! अन्तस्तत्त्व की अपनी यह बात वास्तविक बात हो तो मान लो, न हो तो न मानो । मानकर भी उस पर चलो या न चलो मर्जी तुम्हारी, पर चीज यदि यथार्थ है, वास्तविक है तो माना क्यों नहीं जाता ? मान ही लिया जाना चाहिये। यदि जैन शासन का फायदा उठाना चाहते हों, ऐसे उत्तम श्रावक कुल से फायदा उठाना चाहते हों, ऐसी दृष्टि ज्ञान वाला मन मिला है, हिताहित का विवेक कर सकते हों, कर्तव्यपर चलने का साहस बना सकते हों तो इसका सदुपयोग कर लो, मान लो यह बात कि मेरा अनादि अनन्त अहेतुक चैतन्यस्वरूप यही मात्र मैं हूँ इसके अतिरिक्त जो भी मेरेपरलदान है वह मैं नहीं । ऐसे अपने चित्स्वरूप को देखो और देखते रहो बस यही स्वरूप की सेवा है । कोई बड़ा आदमी जब नगर में आता है तो लोग उसे नजराना भेंट करते हैं बस हो गया सम्मान उसका । इतना ही मात्र उसका सम्मान है । तो अपने इस चैतन्य महाप्रभु का सम्मान यही है कि इसको हम नजर में लें, इसकी ओर दृष्टि लगाये रहें, इसे ही ज्ञान में बसाये रहें, इससे इस प्रभुका विकास होगा । यही प्रभु की सेवा है । सेवा करो तो बड़े की करो । कौन है बड़ा मेरे लिए, जिसके बाद फिर कोई दूसरा बड़ा न हो, वह है मेरा विशुद्ध प्रतिभासस्वरूप । इस सहज शिवस्वरूप चेतन को मैं प्रकृष्ट रूप से भजता हूँ । अब इसका पहिला छंद कहते हैं-
शिवसाधनमूलमजं शिवदम् । निजकार्यसुकारणरूपमिदम् ।
भवकाननदाहविदाहहरम् । प्रभजामि शिवं चिदिदं सहजम् ॥1॥
तोटक छंद की विशेषता- तोटक छंद में प्रत्येक तीसरा वर्ण दीर्घ होता है, शेष वर्ण सब ह्रस्व होते हैं । 12 वर्ण 16 मात्रा और उसमें भी दो ह्रस्व के बाद एक दीर्घ आना ऐसी मात्राओं से और मात्राओं के क्रमों से जिसके प्रत्येक चरण बंधे हुए हों उस छंद को तोटक छंद कहते हैं अर्थात् जिसमें चार सगण हों उसे तोटक छंद कहा गया है । अहा, तोटक छंद ही यह संकेत कर रहा है कि तोड़ दो – क्या तोड़ दो ? जो अनादि की विडंबना है, जो भवसाधन है उस विभाव की परंपरा को तोड़ दो । उसके तोड़ने का उपाय है यह कि अपने आप में बसे हुए चैतन्यस्वरूप को उपयोग के सामने लाकर या इसके सामने उपयोग को करके स्वरस का रस लो, स्वाद लो और ध्यान करो । मैं इस सहज शिवस्वरूप चैतन्य को प्रकृष्ट रूप से भजता हूं ।
शिवसाधनमूल की अंतर्दृष्टि- यह चित्स्वतत्त्व शिवसाधन का मूल है, मोक्ष के जो साधन हैं उनका मूल है । मोक्ष के साधन हैं सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र याने विशुद्ध ज्ञान विकास । उसका यह मूल है । मोक्ष का साधन करो बजाय इसके यह कहना कि शिव का साधन करो, यह उसकी अपेक्षा से प्रबल अंतरंग दृष्टि के अंतर्गत है । जो शिवस्वरूप है अविकार है उस स्वरूप का साधन करो उसकी सिद्धि करो, उसकी आराधना करो । आराधना का ही नाम राधा है और राधा जब नहीं मिलती है तो उसका नाम है अपराध । इसने अपराध किया, मायने इसने राधा का संग छोड़ दिया ।
जब उपयोग में अपना स्वरूप समाया रहता है तो उसे राधा कहते हैं। इस राधा के साथनिरंतर रह रहे थे साँवलिया पार्श्वनाथ । ‘जैसे कहते हैं’- ‘राधेश्याम’ राधा और श्याम निरंतर साथ रहे’ ऐसा लोग कहते हैं । पर अर्थ इसका था-अपने आपके स्वरूप की दृष्टि रखना उसका ही नाम है सिद्धि उस सिद्धि के साथ प्रभु श्याम पार्श्वदेव प्रसन्न (निर्मल) रहे । वह सिद्धि जब जीव के भाव में नहीं रहती है तो उसका नाम है अपराध । जब सहजभाव के साथ रहना होता है उपयोग का तब है वह शिवसाधन या शिवसिद्धि, सो यह तो है मंगलरूप और इसके विरुद्ध जो भाव है वह है अपराध । अपने आपको विकारस्वरूप निरखना तथा यही तो मैं हूं, जिसका अमुकलाल, अमुकप्रसाद, अमुकचंद आदि नाम हैं, यही तो मैं हूं, मैं और अन्य क्या हूं ? मैं इस घर का मालिक हूं, स्वामी हूं, मैं इतने बच्चों वाला हूं, मैं ऐसी पोजीशन का हूं, इस प्रकार से अपने आप की सेवा करना, आराधना करना यह तो है अपराध, और मैं शिवस्वरूप प्रतिभासमात्र अमूर्त अंत: पदार्थ हूं, इस प्रकार की आराधना करना यह है शिवसाधन ।
चित्स्वरूप की शिवसाधनमूलता पर प्रकाश- इस शिवसाधन का मूल है यह चित्स्वरूप। सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ? इस चित्स्वरूप को आत्मारूप से प्रतीति में लेना सो सम्यग्दर्शन है । सम्यग्ज्ञान किसे कहते हैं ? इस अखंड चैतन्यस्वरूप की प्रतीति के साथ जो जानकारी होना है सो सम्यग्ज्ञान है । सम्यक्चरित्र किसे कहते हैं ? इस अविकार अखंड चित्स्वरूप में उपयोग निरंतर बनाये रहना, इसका नाम है सम्यक्चरित्र । तो देखो शिव के साधन हैं सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र । और इनका मूल है, इनका आधार है यह चित्स्वरूप । ऐसे शिवसाधन के मूल चित्स्वरूप को मैं प्रकृष्टरूप से सेवता हूं । यह किसकी चर्चा चल रही है ? इस अंतस्तत्त्व की, चित्स्वरूप की, यह शिवसाधनमूल है ।
जितने हमारे कल्याणरूप साधन हैं वे साधन तब साधन कहलाते हैं जब इस चित्स्वरूप को आश्रय में लिये हुए हों । इस कारण यह सहज परमात्मतत्त्व शिवसाधनमूल है। सुबह कहां गये थे ? प्रभु की पूजा करने । पूजा में क्या किया था ? किया था यत्न इस चित्स्वरूप का ही आलंबन लेने का । दशलक्षण पूजा भी की । क्या किया ? वहां नाना भाव भरते हुए इस चित्स्वरूप की दृष्टि की, तीर्थंकर की पूजा की, गुरु की पूजा की, देव की पूजा की, सिद्ध की पूजा की । क्या किया वहां ? इस चित्स्वरूप का आश्रय लेने का यत्न किया । और जिसको मूल विदित नहीं है कि क्या करना था, हमने क्या किया, सो वे उत्तर दें । उपासक के उत्तर ने यदि पूजा में ध्यान में सब जगह इस चित्स्वभाव का संबंध बनाया, इसमें डोर लगायी, उसको ही मूल माना गया तो वह साधन है धर्मसाधन, शिवसाधन । ऐसे शिवसाधन-मूल इस सहज शिवस्वरूप चित् को मैं सेवता हूं ।
यह सहज चित्स्वरूप अज है । न जायते इति अजं । जो उत्पन्न न हो उसे अज कहते हैं । यह किसी कारण से किन्हीं हेतुओं से, किसी काल में उत्पन्न नहीं हुआ है, यह अपने आपके स्वरूप की बात कही जा रही है । मैं वास्तव में हूं, उसकी चर्चा की जा रही है । मैं अज हूं । मैं इस दिन पैदा हुआ, मैं इस माँ बाप से उत्पन्न हुआ, ऐसी जिनको श्रद्धा है उन्होंने अपना अनादि अनंत स्वरूप नहीं समझा । मैं अज हूं, किसी से उत्पन्न नहीं हुआ । शाश्वत हूँ । परमार्थभूत चैतन्यसत् हूँ । अज नाम ब्रह्मा का भी है । जो उत्पन्न न हो उसे अज कहते हैं । हमारा ब्रह्मा कौन है । यही अज, अनादि काल से अपनी पर्यायों में रहता हुआ, पर्यायों में तमतमाता हुआ जो चला आ रहा है । यह चित्स्वरूप अज है ।
अंतस्तत्त्वचित्स्वरूप की उपासना की प्रयोग बिना असंभवता- शिवसाधना का मूल यह अज चैतन्यस्वरूप समस्त शिव का प्रदान करने वाला है और कल्याण है, मेरे लिए मंगल है, जिसमें सदा के लिए शाश्वत हित ही रहता है ऐसे परमार्थ परमपद को प्रदान करने वाला यह चित्स्वरूप है, यह अपनी सुख शांति का अपने विकास का सत्य वैज्ञानिक रूप है। प्रयोग करके देखो-अंदाज करो, जहाँ गलती हो वहाँ निरखो । जैसे वैज्ञानिक के अविष्कार प्रयोग साध्य हैं और वैज्ञानिक अविष्कार ही क्या, व्यवहार की बाते भी प्रयोग साध्य हैं । बात बात के कहने सुनने से होने वाले ज्ञान में और उसको प्रयोग से अभ्यास में लाये हुए ज्ञान में अंतर है । एक स्कूल में मास्टरजी लड़कों को जल में तैरने की कला सिखा रहे थे। पुस्तकें भी बहुत सी थीं । 6 महीने का कोर्स था । 6 महीने तक मास्टर ने लड़कों को खूब जल में तैरने की कला पढ़ा दी, देखो इस तरह से नि:शंक होकर जल में कूद जाना चाहिये, इस तरह से हाथ चलाना चाहिये, इस तरह से पैर फटकना चाहिये आदि । जब 6 माह पूरे हो गए तो मास्टर ने उन लड़कों की परिक्षा लेने के लिए कहा । लड़कों को एक नहर के किनारे खड़ाकर दिया और कहा- देखो हम 1, 2, 3 कहेंगे, जब हम 3 कहें तो तुम सभी लोग इस नहर में कूदजाना और अपने तैरने की कला दिखाना । जब मास्टर ने कहा- 1, 2, 3 तो सभी लड़के जल में कूद गए और वे सबके सब डूबने लगे । अब क्या हो ? मास्टर भी बुद्धू ही थे । वह तैरना न जानते थे, केवल मुख से भाषण (speech) करने वाले थे । आखिर नहर में जो नाविक (मल्लाह) लोग थे उन्होंने उन सभी लड़कों को जल्दी जल्दी पकड़कर बाहर निकाल लिया । उन मल्लाहों ने मास्टर को दसों गालियां दीं । मास्टर ने कहा-भाई हमने तो इन सभी लड़कों को तैरने की कला बहुत अच्छे ढंग से पढ़ाया, (सिखाया) पर ये फेल हो गये तो हम क्या करें ? तो जैसे ये व्यवहारिक कार्य भी प्रयोग साध्य हैं इसी प्रकार आत्मविकास के मार्ग में चलने की बात भी प्रयोगसाध्य है । अत: स्वाभिमुखसंवेदन के यत्न में स्वमें ज्ञान द्वारा वैसी ही दृष्टि बनायें, वैसे ही पर के विकल्पों से हटकर अपने आपके स्वरूप को उपयोग में लगायें, प्रयोग करें, प्रयोग से प्रभुता के दर्शन होंगे, आनंद की प्राप्ति होगी, दृढ़ निर्णय होगा । करने योग्य काम तो एक मात्र यही है, शेष सब असार काम हैं ।
अंतस्तत्त्व के दर्शन की अंत:उपयोग के प्रयोग के द्वारा साध्यता- भैया ! जब व्यवहार की बातें भी प्रयोग बिना सही नहीं उतरतीं, की नहीं जा सकतीं तो यह अंतस्तत्त्व का ज्ञान यों ही कैसे निश्चय में आयगा ? खूब प्रयोग करके देख लो । न तालाब में तैरने की बात सही, रोज रोज घर में रोटियां बनती हैं, दसों-बीसों वर्षों से आप रोज रोज रोटियां बनती हुई देखते हैं, पर आपसे कहा जाय कि आज जरा आप रोटियां बना दें तो आप बना न पायेंगे । अच्छा यदि कुछ रोटियां बनाने की विधि जानने में कसर हो तो और भी कहीं स्पीच से सुन लो । घंटे भर पहिले से आटे को गूंथकर रखो, फिर रोटियां बनाते समय दुबारा पानी डालकर उसे गीलाकर ऐसा गूंथो कि यदि वह आटा खींचा जाय तो आधारवाली थाली भी उठ आये। उस गुथे हुए आटे की सुडौल लोई बनाकर बेलने से, इस तरह बेलना चाहिये कि बेलना ही उसे सरकाकर गोल गोल बना दे । फिर उसे तवे पर डाल दो । पहिला पत बहुत कम सिकने दो, उसे पलटकर दूसरा पर्त उससे कुछ जरा देर तक सिकने दो । जब उसमें कुछ कड़ापन आ जाय तो आग पर धरकर चीमटे से पकड़ कर घुमाते रहो । जब वह फूलने लगे, और बीच में कहीं छिद्र हो जाय तो उसका मुख चीमटे से बंद कर दो । यों रोटी सिककर तैयार हो जायगी, इस तरह स्पीच भी सुन लो, और रोटियां बनाते हुए देख भी लो, पर हम कहें कि जरा रोटियां बनाकर आप (पुरुष लोग) दिखा दो तो आप दिखा न सकेंगे । अरे वह तो प्रयोगसाध्य बात है । जब 15-20 दिन आप रोटियां बनाना प्रयोग विधि से सीखेंगे तब आप रोटियां बना पायेंगे । क्यों जी, यह बात तो बिल्कुल सही जचती ना । तो जब व्यवहार की बात भी केवल बातों से नहीं मिलती प्रयोगसाध्य है, तब यह अंतस्तत्त्व की बात, इसका आलंबन लेने से किस प्रकार विकास होता है, कैसे आनंद जगता है, कैसा सरल सारभूत तत्त्व है, वह ध्यान साधना के प्रयोग बिना नहीं जाना जा सकता है । ऐसे शिवसाधनमूल, अज व शिव को प्रदान करने वाले इस सहज चैतन्यस्वरूप को मैं भजता हूं ।
निजकार्य- यह मैं, केवल अपने आपके ही सत्त्व के कारण, बिना किसी दूसरे के संबंध के, स्वयं जिस प्रकार रहने वाला हूं, यह मैं अपने उत्कृष्ट कार्य का उत्तम कारण हूं। मेरा कार्य क्या है ? मेरा उत्तम कार्य है वह जो केवल मेरे से बन जाय । यही मेरा कार्य है, मेरा कार्य किसी दूसरे उपादान में तो होता ही नहीं । दो द्रव्य मिलकर मेरे काम को तो करते ही नहीं । जैसे कि चूना और हल्दी ये दोनों मिलकर लाल रंग बना देते हैं । दोनों ही बन गए लाल, इस तरह से और कोई दूसरी चीज मिलकर मेरा कुछ भी कार्य बना दे विकृत कार्य ही सही, ऐसा नियम नहीं होता । मैं ही एक अपना उपादान यह ही मैं केवल अपने को विकृत बनाया करता हूं । तो उपादानतया तो मेरे किसी भी काम का कोई अन्य कारण है ही नहीं । हां विकाररूप कार्य के लिये निमित्त कारण होता है । कर्म रूप निमित्तनैमित्तिक विकार के, औपाधिक भाव के कारण बनते हैं । सो वहां भी जो निमित्त के संबंध से बने, वे यद्यपि होते हैं मुझमें ही, पर वे मेरे कार्य नहीं हैं । मेरा कार्य तो वह है जो अपने आप स्वयं मुझमें हो, अब निर्णय करते जाइये । चिंतन करते जाइये क्रोध जगा तो यह मेरा कार्य नहीं, यह क्रोध प्रकृति के उदय से बाह्य पदार्थों का आश्रय करके जगा, मेरा सहज कार्य वह है जो एक मेरे से ही बनता है । मान, माया, लोभ, विकल्प, विचार तरंग ये भी कुछ मेरे कार्य नहीं है । मेरा कार्य है मेरे गुण का परिपूर्ण विकास जिसे कहते अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत शक्ति, अनंत आनंद रूप विकास । सो ही मेरा कार्य है । हम भगवान की भक्ति में क्यों अधिक रुचि करते हैं ? समय लगाते, उपयोग लगाते, हम वहाँ यह देखना चाह रहे हैं यह तक रहे हैं कि मेरा कार्य क्या होता है । सो उनके स्वरूप से हमें पता पड़ जायगा । अपने सहज कार्य की जिज्ञासा हुई है इस उपासक को, सो तक रहा है, उन्हें निरख रहा है, बाट जोह रहा है ऐसा ही मेरा कार्य होगा, उस निजकार्य का यह मैं चित्स्वरूप सुकारण हूं ।
अंतस्तत्त्व की निजकार्यसुकारणरूपता- यह मैं निज कार्य का कैसा कारण हूं कि जिसमें कोई छेदन भेदन नहीं करना पड़ रहा, जिसमें से कुछ चीज अलग नहीं करनी पड़ रही, कोई चीज बाहर से नहीं लादनी पड़ रही । हां जो कुछ इस प्रकार मैल था, औपाधिक भाव था, पर तत्त्व था वही दूर किया जा रहा है । अन्य कुछ उस कार्य को बनाने के लिए कोई दौड़ा दौड़ी नहीं की जा रही है । जैसे कि किसी ने कारीगर से कहा कि देखो इस पाषाण में इस प्रकार की बाहुबली स्वामी की मूर्ति बनानी है तो वह कारीगर सबसे पहिले क्या करता है ? सबसे पहिले उस मूर्ति को उस पाषाण में अपने ज्ञान से स्थापित कर देगा । अभी पत्थर वैसा का वैसा ही है, लेकिन कारीगर को उस पत्थर में वह मूर्ति ज्ञानबल से दिख गई और तभी वह कारीगर सम्हाल करके पत्थर के टुकड़ों को निकाल रहा है । अटपट कहीं बीच में ही जोर से ठोकर मार दे ऐसा तो वह कारीगर नहीं कर रहा । उसे तो उस पाषाण में दिख गया कि यह है वह बाहुबली की मूर्ति । उसको बचा बचाकर अगल बगल के पत्थरों को कारीगर हटाता है। हटाता क्या ? पहिले स्थूल आवरण को हटाया फिर उसमें सुक्ष्म जो आवरण हैं उन्हें अत्यंत सावधानी से हटाया, पर जो मूर्ति निकली, प्रकट हुई उसमें से न कोई अंश हटाया न कोई अंश बाहर से लाकर लगाया । वह तो ज्यों का त्यों ही है । जो था केवल उसके जो आवरक पत्थर थे उनको हटाया । उस बाहुबली मूर्ति का सुकारण हुआ वही, जो कि प्रकट हुआ है, इसी प्रकार हमारा जो कार्य अनंतज्ञान, दर्शन, शक्ति, आनंद है जैसे कि हम आप अपने पुरखों में खूब टकटकी लगाकर देखते हैं । प्रभु कौन है ? हमारे ही पुरखों में, हमारे ही पूर्व वंशों में वे महापुरूष हुए, निर्वाण को प्राप्त हुए । बहुत समय गुजर गया, गुजरने दो, हुए हमारी ही कुल परंपरा में पहिले । तो अपने पुरखों के स्वरूप में टकटकी लगाकर अपने भावी कार्य को निरखा उस उपासक ने कि मुझे तो यह बनना है । प्रभुस्वरूपदर्शन से अपना परिचय किया और अपने आप में निर्णय किया, यह कार्य मुझमें स्वभाव से विद्यमान है । अंत: अब करता क्या है यह सम्यग्दृष्टि पुरुष, जिसने कि अपने आप में परमात्मस्वरूप का दर्शन किया है । करता यह है कि इसके आवरण करने वाले जो परिणाम हैं, विषय कषाय के जो भाव हैं, परदृष्टि है, जो विकल्प हैं उनको तोड़ता है अलग करता है । उनके अलग करने की उस पद्धति से मूर्ति के आवरण को टांकि से अलग किये जाने की तरह त्रिविध है । पहिले मोटे रूप से हटाने का काम, फिर और सम्हालकर, फिर अत्यंत सम्हालकर, ऐसे तीन करण परिणामों से यह जीव विषय कषाय के आवरणों को हटाता है । वे आवरण पूरे हट जायें तभी यहां यह निजकार्य प्रकट होता है । तो मेरे अनंतचतुष्टय रूप कार्य में सुकारण है यह चैतन्यस्वरूप । अपने कार्य का यह चैतन्यस्वरूप सुकारण है ।
अपना कार्यत्व और कारणत्व-भैया ! चर्चा चल रही है । किसकी ? अपने आप की । पर वह अपने आप क्या है ? यह इस तरह निरखिये कि जैसे कोई दूध में घी को निरखता है । दूध में घी आँखों से नहीं दिखता, हाथ से पकड़कर नहीं निरखता, किंतु अपने ज्ञानबल से दूध में घी का परीक्षण करता है और कह उठता है कि इसमें तो इतना घी है । जैसे कोई स्वर्णमिट्टी में स्वर्ण को निरखता है, जिससे स्वर्ण चांदी निकलती है वह मिट्टी जैसी मिट्टी है, उसे ऊपर से कोई साधारण पुरुष नहीं मान सकता कि इसमें सोना है चांदी है, तांबा है, लोहा है । ये सब धातुएं मिट्टी से तैयार की जाती हैं, उस योग्य मिट्टी होती है । उसे भटि्टयों में गर्म करके, उनके असार भाग दूर करके, फिर दूसरी भट्टी में गर्म करके फिर असार भाग निकाल करके, इस तरह तपाते तपाते मानो 10 मन मिट्टी में एक तोला स्वर्ण निकल सका, कुछ चांदी निकल सकी, तो उस मिट्टी में स्वर्ण कहां है ? पूरी मिट्टी है पर विधि से उससे स्वर्ण निकाला जाता है, ऐसे ही इस ज्ञानी पुरूष को अपने आप के अंतर में वह परमात्मस्वरूप नजर आता है, नजर किया गया ज्ञानबल से । इसके प्रयोग के लिए उपाय यह करना है कि अपने को केवल समझा जाय । जितना अपने को केवल समझा जा सकेगा उतना ही हम इस अंतस्तत्त्व के निकट पहुचेंगे । यह है अपना अनंत चतुष्टयरूप कार्य का कारण । केवल अपने आपको समझने के लिए केवल ही तो निरखना है । शरीर से निराला, बाह्य समस्त संयोगों से निराला जो यह मैं, जो इकला आया, इकला जाऊंगा, एसा निज प्रदेशमात्र और फिर उसमें भी जो विकल्प विचार विकार हो रहे हैं उनसे भी निराला निरखना है ।
निजकार्यविधान- ये विकार तो दर्पण में प्रतिबिंब की तरह हो गए, पर वह प्रतिबिंब दर्पण का काम नहीं, तत्त्व नहीं, स्वभाव नहीं, दर्पण तो स्वच्छतामात्र है, यों समस्त द्वंद्वों को अलग करता हुआ केवल अपने आपको निरखे तो उस केवल की निरख से परमात्मतत्त्व के दर्शन होते हैं । दर्शन भी किस तरह ? अनुभवरूपसे, आँखों से नहीं, किंतु अंत: ज्ञान द्वारा सहज ज्ञानस्वभाव ज्ञान में आ गया, यही अनुभव का रूप है । ज्ञान में जानने की सामर्थ्य तो है ही । भींट, ईंट पत्थर चौकी आदिक को यह ज्ञान जान रहा है । तो जैसे इनको जान रहा है ऐसे ही हम अपने आपके स्वरूप को जानना चाहें तो क्या जान न सकेंगे ? अंतर इतना है कि बाहरी पदार्थों के जानने का साधन तो हैं स्थूलरूप से हमारी बाह्यइंद्रियां, किंतु अपने आपके ज्ञानस्वरूप को जानने का साधन है स्वसंवेदन । भीतर पहिले मन से कार्य हुआ, और, जब अखंड निर्विकल्प स्वरूप के निकट मन पहुंचने को होता है तो वहाँ मन भी अपना कार्य छोड़कर आत्मा को आत्मा के लिए, स्वविश्राम के लिए सौंप देता है । जैसे किसी राजदरबार में राजा से मिलने के लिए कोई पुरुष पहुंचा तो वहां बैठा हुआ पहरेदार उस आगंतुक पुरुष को वहां तक पहुंचा देता है जहां से राजा के दर्शन होते हैं और बता देता है कि देखो वह हैं महाराज । अब पहरेदार वहाँ से निवृत्त हो गया । वह आगंतुक पुरु अब राजा के पास स्वयं जाये और जाकर करे दर्शन वार्ता आदि, तो ऐसे ही इस हमारे मानसिक ज्ञानने यह उपकार किया कि यह मनोरथ इस उपयोग को उस सहज परमात्मतत्त्व के निकट ले गया जहां से दर्शन सुगमता से हो सकते हैं, अनुभव बन सकता है । उसके निकट तक पहुंचाकर उपयोग और स्वभाव दोनों को विश्राम के लिए छोड़ दिया । यह मन निवृत्त हो गया और अब यह उपयोग स्वसम्वेदन से अपने सहज परमात्मतत्त्व का दर्शन अनुभवन करता रहता है । यों यह चित्स्वरूप अपने कार्य का उत्तम कारण है ।
चित्स्वरूप की भवकाननदाहविदाहहरता- यह चित्स्वरूप संसार रूपी जंगल में लगी हुई आग की ज्वलन को हरने वाला है । जैसे किसी जंगल में आग लग जाय तो उस आग को बुझाने का उपाय क्या है ? कुवें से बाल्टी में पानी भर भरकर उस आग को नहीं बुझाया जा सकता । उसका सहज उपाय यह बन सकेगा कि बहुत से जलभरे मेघ आ जायें, आयें और एकदम बरष जायें तो वह जंगल की आग शांत हो सकती है, इसी प्रकार हमारे भव कानन की दाह बहुत तीव्र हो रही है । जन्ममरण के चक्र में पड़े हुए, विषय कषायों की दाह में पड़े हुए हम कैसा जल रहे हैं । हमारी इस जलन को मिटाने के लिए कौन समर्थ है ? ये दुनिया के लोग कुछ जरा प्रीति की बात कह कर हमारी इस दाह ज्वलन को शांत कर देंगे क्या ? नहीं शांत कर सकते । कभी कभी इतनी विकट अग्नि हो जाती है कि छोटा मोटा पानी भी उस अग्नि की ज्वाला को बढ़ाने में कारण बन जाता है । तो ऐसा कौन सा उपाय है कि संसार के जन्म मरण, संयोग वियोग, विषय कषाय आदि की जो जो ज्वलायें उठ रही हैं उनको मेट सके ? क्या कहीं कोई उपाय संसार में है ऐसा ? कोई नहीं । यदि अपने आप में उसका सहज उपाय बने तो वह उपाय काम दे सकेगा । यह रागरूपी आग इस संसारवन को, जीवलोक को जला रहा है । ज्वलन को बुझाने की सामर्थ्य है ज्ञान में । ज्ञानघन का ज्ञानरूप वर्षण हो तो यह राग आग, यह भववन की दाह मिट सकती है । क्या करना है ? हम आपको यह प्रयत्न करना है-हम अपने ज्ञान से इस ही ज्ञान के स्वरूप को समझने का यत्न करें । जानने वाला यह स्वयं है कैसा ? ज्ञान का स्वरूप क्या है ? जानना क्या ? ऐसे ज्ञानपरिणमन को जानकर फिर ज्ञानस्वभाव को जानने में जब लगें तब यह स्थिति बनती है। जानने वाला है ज्ञान, जाना जा रहा है ज्ञान, और जानने का साधन भी है ज्ञान । यों यह ज्ञानस्वभाव, यह सहज परमात्मतत्त्व निजकार्य का सुकारण है, और संसार को, राग की आग को शांत करने के लिए सहज घन ज्ञानजल है ।
हितयोग होने पर भी हितदृष्टि न होने का खेद -देख लिजिये अपना मालिक, अपना रक्षक, अपना सर्वस्व, समस्त दु:खों का हरने वाला, समस्त समृद्धियों का देने वाला प्रभु अपने आप में उपस्थित है, वह अनादि अनंत अंत:प्रकाशमान है, लेकिन उसका शरण न गहें, उसमें कोई भक्ति न करे, उस ओर अपना उपयोग न मोड़ें तो यह स्वयं की भूल है । परंतु, कल्याण का अवसर तो घना मिला है, ऐसा विशिष्ट मनुष्यभव पाया है, ज्ञान प्राप्त किया है अब इस ज्ञान को यदि रहे सहे थोड़े विषय कषायों के काम में ही उपयुक्त कर दिया जाय तब कहना होगा कि जैसे कोई पुरुष चंदन की लकड़ी का प्रयोग बर्तन माजने के लिए राख बनाने में करे, उस जैसी मूढ़ता है । यह मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल, उत्तम जिनवाणी का श्रवण, तत्त्वचिंतन की योग्यता आदि सब कुछ दुर्लभ चीजें पायीं, किंतु बाह्य धन वैभव की तृष्णा में अपने एक इस सहज सुगम कार्य को करना भूल गए ।
त्रिवर्गसाधनका कर्तव्य निभाते हुए उपासकों का आत्महित में मूल कर्तव्य -गृहस्थजनों! इस धन वैभव के अर्जन में तो आप अपना एक ही यह निर्णय बनायें कि गृहस्थ को त्रिवर्ग का साधन करना बताया है कि पुण्यकार्य करें, कुछ धन कमायें और परिजन के पालन पोषण का काम करें तो कर्तव्य हो गया यह कि समय पर दुकान पर ऑफिस में या जो जो भी जिस ढंग का कार्य हो समय पर पुरुषार्थ करें, कुछ वहां यत्न करें और जो आता हो आये । न यह विकल्प कि कम कमाते, न यह विकल्प कि ज्यादह कमाते । या यों कहो कि कमाना हमारे वश का नहीं । जैसा उदय में है, जैसा योग है उसके अनुसार तो कमाई होती ही है । सो अपना एक निर्णय बना लें कि हमें तो बहुत ही सात्त्विक वृत्ति से रहना है । चाहे कितनी ही संपदा आये, पर हमारा खर्च, हमारा रहन सहन तो इस ही सात्त्विक ढंग से रहेगा । आय तो जो भी न्याय नीती से होती है उसमें विभाजन कर लें कि इतना तो हमारे गुजारे के लिए है, इतना परोपकार के लिए है, इतना हमारे मुख्य कार्यों के लिए है, बस आपका कर्तव्य तो निभ गया । इसमें अधिक विकल्प क्यों ? अपना एक ऐसासा निर्णय होना चाहिए कि अपने कल्याण के लिए हमें करना क्या है । अपने आप में अंत:प्रकाशमान इस सहज चैतन्यस्वरूप का बार बार अवलोकन करना है । कुछ विपत्ति आये तो झट इस ही स्वरूप के निकट पहुंचना, यही एकमात्र कार्य है जीवन में । इसके अवलंबन से इस पद्धति से हम निकट भविष्य में संसार के समस्त संकटों से छुटकारा पा सकते हैं । सो यह मैं इस शिवस्वरूप सहज चैतन्यस्वरूप को प्रकृष्टरूप से सेवता हूं, भजता हूं, उपासना करता हूं, ऐसे संकल्प के साथ यहां लगना इसमें ही भलाई है ।