वर्णीजी-प्रवचन:चितसंस्तवन - श्लोक 5
From जैनकोष
स्वचतुष्टयमूलमभिन्नगुणम् , मतिदर्शनशक्ति सुशर्ममयम् ।
अचलं शिवशंकरदृष्टिपथम्, प्रभजामि शिवं चिदिदं सहजम् ॥5॥
उपासक का उपास्यतत्त्व- यह मैं ही उपासक और मैं ही उपास्य । जिसकी दृष्टि करना है, पूजा करना है, उपासना करना है वह भी मैं हूं और जो उपासना करेगा वह भी मैं हूं । इस अहं प्रत्ययवेद्य आत्मपदार्थ के भेददृष्टि से उपास्य और उपासक के भेद किए गए हैं । अभेद दृष्टि से तो बस है यह और परिणमता है । जब स्वभावास्पर्शन रूप परिणमन बनता है तो उसी को भेद दृष्टि से उपासक और उपास्य के रूप में रखा जाता है । तो ऐसा उपास्य मैं सहज परमात्मतत्त्व स्वचतुष्टय का मूल हूं, आधार हूं । भेददृष्टि जितनी की जाती है उसका आधार कोई एक अखंड पदार्थ है ना, याने किसको निरखकर किसका विकल्प बनाकर यह भेद और गुण पर्यायों का विस्तार किया गया है ? वह है यही सहज चैतन्यस्वरूप । इसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पहिचाना जाता है । प्रत्येक पदार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जाना जाता है । और, इसी कारण सभी दार्शनिकों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का उपयोग किया है । उन्होंने अनेकों ने यद्यपि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव शब्दों के मर्म को नहीं जाना और न इस शब्द पद्धति का उपयोग किया, लेकिन चारा ही नहीं है कुछ अन्य कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के विषय को छोड़कर कोई कुछ जान सके ।
वस्तुविज्ञान का माध्यम- वस्तु विज्ञान का माध्यम ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव है । जो लोग भी कुछ बात करेंगे, ज्ञान करेंगे, परिचय करेंगे वे सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का आश्रय करके ही करेंगे । चाहे इस पद्धति को न मानें पर उपयोग तो करेंगे ही । जैसे कि आत्मा को न मानने वाले नास्तिक लोग भी तो कुछ समझ कर ही तो आत्मा की मनाई करते हैं कि समझ बिना करते हैं ? तो आत्मा के ज्ञान का कुछ बल लिये बिना नास्तिक भी आत्मा का निषेध नहीं कर सकते । सो देखो नास्तिक लोग भी आत्मा नहीं मानते और आत्मगुण का उपयोग कर रहे हैं । मना करने में भी तो ज्ञान चाहिए और उस ज्ञान से कुछ समझा है तभी तो कोई निषेध कर सकेगा । तो आत्मा के अभिन्न गुण ज्ञान का उपयोग करके भी नास्तिक उसके आधार को नहीं मानता परंतु उपयोग तो उसका किया ही । इसी तरह सभी दार्शनिक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का माध्यम लेकर ही ज्ञान में आ सके । वस्तुविज्ञान का अन्य कुछ उपाय ही नहीं है । चाहे, इस चतुष्टय के रूप से वे आलंबन लेना नहीं समझें मगर जितना भी ज्ञानविकास है उसका आधार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के रूप से परिचय होना है । हम इंद्रिय से जो कुछ भी भौतिक पदार्थ जानते हैं सो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की विधि से ही जानते हैं । उसका पिंडरूप समझा, उसका आकार समझा, उसकी परिणति समझी और उसका भाव गुण अथवा परिणतियों के अर्ंतगत डिग्रियों को समझा । तो ये चार प्रकार के समझ हमको बराबर चल रहें हैं तब हम किसी पदार्थ कों जान पाते हैं । समझ तो समझ ही है । सभी जीव इस ही पद्धति से समझा करते हैं ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके आधार में वैषम्य होने पर ज्ञान की अयर्थाथता- स्वचतुष्टय के आधार से निष्पन्न हो सकने वाले सिद्धांत की रचना में दार्शनिक विद्वान उतरे हैं और जब कभी वहां कुछ भी गलत बात भई है तो वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में से किसी को छोड़ने के कारण हुई है । जैसे क्षणिकवादियों ने क्षण-क्षण में नवीन नवीन आत्मा माना है । उनके मंतव्य में आत्मा कालमात्र की मुख्यता से है । पिंड दृष्टि को छोड़ा, आकार को भी छोड़ा, परमार्थ भावदृष्टि को भी छोड़ा, काल दृष्टि की मुख्यता कर ली । एक समय में जो कुछ है बस वही पूरा पदार्थ है । अगले समय में जो कुछ है वह पूरा नया पदार्थ है । इस तरह कालदृष्टि की मुख्यता करके क्षणिकवाद बना । तो जैसे कालदृष्टि की प्रधानता में अन्य दृष्टियों की चर्चा भी न करके क्षणिकवाद बना तो ऐसे ही कालदृष्टि को न मान करके भावदृष्टि, द्रव्यदृष्टि, क्षेत्रदृष्टि की प्रधानता करके जो आत्मा के संबंध में जाना गया, अथवा समस्त विश्व के संबंध में जाना गया वह ब्रह्मवाद एक कालदृष्टि को छोड़ देने का परिणाम है । कोई भी दार्शनिक यदि चार दृष्टियों में से किसी को छोड़े नहीं और वर्णन करने लगे तो ज्ञान तो ज्ञान ही है, वह सब वर्णन यथार्थ होगा ।
ज्ञान की विशुद्ध दिशा की प्राप्ति का प्रताप- भैया ! ज्ञान की एक विशुद्ध दिशा मिलने भर की देर है । जिसने ज्ञान का संचय किया है, विद्वत्ता प्राप्त की है, उसको सब कुछ सर्वदृष्टि से परख लेने में विलंब नहीं लगता । जिसका घोड़ा कुमार्ग में जा रहा है और है भी ऊधमी बिगड़ा उद्दंड घोड़ा, तो भले ही कुमार्गग में जा रहा है लेकिन सवार तनिक भी बल सम्हाले तो उसे सुमार्ग में चला तो सकता है, लेकिन बच्चों का घोड़ा, जो एक लाठी ले लिया और दोनों टांगों के बीच में डाल लिया और टिक-टिक करने लगे, तो जिसमें गमन की शक्ति ही नहीं है उसे क्या कुमार्ग से बचाकर सुमार्ग में लाया जा सकेगा ? भले ही एकांत दृष्टि करके दार्शनिकों का ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के संतुलन बिना कुछ एकांतरूप बनवाया हो, किंतु जैसे ही कुंजी मिलेगी, स्वचतुष्टय का आधार जच जायगा वही सारा ज्ञान उसका सम्यक बन जायगा । जैसे कोई कंजूस धनिक है तो उसका धन किसी काम नहीं आ रहा, किसी के उपकार में नहीं लग रहा, पर धन तो है, किसी दिन बुद्धि स्वच्छ हो जायगी, धन की असारता विदित हो जायगी तो वह उपकार में भी लगा सकेगा, जिसके पास कुछ भी नहीं है वह क्या करेगा ? एक प्रासंगिक कोण में दृष्टांत लेना है । जिसका ज्ञान विशाल है पर उसका सही उपयोग नहीं बन रहा, एकांत मिथ्यारूप बन रहा, सो वर्तमान में उसका उपयोग नहीं बन रहा, ठीक है, परंतु किसी क्षण उसको सत्य प्रकाश जगे तो वह सब ज्ञान सही उपयोग में आ जायगा ।
ज्ञान की यर्थाथ पद्धति उपलब्ध होने पर संचित ज्ञान में समीचनता की ख्याति- कितने ही विद्वान ऐसे इतिहास में हुए हैं कि अपने किसी कौलिक दृष्टिकोण से ही उन्होंने अपने को नापा और वे सही मार्ग में न चल सके, किंतु कुछ कारण पाकर जैसे ही उनका ज्ञान निर्मल हुआ कि सही दिशा में आ गये । एक पात्र केसरी थे, जिनका दूसरा नाम विद्यानंदी था, जो अबसे सैकड़ों वर्ष पहिले हो गए हैं, उनका उदाहरण एक बहुत जागृत उदाहरण है । वे बड़े उद्भट विद्वान थे, वेद वेदांत के अनेक शास्त्रों के विद्वान थे, पर वे एक पक्ष वाले थे । अपने कुल से जिन बातों को सीखा उसकी ही हठ रखते थे, इसके परिणाम स्वरूप जैन धर्म से अधिक विद्वेष था । वे रोज दरबार को जाते थे । बीच में एक जैन मंदिर पड़ता था तो उसकी ओर पीठ करके तिरछे चला करते थे । बहुत समय बाद एकदम ही चित्त में यह आया कि जिससे हम पीठ फेर कर चला करते हैं देखें तो सही कि क्या है वहां । देख तो लें, देखने में क्या बुरा है, मानें चाहे न मानें, वहां अपना सर झुकायें या न झुकायें यह तो अपने हाथ की बात है । तो मंदिर में गए । वहां क्या देखा कि एक मुनिराज आप्तमीमांसा स्तोत्र पढ़ रहे थे। ज्ञान पूरा तो था ही । सो वह स्तोत्र उन्हें बड़ा भला लगा और उसमें उन्हें कुछ सत्य का दर्शन भी होने लगा । तो मुनिराज से कहा कि महाराज इसका अर्थ बता दीजिए । तो मुनि बोले कि मैं विशेष विद्वान नहीं हूं, मैं इसका अर्थ नहीं कह सकूंगा, मैं तो साधारण हूं । एक आत्मसाधना के लिए मैं इस त्यागमार्ग में उतर आया हूं । अब कुछ गुरु की ओर से भी शल्य निकली, गुरुश्रद्धा बढ़ी, अहो कैसे साधक सरल साधु महाराज हैं । तो बोले- महाराज एक बार पाठ मात्र सुना दीजिए । मुनिराज ने पुन: पाठ पढ़ा और वे बड़े चाव से आदेय बुद्धि से सुनते रहे । सुनते ही उनका सब ज्ञान समीचीन बन गया। एक स्याद्वाद शैली की कुंजी भर मिली, वह आप्तमीमांसा स्तोत्र ही ऐसा है कि जहां स्याद्वाद कुंजी का प्रत्येक घटना में प्रयोग किया गया है । बस क्या था ? रात्रि व्यतीत हुई। दूसरे दिन सभा में पहुंचे तो और दिन तो दूसरे ढंग का व्याख्यान किया करते थे पर उस दिन बहुत ही ओज भरा स्याद्वाद शैली से चला हुआ व्याख्यान था । स्याद्वाद शैली की झलक आप परख सकते हैं । शब्द मात्र से जाना जाता है कि यह व्याख्यान, यह प्रवचन, यह कथन स्याद्वाद शैली के अर्ंतगत है और यह स्याद्वाद शैली के अर्ंतगत नहीं है । बोल सुनते ही समझ जायेंगे और किसी के भाषण की रफ्तार, ढंग, विधि ही आरोहण अवरोहण मात्र सुनकर समझ जायेंगे कि यह स्याद्वाद शैली का वचन है । तो वह आप्तमीमांसा स्तोत्र स्याद्वाद शैली से भरपूर था । जब स्याद्वाद शैली से व्याख्यान होने लगा तो लोग आश्चर्यभरी दृष्टि से देखने लगे और सभी लोग सोचने लगे ओह ! आज इनको क्या हो गया जो इस तरह से बोल रहे हैं । तो पात्र केसरी महाराज ने स्पष्ट कहा कि सत्य यही है और किसी को इस विषय में हमसे बात करना हो तो कर लो । आखिर वे पात्र केसरी महाराज फिर गृहस्थी मे न रहे, चल दिये जंगल, साधु हुए और साथ ही 500 उनके शिष्य थे, वे भी निर्ग्रंथ साधु हो गए । तो जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, इस चतुष्टय का आधार लेना समझ में आ जाता है तब उसका ज्ञान बहुत विधि से और सही ढंग से ठीक रूप में हो जाता है ।
पदार्थ की स्वचतुष्टयमूलता-यह चित्स्वरूप स्वचतुष्टय का मूल है, स्वचतुष्टय से परिचय किया तो उसका यह विषय ही आधार है । यह सहज चित्स्वरूप अभिन्न गुण है, इसको समझने के लिए शक्तिभेद किया जाता है, लेकिन वह केवल समझने के लिए भेद है । वहां यथार्थतया भेद नहीं है, अभिन्न गुणवाला है । एक समझ में भेद आना और एक वस्तुगत भेद होना इन दोनों में तो बड़ा अंतर है । जिन लोगों ने समझा कि भेद के आधार पर वस्तु में भेद किया वे ही विशेषवादी कहने लगे और स्वरूप का, लक्षण का भेद देखकर स्वतंत्र- स्वतंत्र पदार्थ मान लिए गए । परिणाम यह निकलता है कि पदार्थों के प्रकार और संख्या बनाने में ऐसी अटपट वृत्ति बनी कि कुछ पदार्थ छूट जायें, कुछ पदार्थ हैं ही नहीं और ग्रहण में आ जायें, उस विशेषवाद में यह बात है कि द्रव्य स्वतंत्र पदार्थ है, गुण स्वतंत्र पदार्थ है, कर्म परिणति, क्रिया, पर्याय स्वतंत्र पदार्थ हैं, और ऐसे बिखरे हैं कि और की तो बात जाने दो, वे पदार्थ सत् भी होते हैं तो सत्ता के संबंध से होते हैं । याने स्वयं उनमें सत्ता भी नहीं है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये 9 तो द्रव्य हैं । इन 9 के 9 में ही सत्ता का संबंध बना है तब ये सत् कहलाते हैं । तो समझो कि कुछ भी भेद के कारण सर्वथा भेद मान लेने की बात को ही विशेषवाद कहते हैं । पृथ्वी है देखो, पृथ्वी में अस्तित्व भी पाया जाता । लो इतनी ही बात कहने में अस्तित्व जुदा पृथ्वी जुदा । अस्तित्व का स्वरूप और है, पृथ्वी का स्वरूप और है । तो कहने-कहने के भेद के आधार पर एकदम भिन्न पदार्थ मान लेने की बात विशेषवाद में आयी । पदार्थ में परिणमन भी होता है, पदार्थ में अवस्था भी पायी जाती है । लो इतने कथन का भेद बना कि पर्याय जुदा पदार्थ हो गया और द्रव्य जुदा पदार्थ हो गया । अब कभी यह प्रश्न हो बैठे की पर्याय बिना द्रव्य कैसा और द्रव्य बिना पर्याय का क्या स्वरूप ? तो उत्तर यह मिलता है कि ये कभी अलग नहीं हुए न होंगे, मगर हैं भिन्न-भिन्न चीज और इनका समवाय समबंध है । लो गुण को, द्रव्य को तादात्म्य ढंग से भी माना जा रहा है और तादात्म्य माना नहीं है तो समझ में कुछ भेद आने से उनमें अत्यंत भेद कर डालना यह है विशेषवाद की पद्धति । तो समझ में ही तो भेद है, पर वस्तु में तो भेद नहीं बन गया । इस बात को दृष्टि में रखे और समझ में कुछ भी भेद जचे तो उन्हें बिल्कुल भिन्न–भिन्न घोषित कर दें, यह विशेषवाद की पद्धति है और इस पद्धति में वैशेषिकजन गुण को जुदा मानते हैं, द्रव्य को जुदा मानते हैं । गुण भी पदार्थ हैं, द्रव्य भी पदार्थ है, किंतु वास्तविकता यह है कि पदार्थ, द्रव्य वाच्य सद्भूत जो कुछ भी है वह है, अखंड है, उसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । गुण, क्रिया, परिणति, पर्याय ये सब उस ही एक वस्तु की खासियत को बतलाते हैं ।
अखंड वस्तु में प्रतिबोध के लिए गुणत्व अर्थात् भेद- आत्मा में ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति आदिक अनंत गुण हैं, तो ये अनंत गुण क्या आत्मा से भिन्न हैं ? क्या ये गुण आत्मा में भरे गए जिससे यह आत्मा गुणवान कहलाया ? नहीं । चीज ही कुछ अलग-अलग नहीं है । आत्मा है पदार्थ । वह जो है सो है, एक झलक में जान लिया । अब किसी को समझाना है तो क्या कहकर समझाया जाय । भेद ही तो किया जा सकेगा समझाने के लिए, तब समझा जायगा । जैसे कोई कहे कि आम का हरा रूप है तो क्या ऐसी बात रखी कि आम अलग है हरा रंग अलग है ? और फिर हरे रूप का आम से संबंध जुटाया गया तब यह आम हरा कहलाया ? आम अपने आप प्रदेश में, अपने ही परिणमन से हरे रूप में है । रूप जो शक्ति है वह तो परिणमन नहीं, पर हरा, काला, नीला आदिक जो व्यक्त रूप हैं वे सब परिणमन कहलाते हैं । तो वस्तु अखंड है और 6 जातियों में विभक्त है । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जबकि विशेषवाद ने भी पदार्थ 6 बतलाये हैं पर कहते यों हैं कि द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय । समझ की भिन्नता से और समझ से बहुत अधिक बाहर जाने की अशक्यता से कैसे व्यवस्था बनायी कि द्रव्य, गुण, कर्म इनमें तो सत्ता का संबंध होता है तब ये सत् कहलाते हैं । लेकिन सामान्य विशेष समवाय इनमें सत्ता का संबंध नहीं होता । ये स्वयं सत् स्वरूप हैं । अब परख लीजिए कि क्या व्यवस्था रही । द्रव्य, गुण, कर्म में यह सत् है इस रूप से व्यवहार चलता है, पर सामान्य, विशेष, समवाय ये कोई पिंडात्मक नहीं है, एक भावमात्र है अथवा एक कल्पनारूप में है, ऐसी प्रतीति सी होती है तो उसमें सत्ता का संबंध नहीं बताया । वह स्वयं है जो है सो तो अब समझ लीजिये कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव इस चतुष्टय का सही आधार न रखने से क्या परिस्थिति बन जाती है ?
आत्मा की अभिन्नगुणता- यह सहज चैतन्यस्वरूप अपने चतुष्टय का मूल आधार है, इसमें ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का परिचय है, अथवा कहो कि स्वचतुष्टय ही मूल जिसका है ऐसा यह चित्स्वरूप है तथा अभिन्न गुण वाला है । आत्मा है और उसकी खासियत बताने चले तो जो बताया उसका नाम गुण है । सो सर्वगुण आधारभूत आत्मतत्त्व से अभिन्न रहता है । मैं ज्ञानमय हूं । मुझमें ज्ञान है, यह केवल समझने के लिए कहा जा रहा है । यह मैं कोई अलग चीज होऊं, ज्ञान अलग चीज हो और मुझमें ज्ञान फिर बसाया जाय यह बात नहीं है । यह ज्ञानस्वरूप को ही लिए हुए आत्मतत्त्व अनादि अनंत है, ऐसा शुद्ध सहज चित्स्वरूप मैं आत्मतत्त्व हूं । मतलब यह है कि मैं अपना आत्मतत्त्व जो निरूपण कर रहा हूं, निरूपण कहते हैं भली प्रकार से देखने को, निरिक्षण कर रहा हूं, वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भवात्मक है और मेरी ज्ञान, दर्शन, चारित्र, श्रद्धान, आनंद, अमूर्तत्व आदिक ये सब शक्तियां, ये सब गुण इस आत्मा से अभिन्न हैं अर्थात् आत्मा ही उस उस प्रकार का है जिस कारण से हम उन प्रकारों को गुण के कथन के रूप से समझते हैं । ऐसा यह मैं आत्मा स्वचतुष्टय स्वरूप हूं और अभिन्न गुण वाला हूं ।
आत्मतत्त्व की सहजज्ञानस्वरूपता- यह चैतन्यस्वरूप ज्ञान दर्शन आनंद एवं शक्तिमय है, इसका परिणमन जाननरूप हो रहा है । सो सबको विदित ही है । यह आत्मा स्व और पर को जानता है । पर को जान रहा है यह तो लोगों की दृष्टि में बड़ी दृढ़ता से समझ में आ रहा है, किंतु पर का जानना स्व के जानने के बिना बन ही नहीं सकता । चाहे अज्ञानी जीव हो चाहे ज्ञानी जीव हो पर पदार्थ का जानना स्व के जानन बगैर हो ही नहीं सकता । अज्ञानी जीव भी स्व और पर दोनों को जानता है ज्ञानी जीव भी स्व और पर दोनों को जानता है, किंतु अंतर यह हो जाता है कि अज्ञानी स्व को जानता हुआ अपने ज्ञान में विश्वास में यह नहीं ला पाता कि मैने स्व को जाना । ज्ञानी जीव स्व को जानकर स्व को स्वरूप से अनुभव कर लेता है और जान लेता है । जैसे दर्पण में हाथ का प्रतिबिंब पड़ा तो स्वच्छता होने से ही पड़ा । तो वह दर्पण स्वच्छता का भी परिणमन कर रहा और प्रतिबिंब का भी परिणमन कर रहा । स्वच्छता की बात हुए बिना प्रतिबिंब आ ही नहीं सकता, लेकिन दर्पण अचेतन है वह अपनी स्वच्छता को स्वच्छतारूप से अनुभव नहीं कर सकता । अज्ञानी के भी जो बाह्य पदार्थों का आकार ज्ञान में आ रहा है सो वह आकार ग्रहण अपने आपके प्रतिभास बिना नहीं हो सकता । लेकिन अपने आपके इस परिचय में यह अज्ञानी अचेतन है, जड़ बन गया है इसलिये वह अनुभव नहीं कर सकता कि मैं अपने आपको जानता हूं । तो जानना जीव का परिणमन है और यह परिणमन जानने की शक्ति को सिद्ध करता है । जैसे कोई पुरुष एक मन बोझ उठाता है तो उसे देखकर उसकी शक्ति का हम अनुमान करते हैं कि इसमें इतनी शक्ति है । तो जो व्यक्त दशा होती है उससे शक्ति का अनुमान किया जाता है, ऐसे ही आत्मा में जो जानने की व्यक्त दशा हो रही है उससे ज्ञान शक्ति का अनुमान किया जाता है । इसमें सहज ज्ञान शक्ति है । दृष्टांत में जो पुरुष शक्ति और भारवहन को बताया गया है उसमें तो इतना अंतर है कि शक्ति निमित्त हुई और भारवहन का काम किया । किंतु दार्ष्टान्व में शक्ति का ही परिणमन है व्यक्तरूप जानना । शक्ति का निमित्त हो और जानना अलग चीज हो ऐसा आत्मा में नहीं है । जो ज्ञान शक्ति है आत्मा में उस ज्ञान का शक्ति का ही व्यक्त परिणमन यह नाना विधि जानकारी में आ रहा है । यह आत्मा सहज ज्ञानस्वरूप है ।
ज्ञानी के सर्वत्र ज्ञायकस्वरूप के दर्शन की पात्रता- हम आप सब संसारी जीवों का भी वैसा ही स्वरूप है जैसा कि परमात्मा में सहज ज्ञानस्वरूप पाया जा रहा है । सहज ज्ञानस्वरूप का उपादान कारण करके व्यक्त हुआ जो शुद्ध केवल ज्ञानरूप परिणमन है वह सुगमतया ज्ञानशक्ति का परिचय कराने का कारण बना । यहां मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान आदिकरूप परिणमन भी सहज ज्ञानशक्ति के परिचय का कारण बनता है, पर पर्याय स्वभाव के अनुरूप न होने से स्वभाव के परिचय में कुछ कठिनाई आती है । किंतु दृढ़ अभ्यासी ज्ञानी संत को उसमें कोई कठिनाई नहीं है । जैसे परमात्मा के स्वरूप को निरखकर परमात्मा के सहज स्वरूप का परिचय कर लेता है ज्ञानी, ऐसे ही निगोद पशु पक्षी आदिक अनेक जीव दशा को निरखकर भी आत्मा के सहज स्वरूप का परिचय कर लेता है ज्ञानी । मैं सहज ज्ञानस्वरूप हूं, ऐसा कहने में जो हमारी ये जानकारियां हो रही हैं, भींट, पत्थर, लकड़ी आदिक का जो जानन चल रहा है उस जानन की बात नहीं कह जा रही है । यह जानन परिणमन मैं नहीं हूं, क्योंकि इतना ही यही मेरा स्वरूप नहीं है, किंतु सब प्रकार की जानकारियां जिस स्वभाव को उपादानकारण रूप से कारण बनाकर प्रकट हुआ करती हैं उस शुद्ध उपादान कारण की बात कही जा रही है कि मैं सहज ज्ञानस्वरूप हूं ।
आत्मतत्त्व की दर्शनस्वरूपता- यह चित्स्वरूप दर्शन स्वरूप है । दर्शन गुण सामान्यप्रतिभास की शक्ति को कहते हैं । सामान्य प्रतिभास जहां नहीं है वहां विशेष प्रतिभास नहीं हो सकता । जिस वस्तु में निजी स्वच्छता नहीं है उस वस्तु में बाह्य पदार्थ का प्रतिबिंब भी नहीं पड़ सकता । तो बाह्य प्रतिबिंब पड़ना यह है विशेष प्रतिभास की बात और जिस माध्यम पर, जिस आधार पर विशेष प्रतिभास बन सका वह है सामान्य प्रतिभास । हम आप लोगों को सामान्य प्रतिभासपूर्वक विशेष प्रतिभास होता है । अथवा यों कहो कि दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है, किंतु जो अनंत शक्तिमय है ऐसे परमात्मा को एक साथ ही दर्शन और ज्ञान हुआ करता है । एक दृष्टि से देखा जाय तो दर्शन कारण है ज्ञान कार्य है ।
सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानवत् दर्शन ज्ञान में भी कारणकार्यत्व का एक दृष्टि में दर्शन- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान में तो स्पष्ट जानते हैं लोग कि सम्यग्दर्शन कारण है और ज्ञान कार्य है । यद्यपि ये दो गुण निराले हैं । सम्यग्ज्ञान ज्ञान गुण का परिणमन है । सम्यग्दर्शन श्रद्धा गुण का परिणमन है फिर भी इसमें कारण कार्य का विधान माना गया है और कारण कार्य हाने पर भी यहां सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान दोनों एक साथ हैं । कारण कार्य कहीं पहिले कारण होता है बाद के समय में कार्य होता है और कुछ कारण कार्य ऐसे हैं कि उनमें पूर्वापर समय की बात नहीं, किंतु एक साथ ही कारण और कार्य हुए हैं । जैसे दीपक, दीपक का उजाला और प्रकाश का होना ये दोनों एक साथ हुए, दीपक कारण है प्रकाश कार्य है, वहां कोई यह कल्पना न हो सकेगी कि प्रकाश कारण है और दीपक कार्य है । एक साथ होने पर भी दीपक कारण है प्रकाश कार्य है, ऐसे ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान एक साथ होने पर भी सम्यग्दर्शन कारण है सम्यग्ज्ञान कार्य है ।
ज्ञानविलास की दर्शनविलासकारणकता- अब दर्शन और ज्ञान गुण पर आइये । यद्यपि दोनों गुण के ये दोनों परिणमन स्वतंत्र हैं । एक दूसरे का स्वरूप लिए हुए नहीं है और ऐसी बात तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में भी है । दोनों का स्वरूप निराला है और गुण भी दोनों के न्यारे हैं फिर भी हो तो गए एक साथ । तो यहां भी दर्शन गुण दर्शनगुण का परिणमन ज्ञान गुण ज्ञानगुण का परिणमन ये दोनों भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले हैं लेकिन बुद्धि गवाह देती है कि जब दर्शन होता है, सामान्य प्रतिभास होता है तो एक कारणरूप करके विशेष प्रतिभास की बात उत्पन्न होती है । यहां यह कल्पना नहीं कर सकते कि विशेष प्रतिभास कारण है सामान्य प्रतिभास कार्य है, ऐसा स्वयं का अनुभव गवाह नहीं देता । तो अब देखिये छद्मस्थ जीवों के दर्शन पहिले होता है ज्ञान बाद में होता है तो अल्पज्ञ पुरुषों का ज्ञान दर्शनकारणक हुआ । वह दर्शन क्या है ? एक सामान्य प्रतिभास । एक पदार्थ का ज्ञान छोड़कर दूसरे पदार्थ का ज्ञान करने चले तो पहिले का ज्ञान तो अब रहा नहीं, अब नया ज्ञान उत्पन्न किया जायगा तो नया ज्ञान उत्पन्न होने के लिए आत्मा में सामान्य प्रतिभास हुआ। और उस सामान्य प्रतिभास का बल कारण करके विशेष प्रतिभास हुआ, किंतु परमात्मा में सामान्य प्रतिभास और विशेष प्रतिभास दोनों एक साथ हैं वहां भी दीपक और प्रकाश की भांति सामान्य प्रतिभास कारण होकर विशेष प्रतिभास निरंतर परिणमता रहता है। यह सब गुणों का पारस्परिक सहयोग है ।
ज्ञान और आनंदवत् दर्शन ज्ञानमें कारणत्व व कार्यत्व का एक दृष्टि में दर्शन- स्वरूप न्यारा होकर भी किसी गुण के अन्य गुण में कारणरूपता बन जाती है । जैसे ज्ञान और आनंद गुण दोनों निराले हैं, उनका अपना-अपना स्वरूप जुदा-जुदा है । ज्ञान का काम जानन है, आनंद का काम आल्हाद है, लेकिन वहां कारण कार्य विधान ढूंढा जायगा तो यह समझ में आयगा कि ज्ञान परिणमन तो कारण है और आनंद परिणमन कार्य है । ज्ञान स्वच्छ हुआ अतएव आनंद जगा, आनंद जगा तो विशेषतया इसलिए ज्ञान बढ़ा, ज्ञान बना। यद्यपि ऐसा भी होता है कि ज्यों-ज्यों आत्मा का विशुद्ध आनंद वृद्धिंगत होता है, ज्ञानावरण का विनाश होता है और ज्ञान वृद्धिंगत होता है, फिर भी तात्कालिक कारण कार्य संबंध को निरखते हुए यही कहा जायगा कि ज्ञान परिणमन कारण है और आनंद परिणमन कार्य है । दोनों एक साथ हो रहे हैं दीपक और प्रकाश की भांति फिर भी बुद्धि और अनुभव ऐसा समझने को विवश करता है कि ज्ञान कारण है और आनंद कार्य है । और, इन सब परिणमनों के लिए आत्मा की शक्ति मुख्य आधारभूत है । तो सबका मूल शक्ति है और उसके विकास में ये सब परिणमन हुए हैं । तो यह चित्स्वरूप ज्ञान दर्शन शक्ति और आनंदमय स्वरूप वाला है ।
चित्स्वरूप की अचलता- यहचित्स्वरूप अचल है । समस्त पदार्थों का स्वरूप अचल हुआ करता है । पदार्थ का अस्तित्व भी स्वरूप पर निर्भर है अथवा स्वरूप है, इसलिए स्वरूप के चलायमान होने की तो कदाचित् भी आशंका नहीं है । चेतन चैतन्यस्वभावमय ही होता है अथवा स्वभावमात्रहोता है । पदार्थ का जो सहज भवन है तन्मात्र ही वह पदार्थ है । मेरा जो सहज भवन है तन्मात्र ही मैं हूं । तो चैतन्यस्वभावमात्र हुआ । जब पदार्थ स्वभावमात्र है मैं आत्मा चैतन्यस्वभावमात्र हूं तो न मेरा अस्तित्त्व कभी मिटता है और न कभी स्वभाव में चलितपना आता है । मेरा स्वरूप अचल है मैं अचल हूं । जिस रूप से हूं, उस रूप से कभी मैं चलायमान नहीं होता । यद्यपि ये चेतन निगोद पेड़ पौधे आदिक हीन हीन दशाओं में भी गए और जहां इतना आवरण बढ़ा कि मुश्किल से यह समझ में आ पाता है कि इन निगोद पेड़ आदिक में भी ज्ञान विलास बना हुआ है, तो सर्वदशाओं में आत्मा का ज्ञान विकास बना रहना ज्ञान बना रहना, भीतर में ज्ञान शक्ति बनी रहना, यह बराबर अनादि अनंत शाश्वत भावरूप है । तो जो मेरा स्वभाव है, चैतन्यस्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है वह अचल है, तभी हम मुक्तिपथ में लग सकते हैं । अन्यथा हम तो मुक्तिपथ में लगें और स्वरूप हो गया हो पहिले से चलायमान तो अब किसकी मुक्ति कराना है ? मेरा चैतन्यस्वरूप तो रहा नहीं, अब उद्यम किस चीज का । अत: सिद्ध है कि किसी भी पदार्थ का स्वरूप कभी भी चलित नहीं होता । पदार्थ अचल है, स्वरूप अचल है यह चैतन्यस्वरूप भी अचल है ।
आत्मतत्त्व की शिवरूपता- यह आत्मा शिवस्वरूप है, सुख का देने वाला है । ऐसा शिवस्वरूप शंकरस्वरूप अंतस्तत्त्व दृष्टि में आये तो वहां व्यक्त शिवमयता है । शिव कहते हैं कल्याण को । कल्याणस्वरूप है यह चैतन्यस्वभाव । इसमें समस्त आनंद ही आनंद भरे पड़े हैं । जीवों ने व्यर्थ ही पर पदार्थों में ममता बुद्धि की इस कारण दुख भोगना पड़ा । पर इनका कुछ है ही नहीं । ऐसा न समझकर ये जीव पर को अपनाते हैं और दु:खी होते हैं । दु:खी होने का कारण परदृष्टि है । हम आप सब एक ही किस्म के उपायों से दु:खी हो रहे हैं और एक ही किस्म के उपाय से ये सब दु:ख मिटेंगे । दु:ख हो रहा है परदृष्टि से । धनी हो उसे भी जो दु:ख है वह परदृष्टि से है । कोई गरीब है कुछ भी साधन नहीं है उसके पास फिर भी वह दु:खी जो हो रहा है सो परदृष्टि से । परपदार्थों को अपनाने के भाव से पर से सुख होता है इस प्रकार के विकल्प के कारण पर का संग्रह बनाने के लिए जो वितर्क विचार उठते हैं वे ही दु:ख के कारण हैं । बड़ा कठिन पड़ रहा है पर का संकोच छोड़ना, पर की लाज छोड़ना, पर का लगाव छोड़ना । है यद्यपि यह कठिन, किंतु जिसका होनहार पवित्र है उसके लिए यह बात बड़ी सुगम लग रही है ।
आत्माओं में समानता- मोही जन इस प्रसंग को सुनकर कल्पना यह कर सकेंगे कि लो यह तो आ गया अपने स्वरूप में, अपने उपयोग में लेकिन इसके घर वालों का कैसे गुजारा चलेगा और लोगों के द्वारा वाहवाही प्राप्त करने का इसको अब क्या आराम मिल रहा है । किंतु यह विवेक न बनावेंगे कि वाहवाही, पर का प्रसंग, पर की दृष्टि, पर का संचय संग्रह अनुग्रह ये सब इस पर आपत्तियां हैं । कोई शांति की बात नहीं है । जैसे लोग कहते हैं कि कोई गरीब हो तो क्या, धनी हो तो क्या गरीब से धनी ने अपने में विशेषता ला ही क्या दी? कोई कहे कि धनिक तो लोक में यश पा रहा है, मौज ले रहा है, गरीब को यश का, मौज का मौका नहीं मिल पाता । वह धनिक अपने आप में ही अपने मद से मस्त होकर विकल्प बनाता है, लोगों से उसे क्या मिलता है ? लोग अपना विकल्प बनाते हैं, ऐसे ही गरीबों को लोगों से क्या मिलता है ? जैसे कह देते हैं कोई कि गरीब घर में लड़की ब्याही हो या धनिक के घर ब्याही हो, धनिक घर में विशेषता क्या आ जायगी ? गरीब भी अपनी उदरपूर्ति करता है और धनिक भी अपनी उदरपूर्ति करता है । ज्यादह से ज्यादह इतनी बात होने लगेगी उस धनिक घराने की लड़की में कि लंबी एड़ी की चप्पल पहिन ले और हाथ में बटुवा ले ले, इससे अधिक और क्या कर लेगी । और गरीब घराने की लड़की यह नहीं कर पाती । वह अपने में प्रसन्न है, अपने सद्व्यवहार से दूसरे के प्रेम से, अपने सदाचार से धर्म में अनुराग होने से मोक्ष के पथ का ज्ञान होने से वह आत्मा तो यही चाहता है कि इनसे भी और कम संग रहे, कम मिलन रहे और इकलापन बने, और इस भाव में वह गरीब बहुत कुछ लाभ लूट रहा है, जबकि धनी इस प्रभु सेवा से वंचित रह जाता है ।
सबके दु:ख व दु:खशमन की मूल में एक पद्धति- देखिये भैया ! चूंकि आश्रय है ना पर पदार्थों का तो वहां अपने आप की सुध नहीं हो पाती । बिरले ही धनिक ऐसे होते हैं जो धन का लगाव नहीं रखते, धन का जो हो सो हो, पर अपने परिणाम निर्मल रखते हैं और अपने कर्तव्य में निष्ठ रहते हैं । तो क्या फर्क पड़ा यहाँ बाहरी बातों से ? वास्तविक फर्क तो भीतरी भाव का है । परदृष्टि और स्वदृष्टि का अंतर वास्तविक अंतर है । जैसे बिरादरी की पंगत में गरीब अमीर का भेद नहीं रहता, सबको सभी भोजन सामाग्री समानरूप से मिलती हैं ऐसे ही इस भाव जगत में परदृष्टि करने वाले अनेक जीवों में धनी हों या गरीब हों, उनमें कुछ अंतर नहीं है । दोनों को दु:ख है वह परदृष्टि के कारण दु:ख है । परदृष्टि हटे तो शांति प्राप्त हो । यहां अंतर मिलेगा । ऐसे अपने आपके दर्शन, अनुभवन, स्पर्शन, श्रद्धान ज्ञान के प्रताप से अपने आपके उपयोग में ही प्राप्त इस चैतन्यमात्र सहज चित्स्वरूप को मैं भजता हूं ।
स्वभाव में उपयोग समा जाना ही एकमात्र अनुत्तर पुरुषार्थ:- निजअंतस्तत्त्व को भजना क्या कि ज्ञान में यह स्वभाव एक रस होकर अर्थात् ज्ञान में यह स्वभाव पूर्ण रूप से समाया हुआ है । स्वभाव से बाहर ज्ञान नहीं, ज्ञान से बाहर स्वभाव नहीं, ऐसे स्वभाव का ज्ञान परिणमन एकरस जब होता है तब वह है उसकी असली पूजा, उपासना, सेवा । करने के लिए मात्र एक यही सारभूत काम है इस जीवन में कि मेरा ज्ञान ऐसा स्वभाव में समा जाय कि स्वभाव से बाहर ज्ञान नहीं, ज्ञान से बाहर स्वभाव नहीं, ऐसा एकरस होकर मैं अपनी स्थिति बनाऊं, परिणति बनाऊं जो कि निर्विकल्प है । उस अभेद परिणमन के द्वारा मैं इस निज सहज चैतन्यस्वरूप को प्रकृष्ट रूप से भजता हूं, सेवा में ही सच्चा स्तवन है । कोई ऊपरी स्तवन करे और सेवा न करे तो वह वास्तविक स्तवन नहीं हुआ । यही देख लो परिजनों में। कोई बाप की स्तुति तो दोनों समय करता जाय, पर उसे खाने पीने को न पूछे, उसके आराम की बात न पूछे, तो क्या वह बाप का स्तवन सच्चा स्तवन है । ऐसे ही कोई प्रभुस्वरूप का स्तवन तो कर ले पर अपने उपयोग में प्रभुस्वरूप को एकरस न करे तो उसका स्तवन परमार्थ स्तवन नहीं है । वह तो केवल एक मुख से बोलने भर की बात है । कोई दूसरा वचनों बोल से दे कि आइये जींविये और जींवने का कोई साधन ही न बनाये तो उसका यह कथन क्या अनुराग को बताने वाला है ? ऐसे ही प्रभु का स्तवन प्रभुस्वरूप में ज्ञान को एकरस बनाकर निर्विकल्प विश्राम लिया जाय तो वह है प्रभु का वास्तविक स्तवन, प्रयोगात्मक स्तवन । इस तरह मैं इस सहज चैतन्यस्वरूप अंतस्तत्त्व को अभेद पद्धति से प्रकृष्ट रूप से भजता हूं ।
आत्म कीर्तन
हूँ स्वतंत्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता द्रष्टा आतमराम ॥टेक॥
मैं वह हूं जो हैं भगवान, जो मैं हूं वह हैं भगवान ।अंतर यही ऊपरी जान, वे विराग यहँ रागवितान ॥1॥
मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति सुख ज्ञान निधान ।
किंतु आशवश खोया ज्ञान, बना भिखारी निपट अजान ॥2॥
सुख दुख दाता कोई न आन, मोह राग रूष दुख की खान ।
निज को निज पर को पर जान, फिर दुख का नहिं लेश निदान ॥3॥जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु बुद्ध हरि जिसके नाम ।राग त्यागि पहूँचू निजधाम, आकुलता का फिर क्या काम ॥4॥
होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जग का करता क्या काम ।दूर हटो परकृत परिणाम, सहजानंद रहूँ अभिराम ॥5॥
आत्मकल्याण के लिये पंचसूत्री भावना
(1)
मै देह से निराला, अमूर्त ज्ञान मात्र हूँ ।
(2)
मैं ज्ञान को ही करता हूँ व ज्ञान को ही भोगता हूँ
(3)
ज्ञान का करना भोगना क्या ?
जानन परिणमन होता रहता है ।(4)
परमार्थत: मैं अविकार ज्ञान स्वभाव हूँ ।
(5)
हे अविकार ज्ञान स्वभाव ! प्रसन्न होओ
और जन्म मरण का संकट दूर करो ।
(सहजानंद डायरी से उध्दृत)