GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 165 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जस्स हिदये] जिसके हृदय, मन में, [अणुमेत्तं वा] परमाणुमात्र भी [परदव्वं] शुभाशुभ परद्रव्यों के साथ [हु] वास्तव में [विज्जदे रागो] राग विद्यमान है; सो वह [ण विजाणदि] नहीं जानता है । वह किसे नहीं जानता है ? [समयं] वह समय को नहीं जानता है । वह किसके समय को नहीं जानता है ? [सगस्स] अपने आत्मा सम्बन्धी समय को नहीं जानता है ? कैसा होने पर भी उसे नहीं जानता है ? [सव्वागमधरोवि] सम्पूर्ण शास्त्रों का पारगामी होने पर भी वह उसे नहीं जानता है ।
वह इसप्रकार -- निरुपराग परमात्मा से विपरीत राग जिसके विद्यमान है, वह अपने शुद्धात्मा में अनुचरणमय स्व-स्वरूप को नहीं जानता है; उस कारण पहले विषयानुराग को छोड़कर, तत्पश्चात् गुणस्थान-सोपान (वीतरागता की वृद्धि के) क्रम से रागादि रहित निज शुद्धात्मा में स्थिति कर अरहन्त आदि के विषय में राग छोडने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है ॥१७५॥