GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 37 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, १चेतयितृत्व-गुण की व्याख्या है ।
कोई चेतयिता अर्थात् आत्मा तो, जो अति-प्रकृष्ट मोह से मलिन है और जिसका प्रभाव (शक्ति) अति-प्रकृष्ट ज्ञानावरण से मुंद गया है, ऐसे चेतक-स्वभाव द्वारा सुख-दुःख-रूप कर्म-फल को ही प्रधानत: चेतते हैं, क्योंकि उनका अति-प्रकृष्ट वीर्यान्तराय से कार्य करने का (कर्म-चेतना-रूप परिणामित होने का) सामर्थ्य नष्ट हो गया है ।
दुसरे चेतयिता (आत्मा), जो अति-प्रकृष्ट मोह से मलिन है और जिसका प्रभाव २प्रकृष्ट ज्ञानावरण से मुंद गया है, ऐसे चेतक-स्वभाव द्वारा -- भले ही सुख-दुःख-रूप कर्म-फल के अनुभव से मिश्रित-रूप से -- कार्यको ही प्रधानत: चेतते हैं, क्योंकि उन्होंने अल्प वीर्यान्ताराय के क्षयोपशम से ३कार्य करने का सामर्थ्य प्राप्त किया है ।
और दुसरे चेतयिता अर्थात् आत्मा, जिसमें से सकल मोह-कलंक धुल गया है तथा समस्त ज्ञानावरण के विनाश के कारण जिसका समस्त प्रभाव अत्यन्त विकसित हो गया है, ऐसे चेतक-स्वभाव द्वारा ज्ञान को ही -- कि जो ज्ञान अपने से ४अव्यतिरिक्त स्वाभाविक सुख-वाला है उसी को -- चेतते हैं, क्योंकि उन्होंने समस्त वीर्यान्ताराय के क्षय से अनन्त-वीर्य को प्राप्त किया है इसलिए उनको (विकारी सुख-दुःख-रूप) कर्म-फल निर्जरित हो गया है और अत्यन्त कृत-कृत्य-पना हुआ है (कुछ भी करना लेश-मात्र भी नहीं रहा है) ॥३७॥
१चेतयितृत्व = चेतयितापना, चेतना-वाला-पना, चेतकपना
२कर्म-चेतना-वाले जीव को ज्ञानावरण 'प्रकृष्ट होता है और कर्म-फल-चेतना-वाले को 'अति प्रकृष्ट' होता है
३कार्य = (जीव द्वारा) किया जाता हो वह; इच्छा-पूर्वक इष्टानिष्ट विकल्प-रूप कर्म
४अव्यतिरिक्त = अभिन्न