GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 65 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जह पोग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहिं खंध णिप्पत्ती अकदापरेहिं दिट्ठा] जैसे पुद्गल द्रव्य की अनेक प्रकार से स्कन्ध रूप निष्पत्ति, उत्पत्ति पर से बिना किए ही दिखाई देती है; [तह कम्माणं वियाणाहि] उसी प्रकार कर्मों की भी जानो, हे शिष्य तुम !
वह इसप्रकार -- जैसे लोक में दूसरों द्वारा नहीं किए जाने पर भी चन्द्र-सूर्य की प्रभा उपलब्ध होने पर बादल, संध्या की लालिमा, इन्द्र-धनुष, परिवेष (मण्डल) आदि अनेक प्रकार से पुद्गल स्वयं ही परिणमित होते हैं; उसी प्रकार विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी आत्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, अनुचरण-मय भावना-रूप अभेद रत्न-त्रयात्मक कारण-समयसार से रहित जीवों के मिथ्यात्व-रागादि परिणाम होने पर, कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गल, उपादान कारण-भूत जीव द्वारा नहीं किए जाने पर भी, अपने उपादान कारण से ही ज्ञानावरणादि मूलोत्तर प्रकृति-रूप अनेक भेदों से परिणमित होते हैं -- ऐसा भावार्थ है ॥७२॥
इस प्रकार पुद्गल के स्वयं उपादान कर्तृत्व के व्याख्यान की मुख्यता से तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।