GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 101 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
एदे ये प्रत्यक्षीभूत कालागासा धम्मा धम्मा य पोग्गला जीवा काल, आकाश, धर्म, अधर्म, पुद्गल, जीव रूप कर्ता, लब्भंति प्राप्त करते हैं । वे किसे प्राप्त करते हैं ? दव्वसण्णं वे द्रव्यसंज्ञा को प्राप्त करते हैं । वे इसे कैसे प्राप्त करते हैं ? सत्ता-लक्षण, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षण और गुण-पर्याय लक्षण -- इसप्रकार द्रव्य-पीठिका में कहे गए क्रम से द्रव्य के तीनों लक्षणों का योग होने से वे 'द्रव्य' संज्ञा को प्राप्त करते हैं । कालस्स य णत्थि कायत्तं तथा काल के कायत्व नहीं है । उसके कायत्व कैसे नहीं है ? विशुद्ध दर्शन-ज्ञान स्वभावी शुद्ध जीवास्तिकाय आदि पाँच अस्तिकायों के बहुप्रदेश-प्रचयत्व-लक्षण कायत्व जैसे विद्यमान है, उसप्रकार कालाणुओं के नहीं है;-
'रत्नों की राशि के समान असंख्य द्रव्य कालाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक स्थित हैं ।'
इस गाथा में कहे गए क्रम से लोकाकाश प्रमाण असंख्येय द्रव्य होने पर भी उनके कायत्व नहीं है । यहाँ केवल ज्ञानादि शुद्ध गुण, सिद्धत्व-अगुरुलघुत्व आदि शुद्ध पर्याय सहित शुद्ध जीव-द्रव्य से अन्य हेय हैं, ऐसा भाव है ॥१०९॥
इसप्रकार काल के द्रव्यास्तिकाय संज्ञा की विधि-निषेध के व्याख्यान से पाँचवें स्थल में गाथा-सूत्र पूर्ण हुआ ।