GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 146 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
योग के निमित्त से ग्रहण, कर्म पुद्गलों का ग्रहण होता है । योग इसका क्या अर्थ है ? जोगो मणवयणकायसंभूदो योग मन, वचन, काय से उत्पन्न है; निष्क्रिय निर्विकार चैतन्य-ज्योति रूप परिणाम से भिन्न मन, वचन, काय वर्गणा के आलम्बन रूप व्यापार, आत्म-प्रदेशों में परिस्पंद लक्षण-मय, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न; कर्मों को ग्रहण करने में हेतु-भूत योग है । भावणिमित्तो बंधो भाव निमित्तक है । ऐसा वह कौन है ? स्थिति-अनुभाग बंध ऐसा है । भाव कहते हैं भावो रदिरागदोसमोहजुदो रागादि दोष रहित चैतन्य-प्रकाश परिणति से पृथग्भूत मिथ्यात्व आदि दर्शन-मोहनीय के तीन तथा कषाय आदि चारित्र-मोहनीय के बारह भेद से पृथग्भूत भाव रति, राग, द्वेष, मोह युक्त है । यहाँ 'रति' शब्द से रति में अन्तर्भूत हास्य की अविनाभावी नो कषायें ग्रहण करना; 'राग' शब्द से माया-लोभ रूप राग परिणाम; 'द्वेष' शब्द से क्रोध, मान, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा रूप छह प्रकार के द्वेष परिणाम; तथा मोह शब्द से दर्शन-मोह ग्रहण किया गया है ।
यहाँ जिस कारण कर्मादान रूप से प्रकृति-प्रदेशबंध का हेतु है, उस कारण योग बहिरंग निमित्त है; चिरकाल स्थायी होने से स्थिति-अनुभाग बंध का हेतु होने के कारण कषायें अभ्यंतर-करण हैं, ऐसा तात्पर्य है ॥१५६॥